नारी के लिए जो महत्व पतिव्रत का है वही ज्यों-का त्यों नर के लिये पत्नी व्रत का है। जिस प्रकार नारी पतिव्रत धर्म का अवलम्बन करके अपने आत्म-कल्याण, पारिवारिक स्वर्ग एवं सुसंतति की संभावना उत्पन्न करती है उसी प्रकार पुरुष पत्नीव्रत धर्म का पालन करते हुए इन्हीं विभूतियों एवं सिद्धियों को उपलब्ध करता है।
पतिव्रत धर्म और पत्नीव्रत धर्म एक दूसरे के पूरक हैं। नर और नारी की रचना इस प्रकार हुई है कि एक दूसरे की अपूर्णताओं को पूर्ण करके पारस्परिक सहयोग से एक सर्वांगपूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण करें। पत्नी को अर्धांगिनी कहा गया है, यही बात पति के लिए भी कही जा सकती है। दोनों का सम्मिलित स्वरूप ही एक परिपूर्ण इकाई बनता है। दो हाथ, दो पैर, दो आँखें, दो नथुने, दो कान, दो फेफड़े मिलकर जिस प्रकार अपने-अपने प्रयोजन को पूरा करते हैं उसी प्रकार नर-नारी भी एक सर्वांगपूर्ण जीवन की आवश्यकता पूरी करते हैं। आँख, नाक, कान, हाथ, पाँव, नथुने, फेफड़े आदि युग्मों में से एक यदि नष्ट हो जाय, बीमार, अशक्त, दुर्बल या अव्यवस्थित हो तो शरीर में उपहासास्पद कुरूपता बढ़ती है। लोग उसे काना, भेंड़ा, लंगड़ा, टोंटा, नकटा आदि कहकर चिढ़ाते हैं। बात वास्तविक होती है फिर भी उसमें अपमान अनुभव किया जाता है क्योंकि अपूर्णता अपमान की ही बात होती भी है। मानव-जीवन भी गाड़ी के दो पहियों की तरह पति-पत्नी रूपी दो संतुलित माध्यमों पर ठीक प्रकार लुढ़कता है। इनका पारस्परिक ताल-मेल न खाता हो तो गाड़ी को कुछ दूर तक घसीट भले ही लिया जाय उसमें लम्बी यात्रा पूरी नहीं हो सकती। पति-पत्नी के बीच यदि संतुलन और सामंजस्य न हो तो किसी भी गृहस्थ का भविष्य अन्धकार-मय ही बना रहेगा।
जिन्हें सार्वजनिक सेवा या किसी विशेष लक्ष्य से इतनी तन्मयता होती है कि गृहस्थ पालन एवं आजीविका उत्पादन में समय का एक अंश भी बर्बाद न हो ऐसे विशिष्ट मनस्वी लोगों के लिए बिना गृहस्थ बनाये भी काम चल सकता है। वे आजीवन अविवाहित रहना चाहें तो रह भी सकते हैं। जिन्हें कोई शारीरिक या मानसिक रोग है और गृहस्थ के उत्तरदायित्वों को निबाहने में असमर्थ हैं उनके लिए भी अविवाहित रहना ठीक है। पर सामान्य मनुष्य को गृहस्थ बनना ही पड़ता है इसके बिना उसकी अपूर्णता प्रगति के पथ में भारी अड़चन उत्पन्न करती है और उस अड़चन के कारण शारीरिक मानसिक सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में मनुष्य पिछड़ा हुआ ही पड़ा रहता है।
प्राचीन काल के इतिहास पर दृष्टि डालने से प्रतीत होता है कि कुछ थोड़े में अपवादों को छोड़कर प्रायः सभी ऋषि गृहस्थ थे। योग साधन एवं वनवास में रहते समय भी उनकी पत्नियाँ साथ रहती थीं। ब्रह्मचर्य पालन या न पालन मनुष्य की मनोदशा पर निर्भर है। गृहस्थ में भी आवश्यक ब्रह्मचर्य रह सकता है और अविवाहित लोग भी अपना सत्यानाश करते रह सकते हैं। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए गृहस्थ मुनि भी सपत्नीक रहते थे। ऋषियों में प्रधान सप्त ऋषियों की पत्नियाँ भी और उनके बच्चे भी थे। वशिष्ठ ऋषि के बालकों को विश्वामित्र द्वारा मार डाले जाने की कथा प्रसिद्ध है। लोमश ऋषि के बालक शृंगी ऋषि ने अपने पिता के अपमान से कुद्ध होकर परीक्षित को शाप दिया था। इस प्रकार भी कथाओं का वर्णन यहाँ किया जाय तो प्रायः प्रत्येक ऋषि की धर्म पत्नी और बालकों की सुविस्तृत चर्चा की जा सकती है। पत्नी बच्चों को त्याग कर भाग खड़े होने का वैराग्य तो अवैदिक अशास्त्रीय और अनैतिक है। यह प्रथा तो बुद्धकाल में पड़ी थी, जिसका वैदिक धर्मानुयायी सदा से विरोध करते चले आ रहे हैं। वानप्रस्थ तो पत्नी समेत होता ही है। संन्यास में पत्नी की रुचि और सुविधा प्रधान रहती है। वह चाहे तो अपने पुत्र-पौत्रों के साथ रहे चाहे तो पति के साथ परिव्रज्या या कुटीचक के रूप में उनका सहचरत्व ग्रहण करके वैराग्य धर्म का पालन करती रहे।
देवताओं में से सभी गृहस्थ हैं। ईश्वर के अवतारों में भी अधिकाँश ने अपना गृहस्थ बनाया है। ब्रह्मा की पत्नी, सावित्री, विष्णु की लक्ष्मी, शंकर ही पार्वती, इन्द्रा की शची, वृहस्पति की अरुन्धती प्रसिद्ध है। भगवान राम और कृष्ण जिनका नाम लेकर हम भव सागर से पार होते हैं। गृहस्थ ही तो थे। दाम्पत्ति जीवन की आवश्यकता एवं उपयोगिता को स्वीकार करते हुये उन्होंने मर्यादा पालन के लिए एक सद्गृहस्थ के रूप में ही अपना चरित्र प्रस्तुत किया है। जीवन की सुविधा तो दाम्पत्ति जीवन में बढ़ती है साथ ही कितने ही जीवन लक्ष्यों की पूर्ति में भी भारी सहायता मिलती है।
जो सुविधा नारी को नर का सान्निध्य स्वीकार करने में है वही नर के लिये नारी का आश्रय लेने में है। तत्वतः वे दोनों एक दूसरे की अपूर्णताओं को अपनी-अपनी विशेषताओं के द्वारा पूर्ण करते हैं। इनमें से कोई न बड़ा है न छोटा। न किसी के अधिकार कम हैं न अधिक। न किसी का गौरव न्यून है न अधिक। हाथ, पैर, कान, आँख, में से किसे ऊँच कहा जाय किसे नीच? किसे बड़ा माना जाय किसे छोटा? गाड़ी के दो पहियों में से किसे महत्वहीन? वस्तुतः दोनों ही महत्वपूर्ण हैं, इनमें से किसी को भी तुच्छ नहीं कहा जा सकता। यदि श्रेष्ठता कनिष्ठता ढूँढ़ी भी जाय तो नारी का पलड़ा ही भारी पड़ता है। बालक को जन्म देने से माता का अनुदान ही अधिक रहता है इसलिए पिता से माता को श्रेष्ठ माना गया है। पति-पत्नी में भी नारी प्रधान है। भगवान के नाम युग्मों में पत्नी का नाम पहले है पति का पीछे। लक्ष्मी, नारायण, उमाशंकर, सीताराम राधेश्याम, जैसे नामों में इसी तथ्य का प्रतिपादन होता है।
पतिव्रत धर्म पालन करती हुई नारी जिस प्रकार अपने जीवन को सार्थक और संबंधित वातावरण को स्वर्गीय बनाती है ठीक वही बात पत्नीव्रत धर्म पालन करते हुए पुरुष भी करता है। इसलिए शास्त्रकारों ने पतिव्रत धर्म और पत्नी व्रत धर्म को एक ही न्याय तुला में तोला है और नर-नारी को समान निष्ठा के साथ अपने-अपने इन धर्म कर्तव्यों का पालन करने का निर्देश दिया है। पत्नी को अपने शरीर का आधा अंग मान कर उसे आत्मसात करने में, उसकी प्रगति, प्रसन्नता एवं सुविधा के लिये अधिकाधिक त्याग बलिदान करने में पति की सदाशयता उसी प्रकार परखी जाती है जैसे पत्नी की आत्मसमर्पण करते हुए पतिव्रत पालन करने में। वह एकाँगी हो तो फलप्रद न होगा, एक पक्ष चाहे तो कर्तव्य भावना में उसे किसी प्रकार निबाहता रह सकता है पर उसका विकास संभव न होगा, विकास तो दूसरे पक्ष के आवश्यक सहयोग पर ही निर्भर हैं। ताली दोनों हाथ से बजती है। राम का पत्नीव्रत सीता को पतिव्रता बनाये रहा पर मन्दोदरी ने रावण को मरते ही विभीषण से पुनर्विवाह कर लिया। यह तथ्य बताते हैं कि सुविकसित सजीव पतिव्रत तभी सम्भव है जब पति भी पत्नीव्रत के प्रति वैसा ही निष्ठावान हो, जैसी कि सती साध्वी नारियाँ अपने धर्म कर्तव्य के प्रति गहन आस्था धारण किये रहती हैं।
पिछले दिनों परिस्थितियों से अनुचित लाभ उठाने की दुष्प्रवृत्ति ने मानव मन में घुस बैठने का जोरों से प्रयत्न किया है, फलस्वरूप जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भयानक प्रवृत्तियों का बोलबाला हो चला है। शिशुओं का पालन और गृह व्यवस्थापिका का महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व संभालने के कारण नारी का कार्यक्षेत्र घर रहा है। घर में रहते हुए बौद्धिक विकास चातुर्य एवं अनुभव सम्पादन करने के अवसर कम मिलते हैं। फलतः नारी बौद्धिक दृष्टि से कुछ पिछड़ी रह जाती है। भाग-दौड़ एवं कठिन श्रम जैसा कि नर को करना पड़ता है वैसा नारी को नहीं करना पड़ता फिर प्रसव एवं शिशुपालन का प्रत्यक्ष दबाव उस पर पड़ता है जिससे स्वास्थ्य भी कुछ न कुछ पिछड़ा ही रहता है। उपार्जन के माध्यम घर से बाहर होते हैं। पुरुष की स्थिति उसे एक कार्य के लिए समर्थ बनाती है इसलिए वह ‘कमाऊ’ कहलाता है और नारी उससे भी अधिक श्रम करती रहने पर भी ‘बिना कमाऊ’ रहती है। पुरुष कमाकर लाने पर गर्व करता है और इसके बदले में अपना वर्चस्व अधिकार प्रदर्शित करता है। परिस्थितियों ने बुद्धि, स्वास्थ्य और उपार्जन की दृष्टि से नारी को नर से पिछड़ा रहने दिया है पर उसका अर्थ यह कदापि नहीं कि फलतः यह क्षमताएँ उनमें नहीं हैं या कम हैं। जिन देशों में उन्हें समुचित अवसर मिलता है वे पुरुषों की तुलना में अपनी उपयोगिता कुछ बढ़-चढ़ कर ही सिद्ध करती हैं।
शिक्षा स्वास्थ्य और उपार्जन में कार्यक्षेत्र में समाज ने नारी को पीछे छोड़ा और नर को आगे बढ़ाया। इससे पुरुष को अधिक विनम्र, अधिक कृतज्ञ और अधिक उदार होना चाहिए था। नारी ने गृह-क्षेत्र के कठिन उत्तर-दायित्व को स्वीकार कर पुरुष को अधिक समर्थ बनने का अवसर दिया तो इसमें उदारता उसी की तो मानी जायगी। यदि नारी यह स्वीकार न करती, अपने स्वतन्त्र विकास पर अड़ जाती तो नर को चूल्हा, चौका और गृह व्यवस्था स्वयं ही सँभालनी पड़ती। कितने ही देशों में पुरुषों को शिशु-पालन, भोजन छादन तथा दूसरे गृह कार्य करने पड़ते हैं और नारी उपार्जन तथा अन्य सामाजिक कार्यों को संभालती है। वहाँ उनकी प्रतिभा एवं स्थिति नर से कहीं अच्छी होती है। ऐसे देशों की स्त्रियों के लिए यही उचित है कि वे पुरुषों को धन्यवाद दें कि गृह कार्यक्रम का अपेक्षाकृत कहीं अधिक कठिन कार्य उनने अपने कन्धे पर लेकर उन्हें बाहर का सरल और मनोरंजक कार्य करने की छूट दे दी। इसी प्रकार जिन देशों में वह सुविधा पुरुषों को प्राप्त है वहाँ उनका धर्म है कि नारी की उदारता से प्राप्त हुए इस अवसर का आभार मानें और इसका प्रत्युपकार चुकाने के लिए उचित से भी अधिक सौहार्द सज्जनता एवं उदारता का परिचय दें।
खेद की बात यह है कि नारी की उदारता से प्राप्त सुविधा का प्रत्युपकार चुकाने के स्थान पर उसे हेय और हीन माना जाने लगा और अपनी विकसित सामर्थ्य के अहंकार में नारी को पददलित प्रतिबंधित एवं उत्पीड़ित किया गया। ऐसे नियम उपनियम बनाये गये जिससे उसके मानवीय अधिकार भी छिन गये। पर्दा प्रथा भले ही यवन शासन काल में हिन्दु ललनाओं के सतीत्व की रक्षा के लिए सदुद्देश्य से प्रचलित की गई हो, पीछे तो उसने एक कानून एवं परम्परा का रूप धारण कर लिया। पुरुष की अपेक्षा हेय एवं हीन, असभ्य एवं अविश्वस्त होने की क्रूर मानवता पर्दा प्रथा के पीछे-पीछे छिप कर नियति पर व्यंग करती रहती है। मनुष्य को मनुष्य के आगे मुँह ढक कर रहना पड़े। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के आगे खुले शब्दों में बोल न सके यह प्रतिबंध मानवीय सभ्यता का इतना बड़ा तिरस्कार है कि हमें अपनी इस अनैतिकता को धर्म मान्यता घोषित करते हुए शर्म से डूब कर ही मर जाना चाहिए।
भारतीय नारी का वर्तमान पिछड़ापन पुरुष वर्ग की अमानुषिक क्रूरता का प्रतिफल है। इस पिछड़ेपन को उसने ईश्वर प्रदत्त वरदान माना और प्राप्त सुविधा कर बुरे से बुरा दुरुपयोग करने का प्रयत्न किया। इसी दुरुपयोग का एक बड़ा प्रमाण यह है कि पतिव्रत धर्म नारी के लिए तो आवश्यक माना जाता है पर पुरुष उस प्रतिबंध से बचा रहना चाहता है और स्वयं इस सम्बन्ध में अनैतिकता एवं स्वच्छन्दता का आचरण करना चाहता है। कामी, विषयी, लम्पटी, दुराचारी और अनेकों अश्लील कुकर्मों में लगे हुए पुरुष भी अपनी पत्नी को सीता, सावित्री से कम नहीं देखना चाहते।
बंधन, उत्पीड़न, त्रास एवं दमन के बल पर नारी को मनुष्यों की सद्भावनाएं एक दूसरे को अपनी ओर आकर्षित करती हैं प्रेम से प्रेम और द्वेष से द्वेष की वृद्धि होती है। बलवान का उत्तर-दायित्त्व दुर्बल से अधिक है। आज पुरुष समर्थ है तो उसका कर्तव्य है कि अपने आचरण और व्यवहार से ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करे जिनके रहते हुए पत्नी पतिव्रत के अतिरिक्त और कोई बात सोच ही न सके स्त्रियाँ स्वभावतः देवी होती हैं। उनके नाम के आगे देवी शब्द लगाने की प्रथा परम्परा वास्तविकता के आधार पर ही प्रचलित हुई है। भगवती देवी, शकुन्तला देवी, राधा देवी, सावित्री देवी, विमला देवी आदि नामों में इस सच्चाई का ही उद्घोष है कि नारी में देवी तत्त्व अत्यधिक मात्रा में विद्यमान है। यह मात्रा अक्षुण्ण बनी रहे, सुविकसित हो और परिपुष्टि होती चले इसके लिए यह आवश्यक है कि पुरुष अपना आन्तरिक स्वरूप देवताओं जैसा बनाये रहे। भारतीय नारी स्वभावतः पतिव्रता होती हैं। कुलटा तो उसे पुरुषों की दुष्टता बहका कर ही बना देती है। पति परायणता की भावनाएं विद्रोह न करने लगे, इतना ध्यान रखना पति का काम है। उसे अपने को आदर्श पति के रूप रखना चाहिए और निष्ठापूर्वक पतिव्रत धर्म का पालन करना चाहिए, जैसे कोई सती-साध्वी नारी पतिव्रत धर्म का पालन करती हैं। उभय-पक्षीय कर्तव्य पालन से ही वह परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं, जिसमें मनुष्य का गृहस्थ जीवन सार्थक हो और परिवार में स्वर्गीय वातावरण का आनन्द लाभ किया जा सके।