धर्म का पालन करने से ही समाज का कल्याण है

March 1964

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यतोऽभ्युदनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः।

अर्थात्-’धर्म वह है जिससे इस लोक में अभ्युदय हो और अन्त में मोक्ष की प्राप्ति हो।’

इस न्याय के अनुसार जिसने धर्म का पालन किया वही अपने जीवन को सार्थक बना सका। मनुष्य, पक्षी, पशु आदि सभी अपने-अपने स्वाभाविक धर्म का निर्वाह करते हैं। धर्म ही इहलोक और परलोक का निर्माता हो। वही एक ऐसा सुगम मार्ग है जो जीवन नैया को पार लगाने में सहायक होता है।

धर्म उस सर्वव्यापक परमात्मा का श्रेष्ठ विधान है। वही सम्पूर्ण जगत का धारण करने वाला है। उसी के सहारे पृथिवी और आकाश टिके हुए हैं। समुद्र अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता यह उसका धर्म है। जल-वृष्टि करना मेघ का धर्म है। दग्ध करना अग्नि का धर्म है। इसी प्रकार सब अपने-अपने धर्म पर अटल हैं।

एक बार एक राजा ने अपराधी के तर्क का उत्तर देते हुए कहा-’सर्प का धर्म काटना है, वह मनुष्य को काट खाये तो उसका कुछ अपराध नहीं है, अपराधी उस मनुष्य का है जिसने सर्प के बिल में हाथ डाल कर अपने स्वभाव के विरुद्ध कार्य किया।’

ईश्वर जैसे अनादि और सनातन है, वैसे ही धर्म भी सनातन है। जिसने धर्म के विरुद्ध कार्य किया, यही नष्ट हो गया। रावण, कंस, दुर्योधन आदि अनेक महाबलवानों का उदाहरण दिया जा सकता है जो धर्म के विपरीत चल कर नष्ट हो गए। उनके कुलों में कोई रोने वाला भी उस समय तो शेष नहीं बचा।

विभिन्न मतमतान्तरों को धर्म कह दिया गया है। विभिन्न सम्प्रदायों को भी धर्म कहा गया। परन्तु, न तो मतमतान्तर धर्म हैं और न सम्प्रदाय ही। वे तो धर्म की ओर ले जाने वाले मार्ग हैं। उनमें से किसी भी मार्ग को अपना लीजिए, वह आपको एक लक्ष्य की ओर ले जायेंगे। उन मार्गों से जो शुभ कर्म हैं, उन्हीं का समूह धर्म है। उनमें जो विभिन्न आडम्बर आदि हैं, वे यथार्थ न होने से त्याज्य हैं। अतः धर्म श्रेष्ठ कर्मों का ही रूपांतर है।

मनुष्य यह मानले कि आत्मा सबका एक ही है तो उसकी समझ में यह बात आ जायगी कि दूसरे को दुःख हुआ तो अपने को ही हुआ। यदि आपने किसी को सुख पहुँचाया तो प्रकारान्तर से अपने को ही पहुँचाया। अर्थात् दूसरे का दुःख-क्लेश अपना ही मानना चाहिए।

सभी प्राणी अपने-अपने कर्म का फल भोगते हैं। यदि कोई समझे कि आज ही किसी का हाथ काट कर उसका परिणाम देखे कि आज ही मेरा हाथ कटता है या नहीं तो तुरन्त सी कोई बात नहीं होती परन्तु उसके दुष्कर्म का फल कालान्तर में मिलता अवश्य है। बहुत-सों को तो तत्काल भी मिल जाता है। यह आवश्यक नहीं कि फल उसी प्रकार हाथ कटने से मिले, बल्कि वह किसी भी प्रकार से सही, भुगतना अवश्य पड़ता है।

एक बार की बात है-एक बच्चे को किसी कुत्ते ने काट खाया, लोगों की समझ में कुत्ता पागल नहीं था, अतः बच्चे का साधारण उपचार हुआ और वह ठीक भी हो गया। परन्तु पाँच-सात वर्ष बाद अकस्मात उसके शरीर में भीषण दर्द हुआ। डाक्टरों ने बहुत सोच विचार के पश्चात निर्णय किया कि इसे कभी कुत्ते ने काटा है उसी का विष इस समय उभर आया है।

अब सोचिए कि कब का विष कब उभरा। इसी प्रकार हमारा कब का बुरा कर्म न जाने कब उभर आवे। इसलिए दूसरों के अनिष्ट-चिंतन से बचना चाहिए। उसका परिणाम अपने लिए ही अहितकर होता है।

हम सब एक परमात्मा द्वारा उत्पन्न पुत्र हैं इसलिए परस्पर भाई-भाई हैं। तो एक भाई अपने दूसरे भाई को दुःख क्यों देना चाहेगा?

ईश्वर सब का रक्षक है। एक व्यक्ति दूसरे को दुःख देना चाहे तो वह दुःखी और निर्बल की सहायता करेगा। भगवान अत्याचारी का साथ कभी नहीं देते। वे उसी पलड़े पर बैठते हैं जो हलका हो। परन्तु धर्म उसके साथ होना चाहिए। अधर्मी मनुष्य के वे साथी नहीं हैं। जिसे उनकी आवश्यकता नहीं उसके पास वे कभी नहीं जाते। सन्तों ने निर्बल के बल राम कहकर इस बात की पुष्टि की है।

सभी तत्वज्ञानी जानते हैं कि परमात्मा ही उत्पत्ति, पालन और विनाश करते हैं। वही इस जीव को अपनी माया में भ्रमाते और वही उससे निकाल लेते हैं। आप कहेंगे कि जब परमात्मा को ही हमारी चिन्ता है तो हम क्यों अपनी चिन्ता करें? आपका यह तर्क ठीक तो है। परन्तु आपने कभी यह भी सोचा है कि आपके गमनागमन के लिए सुन्दर मार्ग तो बना है, परन्तु उस पर चलना आपको ही पड़ेगा। अपने पाँवों को कष्ट दिए बिना आपका कही भी जाना-आना संभव नहीं है।

इससे यह सिद्ध हुआ कि कर्म किए बिना सब निरर्थक है। कर्म ही धर्म है। उसी का पालन करने से सुख शाँति मिलेगी। हम जो कुछ करें उसमें अपना ही लाभ न देखें। आपके कर्म से दूसरों की हानि न हो। लाभ हो तो बहुत ही अच्छा है। लाभ न हो तो हानि भी तो नहीं होनी चाहिए।

इसे दूसरे प्रकार से भी समझिए-आप किसी की हानि करेंगे तो जिसकी हानि हुई है, उसके मन में द्वेषाग्नि उत्पन्न हो जायगी और जब कभी अवसर मिलेगा, वह आपको भी हानि पहुँचाने का यत्न करेगा। आप चाहें कि आप जिससे द्वेष करते हैं वह आपसे प्रेम करे तो यह कभी संभव नहीं है। प्रेम के बदले में प्रेम पाया जा सकता है, द्वेष के बदले प्रेम कैसे मिलेगा?

ऐसे महापुरुष भी हैं जो द्वेष के बदले में प्रेम प्रदान करते हैं परन्तु, उनकी गणना साधारण मनुष्यों में नहीं की जा सकती। वे तो पहुँचे हुए पुरुष होंगे जिन्होंने राग द्वेष को त्याग दिया है। वे प्राणी मात्र के प्रति प्रेम और दया का भाव रखते हैं। उन्हें अपने से द्वेष रखने वाले के प्रति शत्रुता नहीं होती और स्नेह करने वाले से प्रेम नहीं होता। उनका धर्म विश्व का कल्याण करने वाला है।

एक बात और है-आप किसी शत्रु से प्रेम करते हैं तो वह शत्रु आपसे द्वेष कब तक करता रहेगा? उसे एक दिन अवश्य झुकना पड़ेगा आपके सामने। वह विवश हो जायगा अपना शत्रु-भाव त्यागने के लिए। इसमें दोनों का हित भी है तो क्यों हम ऐसे मार्ग पर चलें जो हमारे लिए अहितकर है? हम क्यों न उसका और अपना दोनों का कल्याण सोचें? यदि हम ऐसा आचरण करने लगें तो कोई झंझट ही सामने न आवे फिर कोई विवाद जीवन के क्षेत्र में बाधक न बने।

मनुष्य के समान ही पशु, पक्षी आदि को पीड़ित करना भी अधर्म है। जब हमें कोई शक्तिशाली व्यक्ति पीड़ित करे तो हमें स्वयं तो कष्ट होता ही है, साथ ही हमारा मन उस पीड़क को कोसता भी है, उसी प्रकार आज जिस निर्बल को सतायेंगे तो वह भी आपको शाप देगा। आपके द्वारा किये गए अन्याय की प्रतिक्रिया स्वरूप उसका प्रतिफल भी आपको ही भोगना पड़ेगा।

आज अत्याचारी अपने अन्याय पर भले ही मुस्करा ले, परन्तु जब अन्त समय आयेगा और अट्टहास करती हुई मृत्यु अपना भयंकर पंजा तेजी से जकड़ने का यत्न करेगी उस समय अपने कुकृत्यों पर पश्चात्ताप करने के सिवाय और कुछ भी न बन पड़ेगा।

परमात्मा द्वारा रची गई सृष्टि में सभी जड़ चेतन प्राणी अपने-अपने सामर्थ्यानुसार एक दूसरे का उपकार करते हैं। वे एक दूसरे का विनाश नहीं, उत्कर्ष चाहते हैं। जब पशु-पक्षियों तक उपकार की भावना भरी है तो हम मनुष्य होकर भी दूसरों का उपकार क्यों न करें?

हमें परोपकारी बनना चाहिए। दूसरों को कष्ट में पड़ा देखकर उनके साथ सहानुभूति का व्यवहार करें तो इससे परमात्मा भी प्रसन्न होते हैं। पड़ोसियों से सद्व्यवहार करना ही हमारे धर्म में सम्मिलित है। इसलिए हमें ऐसी चेष्टा करनी चाहिए जिससे हमारे द्वारा किसी को कोई कष्ट न होने पावे।

हमारे ऋषियों ने मानव धर्म की जो व्याख्या की है, उसका सार यही है कि मनुष्य यदि ईश्वर को मानता है और उसका धर्म में विश्वास है तो उसे सदाचारी सत्यनिष्ठ और सत्यवक्ता होना चाहिए। दया, प्रेम, क्षमा आदि गुण जिस मनुष्य में है, वह सभी का प्रीति-भाजन बन सकता है। अतः अपना कल्याण चाहते हो तो धर्म-मार्ग का अवलम्बन करो। इसी में सब प्राणियों का परम हित है।


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