गायत्री की उच्चस्तरीय साधना में तत्व-दृष्टि, भावना और श्रद्धा का समावेश करना पड़ता हैं। इन तत्वों का जिस-जिसकी साधना में समावेश होगा उसे उतना ही आत्मविकास का उत्कृष्ट लाभ प्राप्त होगा। गायत्री क्या है, उसकी उपासना में क्या दृष्टि रहे और किन गुणों का समावेश अपनी मनोभूमि में होना चाहिए, जिसे सब बातों का ध्यान रहेगा उसकी थोड़ी भी साधना बहुत फलदायक होगी।
सामान्य साधना जिसे छोटे स्तर की बाल साधना कहते हैं, क्रियाकाण्ड भर की होती है। ऐसे कितने ही व्यक्ति हैं जो केवल जप मात्र को ही सब कुछ समझते हैं। जप, हवन, अनुष्ठान पूजन आदि बाह्य प्रतीक उपचार ही उनकी समझ में सब कुछ होता है। जप की संख्या पूरी करनी, फिर चाहे मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह के कुविचार उस समय कितनी ही उच्छृंखल गति से उठते क्यों न रहें। जगजननी की छवि को देखने का ध्यान करना उनके लिए सब कुछ होता हैं। श्रद्धा, प्रेम, आत्मीयता एवं तन्मयता का भाव भी साथ में हैं या नहीं इस बात पर वे लोग ध्यान नहीं देते। जप का शारीरिक श्रम भी कुछ तो उपयोगी है ही पर भावना के अभाव में वह एक प्रकार से निर्जीव ही बना रहता है।
सच्ची उपासना वह है जो आत्म-कल्याण के लिए जीवनस्तर को उत्कृष्ट बनाने के लिए दुर्बुद्धि हटा कर मनोभूमि में सद्बुद्धि की स्थापना के लिये श्रद्धा और भावना पूर्वक की जाती है। किसी लौकिक प्रयोजन को लक्ष्य रख कर कई व्यक्ति जप-तप करते हैं और यह हिसाब लगाते रहते हैं कि इतना जप हो जाने पर यह प्रयोजन पूरा हो जाना चाहिए, यह सिद्धि मिल जानी चाहिये। यदि वह प्रयोजन पूर्ण हो गया तो भी उसे छोड़ देते हैं और नहीं हुआ तो भी उसको त्याग ही देते हैं। वैद्य के पास रोगी तभी तक जाता है जब तक कि उसे कष्ट रहता है। कष्ट दूर हुआ कि रोगी ने वैद्य से रिश्ता तोड़ा। इसी प्रकार यदि रोग अच्छा न हो तो भी रोगी उस वैद्य से मुँह मोड़ लेता हैं, और उसकी बुराई करने लगता है। सकाम उपासना वालों का स्तर भी यही रहता है। किसी जप, तप से अभीष्ट लाभ हो गया फिर उसे करने की जरूरत नहीं रहती और चाही हुई अवधि में मनोकामना पूर्ण न हुई तो भी उसे व्यर्थ समझ कर छोड़ दिया जाता है। ऐसी पूजा को साधना कहना ही नहीं चाहिए, वह तो किसी लौकिक प्रयोजन को पूरा करने के लिए एक लौकिक माध्यम मात्र थी, साधना आत्म-कल्याण के लिए लौकिक कामनाओं से रहित होकर की जाती है।
परमात्मा ने जो कुछ दिया है वह कम नहीं। जो कमी है वह हमारे प्रयत्न और पुरुषार्थ की त्रुटियों के कारण है। अपने गुण, कर्म, स्वभाव के दोषों को सुधार कर व्यक्तित्व को सुव्यवस्थित करें तो प्रत्येक उचित कामना सहज ही पूर्ण हो सकती है। अपनी त्रुटियों को ज्यों का त्यों रखा जाय, दोष और दुर्गुणों को ज्यों-का-त्यों रहने दिया जाय। तृष्णा और कामना की परिस्थितियों के साथ तालमेल रखकर लम्बी-चौड़ी कामना करते हुये उनकी पूर्ति का साधन थोड़े से पूजा-पाठ को मान लिया जाय तो यह भारी भूल है। कर्म और पुरुषार्थ का उचित मूल्य चुकाने पर पात्रता के अनुरूप जो सफलतायें मिलती हैं उन्हें थोड़े से पूजा-पाठ के द्वारा चुटकी बजाते, प्राप्त करने का लालच किया जाय तो यह अनुचित और अनुपयुक्त बात होगी।
लौकिक प्रयोजनों की पूर्ति हमें अपने गुण, कर्म, स्वभाव का परिष्कार करते हुए श्रम और अध्यवसाय द्वारा करनी चाहिये। ईश्वर ने हमें उन सभी क्षमताओं से पूरी तरह सम्पन्न करके भेजा है जिनसे अपनी आवश्यकतायें अपने बाहुबल एवं बुद्धि कौशल से सरलतापूर्वक प्राप्त कर सकें। शुभ अशुभ कर्मों के फलस्वरूप सुख-दुख की परिस्थितियाँ ही आती जाती रहती हैं। इन्हें धैर्यपूर्वक सहन करना चाहिए। कर्म फल का सिद्धान्त अमिट है। हमारी करनी हमें ही भरनी पड़ेगी। इसके लिये ईश्वर को या किसी दूसरे को दोष देने से क्या लाभ? धैर्य और साहसपूर्वक बुरी परिस्थितियों का भी मुकाबला किया जा सकता है। अपनी न्याय व्यवस्था को बिगाड़ कर ईश्वर से अपने लिए पक्षपात का व्यवहार करने की प्रार्थना करना किसी सच्चे साधक को शोभा नहीं देता। यदि हमने पाप किया है तो उसका दण्ड हँसते हुए भोगने का भी साहस हम में होना चाहिए, यही मानवोचित दृष्टिकोण हो सकता हैं।
परमात्मा से प्रार्थना करनी हो तो धैर्य, साहस, पुरुषार्थ और सद्गुणों की अभिवृद्धि की ही करनी चाहिए। वस्तुतः प्रभु किसी पर प्रसन्न होते हैं तो उसे वस्तुयें नहीं, प्रेरणायें देते हैं। चिन्ता और परेशानियों से, अभाव और कष्टों से पार निकलने के लिये यदि आवश्यक मार्ग-दर्शन प्राप्त हो जाय और उस पर चलने का साहस बन पड़े तो फिर कठिन से कठिन उलझनों को मनुष्य पार कर सकता है। इसके विपरीत यदि आकस्मिक दैवी सहायता मिल जाय तो वह तत्कालिक उलझन तो दूर हो सकती है पर क्षमता और प्रतिभा के अभाव में, फिर अगले दिन वैसी ही अन्य समस्यायें आगे आ खड़ी होंगी। उलझे दृष्टिकोण के व्यक्ति आये दिन कठिनाइयों के जंजाल में फंसे ही रहते हैं। परमात्मा का सच्चा अनुग्रह यही हो सकता है कि व्यक्ति का दृष्टिकोण सुलझा हुआ हो, समस्याओं को हल करने की हिम्मत और सूझ-बूझ बनी रहे, गुण, कर्म, स्वभाव में ऐसी संजीदगी हो कि अपनी ही नहीं दूसरों की गुत्थियों को भी उस माध्यम से सरल बनाया जा सके। गायत्री उपासक को माता का ऐसा ही अनुग्रह मिलता है, और वह भौतिक जीवन में सुख तथा आन्तरिक क्षेत्र में शान्ति अनुभव करता हुआ अपने आप को हर घड़ी आनन्द एवं उल्लास की स्थिति में पाता रहता है।
आपत्तियों का निवारण समस्याओं का हल और अभावों की पूर्ति के लिये आमतौर से लोग पूजा-पाठ करते हैं। श्री समृद्धि और सम्पदा की कामना में जप, तप, का विधि विधान अपनाया जाता है। मनुष्य दुर्बल प्राणी है। सुख और लाभ की इच्छाओं से प्रेरित होकर वह विविध कर्म करता है उन्हीं में से एक पूजा-पाठ भी माना गया है। देवी, देवताओं की शरण में लोग इसीलिए जाते हैं। पूजा पाठ भी ऐसे ही किसी प्रयोजन से करते हैं। संत-महात्माओं का आशीर्वाद भी इसीलिए चाहते हैं। यों बाल-बुद्धि की स्थिति में यह भी कुछ बुरा नहीं है। इसी निमित्त से सही, कुछ भगवान का नाम स्मरण हो जाय तो वह भी अच्छा ही है। पर इस दृष्टि के साथ की गई उपासना को आध्यात्मिक नहीं कह सकते। वह भौतिक उद्देश्य के लिए भौतिक प्रयत्न मात्र सिद्ध होती है और उसका प्रतिफल भी छोटा-सा ही बनकर रह जाता है। इसलिए इस प्रक्रिया को तत्वदर्शियों ने निम्नस्तरीय उपासना कहा है।
जिनकी अध्यात्म-मार्ग में कोई रुचि नहीं है, जो आत्म-कल्याण का महत्व नहीं समझते और भौतिक लाभ ही जिन्हें सब कुछ दिखाई पड़ता है उनके लिए प्राथमिक आकर्षण की दृष्टि से यह सकाम या निम्न-स्तरीय साधना भी उपयोगी है। जितना समय और श्रम उनका लगता है उसकी तुलना में कहीं अधिक लाभ उन्हें निश्चित रूप से प्राप्त हो जाता है। जो कुछ चाहा जाय वह सब पूर्ण होना ही चाहिये इसकी तो गारन्टी नहीं, पर इतना दावे से कहा जा सकता है कि जितने समय आराधना की गई है उतने समय का लाभ उसकी अपेक्षा कहीं अधिक होगा जो उस प्रयोजन के लिए भौतिक प्रयत्न करने में किया जाता। गायत्री उपासना में लगाया हुआ समय कभी किसी का व्यर्थ नहीं जाता।
रामायण में तीन प्रकार की पतिव्रता मानी गई है, 1. पति को सर्वतो भावेन आत्म-समर्पण, करने वाली 2. पति और अन्य लोगों में उचित अन्तर करके उनके साथ तदनुसार व्यवहार करने वाली है। 3. दुराचार का अवसर न मिलने और दण्ड, भय की आशंका से सदाचारिणी बनी रहने वाली। इन तीनों को ही यद्यपि पतिव्रता माना गया है पर उनकी मानसिक स्थिति के कारण वे उत्तम, मध्यम, नीच, इन तीन श्रेणियों में विभक्त की गई हैं। क्रमशः पहली से दूसरी का ओर दूसरी में तीसरी का स्तर नीचा है। उनकी इस साधना का प्रतिफल भी उसी स्तर के अनुसार मिलता है। इसी प्रकार गीता में चार प्रकार के भक्त बताये गये हैं। 1. आपत्ति आने पर उसका निवारण करने के लिए भगवान को पुकारने वाले। 2. जानकारी का कौतूहल पूरा करने के लिए परमात्मा की खोज बीन करने वाले। 3. सिद्धियाँ और विभूतियाँ पाने के लालच से जप, तप, करने वाले। 4. प्रभु को प्रगति के लिए सच्ची भावना से आत्म-समर्पण करने वाले विवेकशील ज्ञानी। इन चारों का स्तर क्रमशः एक दूसरे से श्रेष्ठ हैं। मनोभूमि के अनुसार उपासना की श्रेष्ठता निकृष्टता नापी जाती है, यद्यपि बाहर से सभी भक्तों की पूजा उपासना एक समान दिखाई पड़ती है। तीन पतिव्रताओं और चार भक्तों की बाह्य स्थिति में कोई अन्तर नहीं होता, आचरण इन सबका समान होता है पर अन्तःस्थिति के कारण उनकी श्रेष्ठता एवं निकृष्टता का स्वरूप अलग-अलग ही रहता है और उन्हें लाभ भी उसी आधार पर न्यूनाधिक प्राप्त होता है। वेश्या और पत्नी का शारीरिक आचरण एक-सा होने पर भी उनकी भावना के कारण प्रतिफल में भारी अन्तर रहना स्वाभाविक ही है।
गायत्री उपासना में भी इसी प्रकार के स्तर हैं। निम्न स्तर के साधक विपत्ति के समय माता को पुकारते हैं या कोई भौतिक लाभ प्राप्त करने के लिये दरवाजा खटखटाते हैं। उनको इच्छित समय में, इच्छित मात्रा का लाभ मिला तो अपने श्रम की सार्थकता मानकर अपनी सफलता और चतुरता पर गर्व कर लेते हैं पर यदि अभीष्टित लाभ न मिला तो इष्टदेव, मार्गदर्शक तथा उपासना-विज्ञान तीनों को ही भरपूर कोसते हैं और जो थोड़ा समय साधना में लग गया उस पर पश्चाताप प्रकट करते हैं। ऐसे निम्नस्तरीय साधक अपनी घटिया मनोभूमि के कारण कोई बड़ा लाभ प्राप्त नहीं कर सकते। क्योंकि घट-घट वासिनी महाशक्ति आखिर भावना स्तर को भी तो देखना जानती है। बाहरी कर्मकाँड ही तो उसके लिए सब कुछ नहीं हैं। प्रभु की प्रसन्नता उच्च-स्तरीय भावनाओं द्वारा ही सम्भव है। वे उसी से पसीजते हैं। केवट, शबरी, सुदामा, विदुर और गोपियों का साधनात्मक कर्मकाँड साधारण रहने पर भी उनकी भावना ने उन्हें लक्ष्य की प्राप्ति कराई जब कि निकृष्ट उद्देश्य के साधन करने वाले मेघनाद, कुम्भकर्ण, रावण, भस्मासुर, हिरण्यकश्यप को प्राप्त अतुल वरदान भी उनके पतन में ही सहायक हुये। ईश्वर के राज्य में वह अध्यात्म क्षेत्र में भावना का ही सबसे बड़ा महत्व है। गायत्री उपासना की एक-सी ही साधना पद्धति अपनाने वाले व्यक्तियों में से सब को एक-सा परिणाम नहीं मिलता। कोई स्वल्प काल में ही आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त करते हैं और कुछ तो बहुत समय बीत जाने पर भी कोई प्रकाश दृष्टिगोचर नहीं होता।
यों उपासना का अपना लाभ तो होता ही है। उसका परिणाम तो होना ही ठहरा। पर किस व्यक्ति को कितना लाभ मिलेगा उसका अनुमान लगाना हो तो यही जानना पड़ेगा कि उसने किस भावना से, किस श्रद्धा और तन्मयता से साधना की। यदि यह सब घटिया रहा होगा तो उसके अनुसार घटिया परिणामों की ही आशा की जा सकती है। गायत्री उपासना को महात्म्यों का शास्त्रकारों ने विशद वर्णन किया है। उसे देखते हुए प्रतीत होता है कि यह साधना पारस, कल्पवृक्ष, कामधेनु और अमृत के समान उपयोगी है। कितने साधकों को वैसे ही लाभ मिले भी हैं। उनके चरित्र और उदाहरण सामने आते हैं तो विश्वास और भी बढ़ता है। प्राचीनकाल में समस्त ऋषि मुनि, राम कृष्ण और अवतार, महापुरुष ज्ञानी मनस्वी और विचारशील व्यक्ति गायत्री उपासना ही करते रहे हैं। यही हमारी एक मात्र जातीय आराधना रही है। इसी मन्त्र की शक्ति से इस देश का अध्यात्म बल बढ़ा है और हमारा इतिहास गौरवपूर्ण बना है। अभी भी ऐसे अनेक गायत्री उपासक मौजूद हैं जिनका आत्मबल इस गये बीते युग में भी आश्चर्यजनक कहा जा सकता है। इन तथ्यों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि उस महामन्त्र के बारे में ऋषियों और शास्त्रों ने जो कुछ कहा है वह असत्य नहीं है। पर जब अपनी निज की बात पर सोचते हैं, हमने इतने दिन इतने घण्टे इतने हजार जप कर लिया और हमारे मनोरथ तब भी पूरे नहीं हुये तो निराशा होने लगती है। मस्तिष्क यही सोचता है कि यह महात्म्य सही होता तो हमें भी इतना लाभ क्यों न मिलता?
इस द्विविधा का समाधान इस प्रकार करना चाहिए कि निम्न स्तरीय-क्षुद्रता की मनोभूमि में की हुई उपासना बहुत थोड़ी फल देती है। उच्चस्तरीय साधना से ही वह परिणाम होता है जिसके आधार पर शास्त्रों में वर्णित गायत्री महात्म्य का सत्य माना जा सके। विगत 24 वर्षों से हम गायत्री उपासना की शिक्षा सर्व साधारण को देते रहे हैं। इस महामंत्र की महत्ता जन-मानस में प्रवेश कराने के लिए व्यापक आन्दोलन गठित करके लाखों व्यक्तियों को इस मार्ग पर लगाया है। इन पर हुए प्रयोग का अनुभव कि गायत्री उपासना निष्फल तो किसी की नहीं जाती, पर सच्चा लाभ वे ही उठाते हैं जिनने उच्चस्तरीय उपासना का अवलम्बन किया है। इस प्रकार के व्यक्तियों में से एक को भी असफलता की शिकायत करते नहीं सुना। उतावले, श्रम की तुलना से अधिक लाभ प्राप्त करने के लोभी, अश्रद्धालु और केवल कौतुक एवं परीक्षण की दृष्टि से थोड़ा भी प्रयोग करने वाले लोग भी निराशा व्यक्त करते देखे जाते हैं और उन्हीं का उत्साह स्वल्प-साधना के पश्चात शिथिल एवं समाप्त होते देखा जाता है।