जिन्दगी कैसे जियें?

March 1964

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यह संसार एक रस नहीं है। यहाँ शीत भी है उष्णता भी दिन है तो रात भी जन्म का सम्बन्ध मृत्यु के साथ सदैव से चला आ रहा है। एक-सी परिस्थिति कहीं भी दिखाई नहीं देती। प्रत्येक स्थिति का विपरीत भाव अवश्य मिलेगा। सुख और दुःख भी ऐसे ही उभय संयोग हैं। यह सर्वत्र न सुख है न दुःख। दोनों समान रूप से विद्यमान है। देखने में एक स्थिति भली दूसरी हेय लगती है। सुख सभी चाहते ओर दुःख को सर्वथा त्याज्य समझते हैं, किन्तु यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो दोनों ही उपयोगी और आवश्यक, प्रतीत होते हैं। धनात्मक और ऋणात्मक विद्युत धाराओं के संयोग से जैसे प्रकाश का उद्भव होता है, वैसे ही जीवन को गतिवान बनावे रखने के लिये सुख भी आवश्यक है और दुःख भी। एक-सी परिस्थिति का परिणाम अगति, स्थिरत्व और जड़ता है। एक के बिना दूसरे का महत्व ही न रहेगा। विरोधाभासों को एक दूसरे का प्रतिपक्षी नहीं पूरक मानना चाहिये।

कोई व्यक्ति चाहे कि वह कठिनाइयों, दुःख, मुसीबतों से तो बचा रहे और जिस कार्य में हाथ डाले उसमें सफलता ही मिले तो इस आकाँक्षा को बुद्धिसंगत नहीं कहा जायेगा। विपत्तियों से बचकर, लुक-छिपकर, पीछा छुड़ाकर कोई आँशिक सफलता भले ही प्राप्त कर ले किन्तु लक्ष्य तक पहुँचने, पूर्णता प्राप्त करने के लिये इनसे संघर्ष करना ही पड़ेगा। दुःख मनुष्य के हित के लिये परमात्मा के वरदान स्वरूप आते हैं। इनसे घबड़ाना, दुःख के समय दुःखी चिन्तित एवं परेशान होना मौत के समान है। दुःखों से निराश हो जाने पर मानवीय विकास का पथ रुक जाता है। जीवन कठिनाइयों से भरी एक चुनौती है जिसका धैर्य साहस और निष्ठापूर्वक सामना करना ही पुरुषार्थ है। आत्म विकास की शुरुआत यहीं से होती है।

कहते हैं “मुसीबत कभी अकेले नहीं आती। उसके बाल बच्चे भी साथ होते हैं।” अभी एक कठिनाई से छूटे नहीं कि दूसरी आ धमकी। स्वास्थ्य ठीक हुआ नहीं कि व्यापार से घाटा आ गया। कर्ज पूरा किये दो दिन ही हुए थे कि किसी परिजन की मृत्यु हो गई। पानी की लहरों के समान एक पर एक मुसीबतें दौड़ी चली आती हैं। ऐसे समय पर लोगों के हाथ पाँव ठण्डे पड़ जाते हैं। बुद्धि काम नहीं देती। पाँव लड़खड़ा जाते हैं। आशंका रहती है कि फिर कोई नई मुसीबत न खड़ी हो जाय, इस दुश्चिन्ता के मारे अधमरे हो जाते हैं। किन्तु जो अटल प्रारब्ध है उससे भय क्यों? आने वाली कठिनाई के प्रति कायरता कैसी?

जीवन का संग्राम है। इसे कायरों को भी लड़ना पड़ता है, शूर-वीरों को भी। किसी के हाथ संगीन पकड़ते काँपते हैं तो कोई जान की बाजी लगा कर दुश्मन के साथ चार हाथ दिखाता है। कठिनाइयाँ, दुःख, मुसीबतें ऐसे ही शत्रु हैं जिनसे हमें लड़ना ही पड़ेगा। इनसे पीछा छुड़ाना असम्भव है। फिर इन्हें साहस के साथ क्यों न ललकारे? क्यों न वीर योद्धाओं के समान इनसे जूझें? जीवन संग्राम में वही विजय पाता है जो कठिनाइयों से रक्त की अन्तिम बूँद रहने तक, जीवन की अन्तिम साँस तक लड़ता है। जीवन का श्रेय भी इसी में है कि मुसीबतों में घबड़ाये नहीं, उनके साथ संघर्ष करें।

सृष्टि के आदि से मरे हुए व्यक्तियों की सूची बनाना यदि सम्भव रहा होता तो संसार का सारा कागज इस कार्य के लिये खल जाता। पर जिन्हें आज भी दुनिया जानती है इनका नाम लिखें तो एक पुस्तक भी पूरी न होगी। यहाँ नाम उन्हीं का अमर रहता है जो महान संकल्प लेकर आते हैं, जो औरों के हित एवं कल्याण के लिये अपना जीवन होम देते हैं, वही युगों तक जीवित रहते हैं वे ही आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा व प्रकाश देते हैं। जो केवल रोजी-रोटी, पुत्र-कलत्र तक ही सीमित रहा उसकी साँस भले ही चलते रहे, मृतक ही समझा जायेगा। दूसरों के लिये अपनी हड्डियाँ दान कर देने वाले परमार्थी पुरुष ही संसार में जीते हैं।

मनुष्य की अनेकों इच्छायें होती हैं। स्वस्थ शरीर की, प्रचुर धन की, सुन्दर सुशील स्त्री आदि की। वह अनेकों कामनायें करता है, पर परिस्थितियाँ प्रतिरोध करती हैं, जिससे उसके सुख, तृप्ति में बाधा पड़ती है। इससे वह दुःख का अनुभव करने लग जाता है। यहाँ तक कि उसे जीवन एक दुःख-सा लगने लगता है। जन्म होते ही मृत्यु की पग-पग पर आशंका, धन बढ़ते ही चोरों का भय, पद बढ़ते ही औरों की ईर्ष्या, विद्वेष और मनोमालिन्यता, यही तो होता है। दुख के पीछे फिर सुख रहा ही कहाँ? तब तो सचमुच जीवन दुःखों का घर ही लगने लगता है। फिर क्या भयभीत होकर आज जिस परिस्थिति में पड़े हैं उसी में बने रहें? इससे तो मानव के विकास का मार्ग ही रुक जायेगा। लघु से महान बनने की प्रक्रिया ही मारी जायेगी। कर्मवीर पुरुष दुःखों से घबड़ाते नहीं उन पर विजय पाने का सदैव प्रयास करते रहते हैं।

जीवन का खेल है। ठीक बच्चों जैसा ही। बालक क्रीड़ा और विनोद के लिए भावी जीवन की तैयारी के लिए खेल खेलते हैं। हमें भी अपनी आत्मा का विकास करते हुए पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये जीवन का खेल खेलना पड़ता है। यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। जन्म, पालन-पोषण, विकास, सुख-सुविधाओं की प्राप्ति के लिये आपा-धापी, कठिन परिस्थितियाँ, संघर्ष-वृद्धावस्था मृत्यु आदि का क्रम सदैव ऐसे ही चलता रहेगा। कितने ही युग बदल गये किंतु यह खेल वैसे ही चल रहा है। परिस्थितियाँ भिन्न हो सकती हैं, पात्र भिन्न हो सकते हैं। किन्तु सांसारिक खेल का तारतम्य सदैव ऐसे ही ही चलता रहेगा। फिर सुख प्राप्ति के क्षणों में मदान्ध हो उठना, दुःख के क्षणों में बेतरह छाती पीटना, इसे कौन बुद्धिमत्ता का कार्य मानेगा। जीवन वही जीता है जा इसे खेल की तरह खेलता है। वही चतुर है वही सुजान है।

जीवन एक स्वप्न है। स्वप्न में मनुष्य कभी अपने को राजा के रूप में देखता है, कभी सुन्दर पक्षी आदि के रूप में। उसकी मानसिक चेष्टायें भी उस समय की अवस्था के अनुरूप होती हैं। सुख, दुःख, मिलन, विछोह, हँसने प्रतीत होते हैं। पर जैसे ही नींद टूटी कि पिछले स्वप्न की गतिविधियों की याददाश्त मात्र रह जाती है। हमारा जीवन भी अगले महान जागरण का स्वप्न जैसा ही है। पर इसकी सार्थकता तब है जब आज इसे सच माने और आत्मा के जागरण, परमात्मा की प्राप्ति के लिये आज के साधनों को उपयोग में लायें। स्वप्न का जैसा आभास तो केवल इसलिये है कि हम जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के महत्व को समझें। सत्य की शोध में अपना जीवन लगायें, तभी यह समझा जायगा कि यह स्वप्न देखना भी सार्थक हुआ।

जन्म के दिन से एक-एक दिन मनुष्य मृत्यु की ओर बढ़ता है। जीवन भर वह नाना जंजालों में फँसा पड़ा रहता है। माया, मोह, कामनाओं और वासनाओं से घिरा हुआ इन्सान वह सोच भी नहीं पाता कि उसका लक्ष्य क्या है। आये दिन अनेकों को मृत्यु के घाट उतरते देखता है किन्तु कभी विचार नहीं करता कि यह घटना आखिरकार उसके साथ भी घटित होने वाली है। महाभारत के रचयिता में इस पर महान आश्चर्य प्रकट करते हुए लिखा है।

अहन्यहनि भूतानिक गच्छन्ति यम मन्दिरम।

शेषाः स्थिरत्व मिच्छनित किमार्श्चय मतः परम॥

अर्थात्-”प्राणी निरन्तर काल के गाल में चले जा रहे हैं। यह देखते हुए भी शेष लोग सदा रहने की कामना कर रहे हैं, इससे बढ़कर आश्चर्य की बात क्या होगी?” मौत के मुँह से कोई बच नहीं सकता। एक एक करके सभी को काल के गाल में समा जाना है। यह जानते हुए भी कभी यह विचार तक जागृत नहीं होता कि हम क्या हैं? कहाँ से आये हैं और हमारा लक्ष्य क्या है? मौत की छाया हर किसी के साथ छाया की भाँति घूमती है पर लोग कभी उस पर विचार तक नहीं करते, सोचते तक नहीं।

जीवन एक महान यात्रा है। रास्ते में चलते राहगीर को कभी साफ सड़क तो कभी कंटीले जंगल पार करने होते हैं। कहीं पहाड़ हैं पर रास्ते की थकान से वह घबड़ा कर बैठ नहीं जाता। जीवन भी ऐसी ही यात्रा है। सच्चे राहगीर की तरह जीवन के उतार चढ़ावों के बीच भी अपने लक्ष्य के प्रति लगन और तत्परता बनाये रखें तो देर-सबेर मंजिल तक पहुँच जाना निश्चित समझिये। सुखों-दुःखों को पथ की धूप-छाँव मानें। इनमें आसक्त न हो। कोई व्यक्ति यदि सुखों की छाया में ही विश्राम करते रहना चाहे तो उसे बुद्धिमान न कहा जायेगा। ऐसी स्थिति में उसका जीवन लक्ष्य भी पूरा हो पाना सम्भव न होगा।

जीवात्मा का ध्येय है अनन्त आनन्द की प्राप्ति। उसकी माँग है-”मृत्योर्माऽमृतं गमय।” मृत्यु से अमरत्व की ओर जाने की उसकी चिर अभिलाषा है। नदियाँ अपने आप में सन्तुष्ट न होने से समुद्र की ओर दौड़ी चली जाती हैं। पहाड़ आकाश की विशाल सीमा लाँघने को उतावले खड़े हैं। हवा को एक स्थान पर चैन नहीं। सूर्य, चन्द्रमा, तारे कुछ और अधिक पाने के लिये निरन्तर गतिशील रहते हैं। यह प्रतिक्रिया संसार के प्रत्येक परमाणु में चल रही है-किसी को भी अपने आप में सन्तोष नहीं मिलता। जड़ व चेतन सभी पूर्णता के लिये गतिवान हैं। स्थिरता में, जड़ता में, अपने आप ही में किसी को आनन्द की उपलब्धि नहीं हो रही इसलिये सब के सब अपने स्वत्व को किसी सत्ता में घुला देने के लिये सतत् क्रियाशील दिखाई देते हैं।

ऐसी ही प्रक्रिया जीवात्मा की है। वह अपने ही दायरे से सन्तुष्ट नहीं। व्यष्टि में उसे अनन्त की प्राप्ति नहीं होती तो वह समष्टि की आत्मा का पावन स्पर्श करने के लिये बेचैन है। जीवात्मा जब तक अपने उद्गम विश्वात्मा के दर्शन नहीं पा लेता, जब तक अन्तर्यामी सत्ता के साथ एक प्राण नहीं हो लेता तब तक उसे चैन नहीं। अब इस प्रतिज्ञा की पूर्ति में लग जाना ही उचित है। जीवन और मृत्यु के प्रश्न को देर तक ठुकराया जाना अच्छा नहीं। आत्म चिन्तन की प्रवृत्ति बनाने से अपनी प्रतिज्ञा के प्रति जागरुक बने रहना सम्भव है। मृत्यु का सदैव ध्यान बनाये रखने से पथ से गिरने के भय से सहज ही बचा जा सकता है।

जीवन एक सौंदर्य है। यहाँ वह सारी मंगलमय परिस्थितियाँ विद्यमान हैं जिनके सहारे मनुष्य अपनी विकास यात्रा आसानी से पूरा कर सकता है। परमात्मा से प्रेम एवं आत्मीयता स्थापित करने का अच्छा तरीका यह है कि हम उसका अभ्यास परिजनों से प्रारम्भ करें। संसार में सबके साथ सत्य का व्यवहार करें, न्याय रखें और सहिष्णुता बरतें। स्वार्थ की अहं वृत्ति का परित्याग कर परमार्थ के विशाल क्षेत्र में पदार्पण करें। इससे दिनों-दिन मनुष्य विराट की ओर अग्रसर होता चलेगा। साँसारिक सौंदर्य की उपेक्षा करके कोई व्यक्ति आगे नहीं बढ़ सकता। कर्त्तव्य को तिलाँजलि देकर कोई लक्ष्य नहीं पा सकता। विश्वात्मा का साक्षात्कार छलाँग लगाकर पाना सम्भव नहीं, इसके लिये तो जीवन-सौंदर्य की उपासना ही करनी पड़ेगी। यही रास्ता सर्वसुलभ है और सरल भी।

इस संसार में स्वार्थ की अहंकारपूर्ण प्रवंचना से यदि बचा जा सके तो सब ओर अपना ही आत्मा बिखरा दिखाई देगा। स्वामी रामतीर्थ कहा करते थे-”राम बादशाह के साम्राज्य में किस बात की कमी है? सारा संसार ही अपना है फिर अभाव कैसा।” यदि मनुष्य अपने समान औरों से भी प्रेम कर सके तो यहाँ सब ओर मंगलमय परिस्थितियाँ बिखरी दिखाई देंगी। जो स्वयं आनन्द-स्वरूप है उसकी रचना दुःखद क्यों होगी? दुःख का कारण तो मनुष्य का स्वार्थ ही है। पर जिन्हें सुख की कामना है उन्हें तो प्रेम की ही उपासना करनी चाहिये। जीवन का आनन्द भी इसी में है कि हम अपने आपको औरों के लिये घुला दें। दूसरों के कुछ काम आयें।

मनुष्य का जीवन एक शुभ अवसर है जो उसे हजारों लाखों योनियों में भ्रमण करने के बाद मिला है। इसे यों ही गँवा देना बुद्धिमत्ता की बात न होगी। जीवन भर लौकिक गोरखधन्धों में ही फँसे रहें तो इस अवसर का सदुपयोग कहाँ रहा। केवल धन और उसकी लोलुपता, स्वार्थ और उसकी पूर्ति, भोग और उसकी तृप्ति में फँसे रहना मनुष्य के लिये उचित नहीं। ऐसी जिन्दगी तो पशु-पक्षी भी बिता लेते हैं, फिर यदि मनुष्य भी इन्हीं हीन गतिविधियों में व्यस्त रहे तो उनमें और पशु-पक्षियों में अंतर ही कहाँ रहा।

आहार की आवश्यकता पशुओं को जैसी ही होती है जैसी मनुष्यों को। निद्रा, भय और काम-वासना भी दोनों में पाई जाती है, पर मनुष्य में धर्म-भावना होती है इसी से वह श्रेष्ठ है। धर्म-विहीन व्यक्ति और पशु समान ही कहे जायेंगे। आज जो जीवन हमें मिला है उसे आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर प्रगतिशील बनाना ही धर्म है। इसी में मानव भाव का कल्याण है।


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