स्वर्णयुग लाने का सत्प्रयत्न

March 1964

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इस स्तंभ के अंतर्गत गत मास विवाह अपव्यय के विरुद्ध सुव्यवस्थित आन्दोलन खड़ा करने की जो योजना प्रस्तुत की गई थी, उसका परिवार के प्रायः सभी परिजनों ने हार्दिक स्वागत किया है। इस एक महीने में जो हजारों पत्र आये हैं उनसे प्रतीत होता है कि विवाहों में होने वाले अपव्यय के दुष्परिणामों का कटु अनुभव सभी ने भोगा है और दूसरों को इस कुप्रथा की बलिवेदी पर अपना सर्वस्व बलिदान करते देखा है। इसलिए उन्हें अन्तःकरण से यह इच्छा है कि यह अविवेक जितनी जल्दी समाप्त हो सकता हो उतनी जल्दी समाप्त हो जाय।

वह दिन कितना स्वर्णिम होगा जब माता-पिताओं की कन्याएं किसी भी दृष्टि से भार रूप न होंगी। उन्हें पाकर भी पुत्र जन्म जैसा ही हर्ष मनाया जाया करेगा। विवाह नाम की कोई समस्या ही किसी के सामने न होगी। उपयुक्त जोड़े चुनने में जरा भी कठिनाई न पड़ा करेगी। सुयोग्य वधू को प्राप्त कर ससुराल वाले अपने भाग्य को सराहेंगे और उसके माता-पिता द्वारा दिये हुए इस अनुपम उपहार के बदले में आजीवन कृतज्ञता प्रकट करते रहेंगे।

इस परिस्थिति के उत्पन्न करने में विवाहों का वर्तमान स्वरूप भारी बाधा उत्पन्न करता है। लड़के वाले के यहाँ जब लड़की वाला सम्बन्ध करने पहुँचता हैं तो उसके आगमन को उपकारी का अनुग्रह न मान कर किसी लुटेरे के आने जैसी उपेक्षा के साथ देखा जाता है और सामान्य मानवीय शिष्टाचार में भी कुछ न्यूनता ही रखी जाती है। बात-चीत में ऐसा अहंकार प्रकट किया जाता है मानों वे कितने बड़े आदमी हैं और सम्बन्ध पक्का करने पर न जाने उन्हें लड़की वाले का उपकार करना पड़ेगा। कन्या को स्वीकार करने के बदले में उनकी नाना प्रकार की माँगे होती हैं और अनेकों उचित अनुचित शर्तें लगाते हैं। दहेज की लम्बी-चौड़ी माँगें करते हैं। इतनी बड़ी बरात का इतना बड़ा स्वागत, इतने कपड़े, इतने जेवर, इतना अमुक इतना तमुक। उस लम्बी-चौड़ी फरमाइश को दबे हुए बेटी वाले को स्वीकार करना पड़ता है। कुछ नरमी और कमी का वह बेचारा संशोधन भी करे तो उसकी कौन सुनता है? अपराधी को जो भी सजा जुर्माना अदालत देती हैं वह उसे भोगना पड़ता हैं। कन्या का पिता भी एक तरह का अपराधी होता है। बेटे वाला जो कुछ भी हुक्म सुना दे उसे मानने के अतिरिक्त और कुछ चारा भी तो नहीं रहता।

नये समाज का नया निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि दहेज, विवाहों में अपव्यय सरीखी गलित कुष्ठ जैसी घृणित बीमारियों से समाज के शरीर को मुक्त करने के लिए प्रभावशाली कदम उठाये जायं। इसमें रूढ़िवादिता, जड़ता और अविवेकशीलता से कड़ा संघर्ष करना पड़ेगा। दुष्ट की एक ही प्रकृति होती है कि वह न तो कोई अच्छी बात अपनाना चाहता है और न बुरी बात छोड़ना चाहता है। जो कुछ जैसा कुछ चला आ रहा है उसे वहीं पसंद पड़ता है, नवीन चाहे कितना ही सुन्दर क्यों न हो उसे भयभीत ही करता है। हर सड़े, गले समाज में ऐसे लोगों का बाहुल्य होता है जो किसी अन्धपरम्परा को मरे बच्चे को छाती से चिपकाये फिरने वाली बंदरिया की तरह छोड़ना नहीं चाहते, भले ही उससे समाज का कितना ही अहित हो रहा हो। उनके सामने गुण अवगुण, उचित अनुचित, लाभ हानि, न्याय अन्याय जैसी कोई चीज नहीं होती। परम्परा टूटी कि धर्म रसातल को गया, पुरखों की बात बिगड़ा, बल इतना ही सोचने लायक मस्तिष्क उन्हें मिला होता है सो इससे आगे एक इंच भी बढ़ना उनके बूते की बात नहीं होती। ऐसे जड़तावादी हर सुधार में रोड़े अटकाते हैं। विवाहों में अपव्यय बन्द करने का प्रश्न जब सामने आवेगा तो वे विरोध के अतिरिक्त और कुछ कर ही नहीं सकते। नस-नस में भरी जड़ता उन्हें परम्परा को बनाये रखने के लिए अड़े रहने को कहेगी। मानव समाज की कितनी हानि इससे होती है इसे वे सुन समझ सकेंगे भी नहीं।

इन पुरातन पंथियों से भव्य-समाज की नव्य-रचना का आन्दोलन खड़ा करते हुए संघर्ष करना ही होगा। प्रसन्नता की बात है कि इस संघर्ष सम्भावना को स्वजनों ने समझा है और प्रगतिशील जातीय सभाएं बनाने का खुले मन से स्वागत किया है। जाति में चौधरायत ऐसे ही लोगों के हाथ में होती हैं, पंच ऐसे ही लोग रहते हैं जिन्हें धन या वृद्धावस्था के कारण बड़प्पन तो मिल गया है पर विचारशीलता से शून्य रहते हैं। लाल बुझक्कड़पन पर उनकी सारी गतिविधियाँ निर्भर रहती हैं। ऐसे ही लोग जातीय सभाएं बनाये बैठे रहते हैं और उनके माध्यम से अपने समाज में प्रचलित रूढ़ियों एवं अन्धपरम्पराओं का पोषण करते रहते हैं। इन लोगों से यह आशा करना आकाश कुसुम की तरह व्यर्थ ही है कि वे समाज की स्थिति को सहृदयतापूर्वक समझने का प्रयत्न करेंगे और समय के तकाजे को ध्यान में रखते हुए तदनुकूल परिवर्तनों के लिए कदम उठावेंगे। उनसे तो विरोध एवं लाँछन व्यंग एवं उपहास की ही आशा की जा सकती है।

इसलिए प्रगतिशील जातीय सभाओं के संगठनों की आवश्यकता को पाठकों ने एक अनिवार्य आवश्यकता के रूप से स्वीकार किया है। प्रत्येक जाति में रीति रिवाज भिन्न होते हैं, विवाह शादी भी उसी दायरे में सीमित रहती हैं। ऐसी दशा में जातीय आधार पर ही उनका सुधार सरल हो सकता है। प्रगतिशीलता की सर्वतोमुखी मुहीम को चलाने के लिए जातीय संगठनों के मोर्चे पर भी एक बटालियन भेज देने की आज भारी आवश्यकता है। इस आशंका से सभी पाठकों ने इनकार किया है कि इस प्रकार के प्रगतिशील संगठनों में संकीर्णता एवं फूट की वृद्धि होगी। सच तो यह है कि प्रत्येक प्रगतिशील वर्ग अपनी-अपनी संकीर्णताओं को परित्याग करते हुए एक विशाल मानव परिवार बनाने की भूमिका तैयार करेगा।

प्रसन्नता की बात है कि अखण्ड-ज्योति परिवार के विचारशील लोगों ने वैवाहिक अपव्यय को रोकने के लिए, सक्रिय संगठन बनाने की उपयोगिता समझी है और भारी उत्साह प्रकट करते हुए यह आतुरता प्रदर्शित की है कि ऐसा कदम जल्दी से जल्दी उठाया जाय। प्रगति के लिए संघर्ष के लिए, साहस और त्याग के लिए उत्साह आवश्यक है। जहाँ यह दोनों सुयोग बनते हैं वहाँ कठिन से कठिन मञ्जिल पार होती है। परिवार में जो उत्साह इस सम्बन्ध में दृष्टिगोचर हो रहा है उसे देखते हुए यह सुनिश्चित दीखता है कि अगले दिनों भारतीय समाज में एक महत्वपूर्ण हलचल आरम्भ होगी और उसके प्रवाह में विवाह अपव्यय को बाढ़ के पानी में बहते हुए तिनके की तरह आँख से ओझल हो जाना पड़ेगा।


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