पतिव्रत धर्म की गरिमा

March 1964

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शास्त्रों में पतिव्रत धर्म की महिमा को मुक्त कण्ठ से वर्णन किया गया है और बताया गया है कि पतिपरायणा नारी वह सद्गति सहज में प्राप्त कर लेती है जो योगी-यती एवं ज्ञानी-ध्यानी बड़ी कठिनाइयाँ सहते हुए प्राप्त करते हैं। पतिव्रता नारियों के गौरवमय चरित्रों से भारतीय इतिहास का पन्ना-पन्ना भरा पड़ा है।

अन्धे पति से अपनी स्थिति अच्छी रहने देने की अनिच्छुक धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी ने आँखों में आजीवन पट्टी बाँधे रहने का व्रत लिया और उसे आजीवन निभाया। शैव्या ने हरिश्चन्द्र के साथ, दमयन्ती ने नल के साथ, सीता ने राम के साथ कठिन समय आने पर अपने त्याग और प्रेम का अद्भुत परिचय दिया। सत्यवती ने सत्यवान के साथ, सुकन्या ने वृद्ध च्यवन के साथ कितना उत्कृष्ट सम्बन्ध निवाहा? अरुन्धती, अनुसूया, बेहुला, शकुन्तला, भारती, आदि कितनी ही नारियों के ऐसे दिव्य चरित्र मिलते हैं जिससे यह प्रतीत होता है कि पतिपरायणता को इस देश का नारी समाज अत्यन्त उच्च भावनाओं के साथ निबाहता रहा है।

पतियों के साथ परलोक में भी रहने की भावना से प्रेरित होकर उनके मृत शरीरों के साथ जलकर कितनी ही नारियाँ इस बात का परिचय देती रही हैं कि उनने आदर्श के लिए चिता में जीवित जलने का मर्मान्तक कष्ट सहकर भी भावनाओं को ऊँचा उठाये रहना उचित समझा। पतियों की शान पर रत्ती भर भी आँच न आने देने और पतिव्रत धर्म की रक्षा के लिए चित्तौड़ की रानियों ने जो अपूर्व बलिदान का परिचय दिया उसकी महिमा किन शब्दों में कही जाय? अभी भी स्थान-स्थान पर सतियों के मन्दिर और स्मारक जहाँ-तहाँ देखने को मिलते है, इससे प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में भारतीय नारी ने अपने आदर्शवाद की कितने कष्ट सहकर भी रक्षा की है।

पतिव्रत धर्म को एक योग साधन माना गया है। उसका अवलम्बन करने से नारी को आध्यात्मिक उत्कर्ष श्रेष्ठ सद्गति का प्राप्त होना स्वाभाविक है। आत्मसमर्पण एक उच्च स्तरीय साधना है। भगवान को भक्त जब अपना समर्पण करता है तो वह अपने ‘अहम्’ को समाप्त कर देता है और स्वतन्त्र इच्छाओं का परित्याग कर भगवान की इच्छा को अपनी इच्छा बना लेता है। इस प्रकार द्वैत को मिटाने और अद्वैत को प्राप्त करने का साधन बन जाता है। ‘तृष्णा, अहंता, कामना, लोभ, मोह, मान और स्वार्थ की समाप्ति आत्म-समर्पण के साथ ही होती है और साधक को वह मनोभूमि प्राप्त होती है जिसमें भक्ति-मार्ग की सारी कठिनाइयों से सहज ही छुटकारा मिल जाता है। गीता में आत्म-समर्पण योग को साधना मार्ग का मुकुट-मणि कहा है। योगी अरविंद तथा अन्य अनेक तत्व-दर्शियों ने इसी माध्यम से आत्मोत्कर्ष का प्रयास किया और उसे उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही उसको पाया भी जैसा कि शास्त्रकारों ने वर्णन किया है।

भगवान की उपासना उनका कोई भी रूप मानकर की जा सकती है। पौधों में तुलसी, वृक्षों में पीपल, नारियों में गंगा, पत्थरों में शालिग्राम भगवान का प्रतीक मानकर पूजे जाते हैं, मन्दिर में देव प्रतिमायें पाषाण एवं धातुओं की होती हैं उनमें श्रद्धा विश्वास का आरोपण कर जब यह आस्था जमा ली जाती है कि यह भगवान है तो उसकी भावना की प्रतिध्वनि उन्हीं मान्य स्वरूपों से टकरा कर लौटती है और वही फल मिल जाता है जो साक्षात् भगवान की भक्ति करने पर उनके प्रत्यक्ष अनुग्रह द्वारा प्राप्त होता है। पतिव्रत धर्म को पालन करने में भी यही प्रयोजन सिद्ध होता है। पति को भगवान मानकर साधना करने में कोई अड़चन नहीं। जब पत्थर, नदी, वृक्ष, पौधों को भगवान माना जा सकता है और उनकी पूजा की जा सकती है तो मनुष्य शरीर धारी आत्मा के प्रति वैसी मान्यता बनाने में क्या कठिनाई हो सकती है? योग साधना के प्रथम चरण में गुरुभक्ति को ईश्वर भक्ति का प्रारम्भ माना जाता है। गुरु को आत्मसमर्पण करके शिष्य ईश्वर परायणता का अभ्यास करता है और जब उसमें निष्ठा जम जाती है तब उसी का विकसित स्वरूप परमात्मा में आत्मा का लय करने देने का निमित्त बन जाता है। तात्पर्य इतना ही है कि मनुष्य को भी भगवान का स्वरूप मानकर उसके माध्यम से आत्मसमर्पण का अभ्यास किया जा सकता है और योग साधन का लक्ष प्राप्त करने में इस सरल माध्यम से आगे बढ़ा जा सकता है।

भारतीय नारियाँ इसी विचार से पतिव्रत धर्म को आत्म-कल्याण की भावना मानकर उसे अपनाती रही है। पति की दुर्बलताओं और त्रुटियों की ओर उनने उपेक्षा ही की है। अच्छी भावनाओं की उत्कृष्टता बनी रहना तभी संभव है जब साधक अपने इष्ट के दोष, दुर्गुण एवं दुर्बलताओं की उपेक्षा करता हुआ अपने कर्तव्य एवं सद्भाव में रत्ती भर भी कमी न आने दे। पतिव्रता यही तो करती है। पति को अपना सर्वस्व मानकर उसकी इच्छानुगामिनी बन कर कोई नारी जब उसे आत्मिक प्रगति का, आत्म-समर्पण साधना का माध्यम समझती हुई एक भावुक भक्त की भूमिका में उतरती है तो उसके लिए आत्म-कल्याण का लक्ष्य प्राप्त कर लेना कुछ भी कठिन नहीं रह जाता।

आत्मिक प्रगति के साथ-साथ पतिव्रत धर्म के पालन में लौकिक प्रगति की असंख्य सम्भावनाएं निहित रहती हैं। संघर्ष तभी होता है जब दोनों के मन में भिन्नता रहती है। एक की राह पूर्व, दूसरे की पश्चिम होती है तभी मन मुटाव का अवसर आता है। यदि पति-पत्नी में से एक दूसरे का इच्छानुवर्ती बन जाय तो फिर संघर्ष का कोई कारण न रहेगा। सुधार की दृष्टि से प्रेमपूर्वक भी प्रयत्न किये जा सकते हैं, कुमार्गगामी को सन्मार्ग पर लाने के लिए प्रेम और त्याग की अपनत्व भरी लड़ाई भी की जा सकती है। इस प्रकार भी हृदय परिवर्तन हो सकता है। सुधार के लिए कटु संघर्ष अनिवार्य नहीं। पति-पत्नी के बीच कोई मतभेद हो तो उसे सुलझाने में बिना संघर्ष किये ही अपनी सद्भावना शक्ति से भी बहुत कुछ प्रयोजन सिद्ध हो सकता है। त्याग से बढ़कर और कोई शक्ति नहीं, प्रेम से बढ़कर और शस्त्र नहीं। इस शक्तिशाली शस्त्र को अपना कर कोई भावना-शील पतिव्रता नारी अपने कुमार्ग-गामी पति को भी सन्मार्ग पर ला सकती है और यदि न भी ला सके तो वह अपना कर्तव्य करती हुई आत्म सन्तोष कर ही सकती है। संघर्ष को तो बचा ही सकती है।

पति सुधरा हुआ हो तब तो कहना ही क्या है पर यदि उसका स्तर घटिया हो, विचार, चरित्र एवं व्यवहार की दृष्टि से वह उपयुक्त स्थिति से नीच हो तब भी उसे निबाहने की भावना रखने वाली नारी पारिवारिक कलह को बचा सकती है और दाम्पत्य जीवन को क्लेश-द्वेष की आग में जलने से तो सुरक्षित रख ही सकती है। पारिवारिक शाँति का भौतिक जीवन में इतना बड़ा स्थान है कि उस पर धन समृद्धि एवं अन्य अनेक सुख सुविधाओं को निछावर किया जा सकता है। संतोषी स्वभाव की सहिष्णु, परिस्थितियों के अनुरूप अपने को ढालने वाली, कर्तव्यपरायण एवं हँसमुख विनम्र स्वभाव की स्त्री को ‘गृहलक्ष्मी’ कहते हैं। जिस घर में ऐसी देवियाँ रहती हैं वहाँ सुख शान्ति को भी विवश होकर रहना पड़ता है।

सत्यवादिता के एक ही सद्गुण को अपना लेने से छोटे-छोटे अनेकों सद्गुण मनुष्य में स्वतः उत्पन्न हो जाते हैं उसी प्रकार पतिव्रत धर्म अपना लेने पर नारी में वे अनेकों विशेषताएँ उत्पन्न हो जाती हैं जिनके कारण वह पति परिवार में साम्राज्ञी बन कर रहे। महाभारत में द्रौपदी-सत्यभामा संवाद प्रसिद्ध है। उस प्रसंग में द्रौपदी ने यही बताया है कि वह काली-कलूटी होते हुए भी अपने पतियों के हृदय पर अपने पतिव्रत एवं श्रेष्ठ स्वभाव के कारण किस प्रकार शासन करती है। उस प्रयोग को कोई भी स्त्री कर सकती है और बुरे में बुरे पारिवारिक वातावरण को अपने सद्गुणों के आधार पर स्वर्गीय सुख-शाँति का केन्द्र बना सकती है। जहाँ पतिव्रत की प्रगाढ़ आस्था होगी, आत्म समर्पण का भाव रहेगा। वहाँ भावनागत कोमलता के कारण पति को सुखी और सन्तुष्ट बनाने की आकाँक्षा की जायेगी और उस आकाँक्षा की पूर्ति के लिए अपने गुण कर्म स्वभाव को उसी ढाँचे में ढालना पड़ेगा जिससे अभीष्ट परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकें। अपने सद्गुणों से ही तो पति तथा उसके परिवार को सन्तुष्ट रखा जाता है। पतिव्रता नारी को अनिवार्यतः अपनी स्वेच्छाचारिता त्याग कर अपनी इच्छाओं एवं स्वभाव को नरम बनाकर अनुकूलता उत्पन्न करके बहुत कुछ बदलना पड़ता है। पतिव्रता में ऐसा परिवर्तन अनायास ही होता भी है।

पर-पुरुष से कुकर्म न करने का नाम ही पतिव्रत नहीं है। यह तो उसका एक छोटा सा अंग-मात्र है। वस्तुतः आत्म-समर्पण की भावना का नाम ही पतिव्रत धर्म है। उसका स्तर ईश्वर भक्ति जैसा होता है। इस आध्यात्मिक साधना को अपनाने वाली नारी अहंताजन्य अगणित पापदोषों से मुक्त होकर द्वैत की मंजिल पार करती हुई अद्वैत की ब्रह्म निर्वाण की जीवन स्थिति प्राप्त करती है और अपने सद्गुणों के कारण जिस घर में रहती है वहाँ स्वर्गीय सुख-शाँति का वातावरण प्रस्तुत कर देती है। पातिव्रत का यह एक ही लाभ भौतिक-दृष्टि से इतना बड़ा है कि उसे अन्य सफलताओं एवं सम्पन्नताओं से कहीं अधिक बढ़-चढ़ कर माना जायगा। दो आत्माएँ एक बनकर जब जीवन यापन करती हैं तो उनका बल साहस एवं अन्तस्तल इतना अधिक विकसित होने लगता है जिसके माध्यम से अनेक कठिनाइयों से लड़ते हुए प्रगति पथ पर बढ़ते चलना और शक्तिमय सार्थक जीवनयापन कर सकना सहज ही संभव हो जाता है। प्रगतिशील लोगों के जीवन में उनकी धर्मपत्नियों का भारी सहयोग रहा है। यदि उन्हें ऐसी नारी न मिली होती जो मनोबल बढ़ाने और जीवन को व्यवस्थित रखने में सहायता कर सके तो सम्भवतः वे गिरी स्थिति में ही गुजर करते और महापुरुष एवं प्रगतिशील बनने के लाभ से वंचित हो रह जाते। पतिव्रता नारी किसी पति के लिए एक दैवी वरदान ही कही जा सकती है।

सुसंतति का मूल आधार दाम्पत्ति प्रेम है। बच्चे को विकसित सुशिक्षित एवं सुसंस्कारी बनाने के लिए जितने भी उपाय हो सकते हैं उन सब से अधिक प्रभावशाली मार्ग यह है कि पति-पत्नी में आन्तरिक प्रेम रहे। रज-वीर्य के मिलने से बच्चे का शरीर बनता है पर उसका अन्तःकरण माता-पिता के परस्पर प्रेम और सद्भाव पर निर्भर रहता है। जिन पति-पत्नी के बीच अगाध प्रेम होगा उसके गर्भोत्पादक परमाणु एक ही विद्युत धारा से प्रभावित होकर अनुकूलता की दिशा में गतिशील रहेंगे। गर्भ में बालक के शरीर की वृद्धि माता के रस व रक्त से होती है पर चेतना एवं भावना-संस्थान माता-पिता के परस्पर प्रेम भाव की विद्युत धाराओं के आधार पर ही विकसित होता है। उन दोनों के बीच यदि द्वेष, घृणा, मनोमालिन्य रहे असन्तोष के भाव रहें तो उसकी प्रतिक्रिया गर्भस्थ बालक के मानसिक विकास पर अत्यन्त घातक होती है। माता जैसी उद्विग्न, असन्तुष्ट रहती है उसी के अनुरूप बालक का मन अनेक विकृतियों एवं मानसिक गलतियों से भर जाता है और बड़ा होने पर वह अवज्ञाकारी, उद्दण्ड, अविवेकी, असंयमी आसुरी प्रकृति का होता है। आज ऐसे ही दुर्गुणी बालकों का बाहुल्य हो रहा है उसका प्रमुख कारण पति-पत्नी के बीच रहने वाला दुर्भाव होता है।

वर्णशंकर बालकों को हेय इसलिए माना गया है कि गुप्त व्यभिचार से उनका जन्म होने के कारण माता-पिता उसके आगमन को अशुभ मानते हैं, छिपाते हैं, पछताते हैं और गर्भस्थ आत्मा को नष्ट करने का प्रयत्न करते हैं। ऐसा न भी करें तो भी उस नवनिर्माण से उन्हें कोई प्रसन्नता नहीं होती। उस स्थिति में माता-पिता के बीच परस्पर दुर्भाव ही बढ़ते रहते हैं। इसका प्रभाव बालक की मनोभूमि पर पड़ता है और वह बड़ा होने पर एक असभ्य नागरिक बनता है। विदेशों में कुमारी माताओं के गर्भ से उत्पन्न जारज सन्तानों से पालन का राज्य की ओर से प्रबन्ध है। हर वर्ष लाखों बच्चे इस प्रकार उत्पन्न होते और पलते हैं। पर देखा यह जाता है कि वे मानसिक दृष्टि से विकसित नहीं होते, ऊँची शिक्षा मिलने पर भी वे घटिया कामों के योग्य ही बन पाते हैं। यही बात उन बालकों के बारे में लागू होती है जो विवाहित माता से तो उत्पन्न होते हैं, वैध भी माने जाते हैं पर माता-पिता के मनोमालिन्य के कारण मानसिक दृष्टि से अविकसित ही रह जाते हैं। इन्हें स्पष्टतः वर्णशंकर नहीं कहा जा सकता पर लगभग वैसी ही मनोभूमि माता-पिता की रहने से बच्चे भी उत्कृष्ट भावना-स्तर से वंचित रह जाते हैं। हमारी पीढ़ियों में नैतिकता, मानवता, चरित्र एवं आदर्शवादिता के तत्व क्रमशः घटते ही चले जा रहे है। इसका एक बहुत बड़ा कारण दाम्पत्ति जीवन में आत्मीयता की प्रगाढ़ता न होना भी है ही।

पतिव्रत धर्म सुसंतति को जन्म देने के लिए नितान्त आवश्यक है। बालकों से ही किसी परिवार का भविष्य उज्ज्वल बनता है। अपने वंश, कुल और परिवार का गौरव बढ़ाने वाले बालक वहीं जन्मेंगे जहाँ माता ने पतिव्रत धर्म को उचित महत्व दिया होगा। यह तत्व जहाँ जितना ही कम होगा वहाँ उसी अनुपात से बालकों से शरीर और मन में अगणित विकृतियाँ भरी रहेगी। जो अभिभावक अपनी संतान में मनोवाँछित स्वास्थ्य सौंदर्य एक सद्गुण देखना चाहते हैं उन्हें उसकी सबसे बड़ी तैयारी यही करनी चाहिए कि पति-पत्नी के बीच अगाढ़ प्रेम और विश्वास बना रहे।


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