आहार में सात्विकता की आवश्यकता

March 1964

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मानव शरीरधारी के लिये स्वास्थ्य रक्षा की समस्या सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यद्यपि अनेक अनभिज्ञ व्यक्ति धन को ही सब से बड़ी चीज बतलाते हैं और अन्य लोग बढ़िया भोज्य सामग्री, चमक-दमक की पोशाक, सुन्दर महल, गाड़ी, मोटर आदि वाहन को सुख का आधार कहते हैं, पर थोड़ा-सा ही विचार करने पर मालूम हो जाता है कि ये सब चीजें उत्तम स्वास्थ्य होने पर ही उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं। दुनिया में ऐसे सैकड़ों व्यक्ति मिल सकते हैं जिनके पास लाखों या करोड़ों की संख्या में भी धन मौजूद हैं और सब प्रकार की सुख-सामग्री भी जिनको प्राप्त है, पर जो सदा रोगी और दुःखी ही बने रहते हैं। ऐसे ही अनेक व्यक्ति तो यहाँ तक दुःखी होते हैं कि आत्मघात करके दुःखों से छुटकारा पाने की चेष्टा करते हैं।

अब से पचास-साठ वर्ष पहले अमरीका के मि0 राकफैलर संसार के सब से बड़े धनी व्यक्ति समझे जाते थे। उस समय उनकी सम्पत्ति का अनुमान एक अरब रु0 के लगभग किया जाता था। पर धन कमाने में ही सदा संलग्न रहने के फलस्वरूप उनका स्वास्थ्य खराब हो गया था और उनके आमाशय में ऐसी खराबी पैदा हो गई थी कि वे किसी तरह का खाद्य-पदार्थ पचा नहीं सकते थे। करोड़पती से भी बढ़ कर धनवान होने पर भी वे साधारण भोजन के लिये तरसते थे। अन्त में एक डॉक्टर ने उनको मक्खन निकला हुआ दूध, जिसे अनेक स्थानों में तो फैंक दिया जाता है, खाने को बताया और वह उनको किसी प्रकार हजम होने लगा।

इस दृष्टि से सही और स्थायी स्वास्थ्य मनुष्य की सबसे बड़ी सम्पत्ति है जिसके आधार पर यदि मनुष्य चाहे तो अपने जीवन को हर तरह से सार्थक बना सकता है। पर इसमें भी अधिकाँश मनुष्य एक भूल यह करते हैं कि वे इस विषय पर केवल शारीरिक-भौतिक दृष्टि से विचार करते हैं। अगर वे अच्छा आहार प्राप्त करके हृष्ट-पुष्ट बन जाते हैं और बिना किसी विशेष बीमारी के अपना नित्य का काम ठीक तरह से करते रहते हैं तो इस स्थिति को सन्तोषजनक मान लेने है। वे इससे आगे बात पर कभी विचार नहीं करते कि शरीर के साथ ही उनकी मानसिक स्थिति का ऊँचा रहना और आत्मिक शान्ति का प्राप्त करना भी आवश्यक है। वस्तुतः मानसिक और आत्मिक क्षेत्र शरीर की अपेक्षा विशेष महत्त्व के होते हैं। यदि ये दोनों ठीक दशा में न रहें तो शारीरिक स्वास्थ्य का स्थायी रह सकना भी सम्भव न होगा। इसी तथ्य को दृष्टिगोचर रख कर श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है :-

आयुः सत्व वलारोग्य सुख प्रीतिविवर्धनाः।

रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृघा आहारा सात्त्विकप्रियाः॥

अर्थात् “सात्विक आहार ही आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य सुख और प्रीति की वृद्धि करने वाला होता है।” इसके विपरीत राजसिक आहार, चाहे वह अधिक स्वादिष्ट तथा चटपटा जान पड़ता है और उसके द्वारा आरम्भ में ताकत और हिम्मत की अधिकता भी जान पड़ती है, पर अन्त में वह रोग, दुःख और चिन्ता का उत्पन्न करने वाला ही सिद्ध होता है :-

कट्वम्ललवणात्युष्णा तीक्ष्णरुक्षविदाहिनः।

आहारा राजसस्येष्ठा दुःखशोकमय प्रदाः॥

इस भेद का मुख्य कारण यही है कि जहाँ सात्विक भोजन मनुष्य से आध्यात्मिक भावों की वृद्धि होती है, सद्गुणों की ओर मन झुकता है, वहाँ राजसिक और तामसिक आहार से आत्मा पर अन्धकार का पर्दा पड़ने लगता है और सद्विवेक की शक्ति कुण्ठित होकर मन कुमार्ग पर जाने लगता है। ऐसी स्थिति में लोग चाहे आरम्भ में कुछ व्यसनों या शौकों की पूर्ति होने से खुशी भले ही मना लें पर इसका अन्तिम परिणाम पतन के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता।

आहार का सब से पहला नियम यह है कि वह भली प्रकार पच कर शरीर के पोषणार्थ उत्तम रस और रक्त के रूप में परिणित हो सके। यही कारण है कि अत्यन्त प्राचीन ग्रन्थों, उपनिषदों चिकित्सा ग्रन्थों में हर जगह यह आदेश दिया गया है कि आमाशय के आधे भाग को भोजन से भरे, चौथाई को पानी से भरे और शेष चौथाई को वायु के संचारार्थ खाली रहने दे जिससे भोजन का परिपाक भली प्रकार हो सके। पर जैसा हम भली प्रकार जानते हैं कि सब प्रकार की मिठाइयाँ और अधिक घी वाले पदार्थ गरिष्ठ होते हैं और यदि उनको अधिक मात्रा में खाया जाय तो अनपच हो कर रस और रक्त को अशुद्ध बनाते हैं। यही कारण है कि जो पण्डे, पुजारी आमतौर से मिष्ठान्न और पकवान का भोजन पाते रहते हैं, उनमें सात्विकी के बजाय राजसिक और तामसिक प्रवृत्ति ही विशेष देखने में आती है।

आहार के इस आध्यात्मिक पहलू को दृष्टिगोचर रख कर ही योग ग्रन्थों में सुपाच्य खाद्य-पदार्थों का अल्प मात्रा में सेवन करने का आदेश दिया है। जो ऐसा नहीं करते उनके लिये देर तक आसन पर बैठ सकना, प्राणायाम के द्वारा नाड़ी शुद्ध कर सकना और ध्यान में मन लगाये रख सकना कठिन हो जाता है। आरम्भिक यौगिक क्रियाओं का एक उद्देश्य यह भी होता है कि शरीर की पूरी तरह शुद्धि हो जाय और किसी तरह की व्याधि अथवा शारीरिक कष्ट का चिह्न न रहे। क्योंकि जिसके मन की एकाग्रता तथा ध्यान शारीरिक कष्टों के कारण भंग होते रहेंगे वह मन को वशीभूत करके चित्त की वृत्तियों को संयमित करने में कदाचित ही समर्थ हो सकता है। इसलिये योगी को सर्वप्रथम स्वादेन्द्रिय को वश में करके अपने आहार का इस प्रकार नियमन करना पड़ता है कि उसमें साधनों को करने लायक शक्ति तो पूर्ण मात्रा में बनी रहे, पर पेट में किसी प्रकार की गन्दगी, कब्ज, वायु की अधिकता आदि दोष उत्पन्न न हों।

यदि मनुष्य पाशविकता और लम्पटता से ऊपर उठ कर सचमुच आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करने का इच्छुक हो तो उसके लिये अपने आहार में सुधार करना अनिवार्य है। हमारा भोजन न्याययुक्त उपायों से उपार्जित, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार का कष्ट न होकर प्राप्त किया हुआ, सात्विक-गुणयुक्त तो होना ही चाहिये, पर साथ ही यह भी ध्यान रखा जाय कि यथासम्भव स्वाभाविक और प्राकृतिक अवस्था में भी हो। परम्परा और पुराने अभ्यास को देखते हुए आज हम यह तो नहीं कह सकते कि मनुष्य आग पर पकाये भोजन को पूर्णतया त्याग कर केवल फल, मूल और पत्तों का ही उपयोग करने लगे, पर हम यह अवश्य कहेंगे कि पके हुये भोजन के परिमाण में कमी करके उसे साथ में कच्चे फल, शाक, पत्तों का व्यवहार अवश्य करना चाहिये और अपनी शारीरिक और आर्थिक परिस्थिति को देखते हुए प्राकृतिक भोजन का परिमाण क्रमशः बढ़ाते चलना चाहिये।

इसमें कुछ भी संदेह नहीं कि अन्न, दूध, फल, मूल और पत्तों का सादा भोजन आध्यात्मिकता की प्राप्ति में सहायक होता है। जब कि कृत्रिम पदार्थ, मिर्च-मसाले से युक्त उत्तेजक भोजन, घी-तेल-चीनी-मैदा आदि के बने गरिष्ठ पकवान मनुष्य में शारीरिक और मानसिक विकार उत्पन्न करके उसे पतनकारी मार्ग में ढकेलते हैं, तब प्राकृतिक भोजन का उचित परिमाण में व्यवहार करना शरीर और मन को स्वस्थ रखते हुये आत्मोत्थान के मार्ग को भी प्रशस्त करेगा। हमको यह भी स्मरण रखना चाहिये कि आजकल के मनुष्य जो भोजन और विषय की दृष्टि से असंयमशील हो गये हैं उसका एक कारण यह भी कि वे स्वाद और चटोरेपन के वशीभूत होकर कृत्रिम उपायों से स्वादिष्ट, चटपटे बनाये गये खाद्य पदार्थों को आवश्यकता से अधिक खाते रहते हैं। इससे उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य नष्ट हो जाता है और उनकी मनोवृत्तियाँ विकार-युक्त हो कर पाप-मार्ग की ओर प्रवृत्त होने लगती हैं। इसलिये आध्यात्मिकता के अभिलाषी को अन्य सत्कर्मों और सदाचरणों के साथ आहार की शुद्धता, पवित्रता और प्रकृति अनुकूल होने का भी ध्यान रखना आवश्यक है। वे लोग भूल में हैं जो चौके-चूल्हे और छुआछूत के नियमों का पालन करने को ही पवित्रता और धार्मिकता का प्रमाण समझ लेते हैं। वास्तविक महत्त्व अपने परिश्रम की न्याययुक्त कमाई से प्राप्त किया भोजन का है, जिसको हिताहार और मिताहार की दृष्टि से ग्रहण किया जाय। वही मनुष्य की सात्विकता और आध्यात्मिकता की दृष्टि से उच्च बना सकता है।


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