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March 1964

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सत्यमेक व्रतं यस्य दया दीनेषु सर्वदा।

काम क्रोधों वशौ यस्य साधुः कथ्यते बुधः॥

सत्यवती, दीनों पर दया करने वाले काम, क्रोध को वश में रखने वाले को ही विद्वान साधु कहते हैं।

व्यक्तिगत सत्संग में एक खतरा यह रहता है कि उसकी अनुपयुक्त विचारधारा एवं कार्य पद्धति भी अपने को प्रभावित करके दिग्भ्रांत कर सकती है। पर सत्साहित्य के माध्यम में व्यक्तित्व का दबाव न रहने से उस पर अधिक विचार कर सकने और जो अपने उपयुक्त हो उसे ही स्वीकार करने की सुविधा रहती है। अपने आदर्श एवं लक्ष के अनुरूप अनेक ऐसे महापुरुष सत्साहित्य के माध्यम से ढूँढ़े जा सकते हैं जिनने उसी मार्ग पर चलकर सफलता प्राप्त की हो। पर समीपवर्ती क्षेत्र में तो जो भी विकसित व्यक्तिगत मिलेगा, उसकी समीपता सम्भव होगी और यदि उसका चरित्र एवं व्यक्तित्व उत्तम होते हुए भी मार्ग अनुपयुक्त है तो उन अवांछनीय गति विधियों की प्रेरणा ही अपने को मिल सकती है। इस दृष्टि से व्यक्तिगत सत्संग की अपेक्षा भी कई बार तो सत्साहित्य के द्वारा प्राप्त किया गया सत्संग अधिक निर्दोष एवं अधिक उपयुक्त सिद्ध होता है।

कई साधु बाबा त्याग वैराग्य, तितीक्षा, उच्च शिक्षा आदि की दृष्टि से प्रशंसनीय होते हैं। पर उनमें आलस्य, प्रमोद, कटु वचन, नशेबाजी, भाग्यवाद, कर्तव्य त्याग, अन्धविश्वास आदि अनेक दोष भी होते हैं। ऐसे लोग अपने गुणों से लोगों को आकर्षित करके उन्हें अपने दोषों का भी शिकार बना लेते हैं। व्यक्तिगत संपर्क सत्संग में इस तथ्य का बहुत अधिक ध्यान रखा जाए कि प्रत्येक सज्जन में कुछ दोष भी रहते हैं, उसके विचारों में कहीं-न-कहीं भ्रान्ति भी रहती है। इसलिए विवेक को प्रधानता देते हुए जिसके पास जितना उपयोगी हो उससे उतना ही ग्रहण करना चाहिए। हम गोदुग्ध को ही ग्रहण करते है, गो मूत्र को उपेक्षापूर्वक छोड़ देते हैं। इसी प्रकार श्रेष्ठ समझे जाने वाले व्यक्तियों से केवल उतना ही सीखा जाय, जो जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक एवं उपयुक्त हो।

ऐसा सत्साहित्य मानव-जीवन के विकास का सर्व-श्रेष्ठ माध्यम हो सकता है, जो उसे जिन्दगी जीने की कला सिखा सके। गुण कर्म स्वभाव को परिष्कार करते हुए सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनाने की प्रेरणा को संजीवनी बूटी कह सकते हैं। यही अमरता प्रदान करने वाला अमृत है, उसी को कायाकल्प करने वाला पारस कह सकते हैं, और उसी में सच्ची तृप्ति और शाश्वत शान्ति प्राप्त होने के कारण उसे कल्पवृक्ष भी कहा जा सकता है। जिसकी सत्साहित्य में अभिरुचि उत्पन्न हो गई, और जो जीवन-निर्माण के सद्ज्ञान को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करने लगा उसका कल्याण अति निकट है यही समझना चाहिए।

श्रम-शक्ति का सुव्यवस्थापूर्वक जीवनोत्कर्ष के लिए सुनियोजित करना मनुष्य की सबसे बड़ी बुद्धिमता मानी जा सकती है। समय ही ईश्वरप्रदत्त सम्पत्ति है। इसका उपयोग जिस प्रयोजन के लिए भी किया जाय वही सिद्ध होता चला जायगा। आज कल लोग धन को अधिक आवश्यक मानते हैं और उसे कमाने की इच्छा करते हैं। फलस्वरूप आजीविका के कार्यों में उसे लगाये रहते हैं। परिस्थिति, साधन और क्षमता के अनुरूप लाभ भी होता है। जो जितना श्रमशील है वह उतना ही आगे बढ़ेगा। उसे उतनी ही सफलता मिलेगी और जिसने जितनी ढील बरती होगी उसे उतनी ही असफलता का सामना करना पड़ेगा।

लक्ष्य कुछ भी क्यों न हो उसमें प्रगति तभी होती है जब अभीष्ट मात्रा में श्रम एवं समय लगे। पौधे का बढ़ना खाद और पानी पर निर्भर रहता है। इन दोनों वस्तुओं को प्राप्त करके ही कोई पेड़ बड़ा होकर फलने फूलने की स्थिति प्राप्त कर सकता है। उसी प्रकार कोई भी लक्ष्य तब प्राप्त होता है जब उसके लिए मनोयोगपूर्वक श्रम और समय को नियोजित किया जाय और व्यवस्थापूर्वक कार्यक्रम बना कर नियमित रूप से उसमें लगा रहा जाय।

कला कौशल, शिक्षा, भाषण, लेखन, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि कार्यों में कई व्यक्ति असाधारण प्रगति करते देखे जाते हैं। लोग समझते हैं कि उन्हें कोई दैवी वरदान या प्रारब्ध लाभ प्राप्त हुआ है। पर वस्तुतः यह उनके श्रम एवं मनोयोग का ही फल रहा होता है। लौकिक हो चाहे पारलौकिक हर प्रयोजन के लिए परिपूर्ण श्रम और उचित समय लगाने की आवश्यकता रहती है। जो सफलता के इस रहस्य को नहीं समझते वे आलस को छाती से चिपकाये रहने पर भी उन्नति के बड़े-बड़े स्वप्न देखते रहते हैं। उन्हें निराशा के अतिरिक्त और क्या हाथ लग सकता है? समय को व्यर्थ गँवाना और श्रम से जी चुराना, यह दो दुर्गुण जीवन को बर्बाद करने के लिए पर्याप्त है कहते हैं कि शनिश्चर और राहु और दशा सबसे खराब होती है और जब वे आती है, तो बर्बाद कर देती है। इस कथन में कितनी सच्चाई है यह कहना कठिन है। पर यह नितान्त सत्य है कि आलस को शनिश्चर और प्रमाद को-समय की बर्बादी को-राहु माना जाय, तो इनकी छाया पड़ने मात्र से मनुष्य की बर्बादी का पूरा-पूरा सरंजाम बन जाता है।

अवनति ग्रस्त लोगों की हीन स्थिति के अनेक कारण होते हैं पर सबसे बड़ा कारण यह रहता है कि वे अपनी समय शक्ति और श्रम शक्ति का महत्व नहीं समझ पाते। इन दैवी सम्पत्तियों का सदुपयोग करने से सब कुछ प्राप्त कर सकने की सच्चाई जिन्होंने हृदयंगम नहीं की है, वे जड़ की सींचना छोड़कर पत्तों को छिड़कते फिरते हैं और जल्दी बिना परिश्रम के मनोवाँछित सफलता प्राप्त करने के लिए भटकते रहते हैं। देवी देवताओं की मनौती मनाने वाले आशीर्वाद वरदान के लिए योगी यतियों की तलाश में फिरने वाले लोग प्रायः इसी श्रेणी के होते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि पुरुषार्थ में बढ़कर और कोई देवता नहीं सुनियोजित ढंग से मनोयोगपूर्वक श्रम करने से बड़ी और कोई सिद्धि दात्री साधना नहीं।

मनुष्य की भुजाओं में रहने वाला श्रम देव उतना शक्ति शाली और उदार है कि अपने किसी भक्त को कभी निराश नहीं होने देता। समय के सदुपयोग की तत्परता को अलादीन का चिराग या विक्रमादित्य के अदृश्य शक्ति शाली “वीरों” से तुलना की जा सकती है। ऐसे असंख्य उदाहरण हमारे आस-पास बिखरे पड़े होते हैं, जिन्हें ध्यान देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि कोई गुजरी परिस्थितियों का व्यक्ति भी यदि प्रगति को सुव्यवस्थित योजना बनाकर उसके लिए श्रम और समय की आवश्यक मात्रा लगाने लगे, तो उन्नति की संभावनाएं तत्काल दृष्टिगोचर होने लगती हैं। इन दोनों देवताओं की पूजा कभी भी निरर्थक नहीं हो पाती। लौकिक और पारलौकिक सभी प्रगतियों के द्वारा कुँठित करने वाले दो ही असुर मुख्य हैं-एक आलस्य, दूसरा प्रमाद। समय को बर्बाद करने वाला और श्रम से जी चुराने वाला अपना शत्रु आप है। उसे बाहरी शत्रुओं की क्या आवश्यकता? अपनी बर्बादी के लिए यह दो दुर्गुण जिसने पाल रखे हैं उसे शनि और राहु की दशा की प्रतीक्षा न करनी पड़ेगी। उसके ऊपर साढ़ेसाती नहीं अजर-अमर सत्यानाशी शनि देवता सदा ही चढ़े रहेंगे। राहु का दुर्दिन स्थायी रूप से उसके सिर पर मंडराता रहेगा।

संसार के प्रगतिशाली लोग प्रगति की दिशा में कदम पर कदम बढ़ाते चले जा रहे हैं। विज्ञान की शोधों ने विकास की आश्चर्यजनक सुविधायें उत्पन्न की है। चन्द्रमा पर झण्डा गाड़ा गया है और ग्रह-नक्षत्रों की यात्रा का अभियान आरम्भ हो गया है। धन और वैभव की संभावनायें अधिकाधिक बढ़ी हैं। अस्वस्थता और दुर्बलता को जीतने की तैयारियाँ की जा रही हैं। इन महत्वकाँक्षाओं के पीछे मानवीय श्रम एवं मनोबल की प्रेरक शक्ति ही काम कर रही है। इन जीवित एवं प्रत्यक्ष देवताओं की पूजा करके जब संसार के प्रगतिशाली लोग मन माने वरदान प्राप्त कर रहे हैं तब हम मन्त्र सिद्धि के चमत्कारों की लालसा में ही भटकते रहते हैं। सबसे बड़ा मन्त्र है-जीवनक्रम को सुनियोजित करके उसमें समय श्रम एवं पुरुषार्थ को पूरी तरह संलग्न कर देना। इस मन्त्र को व्यावहारिक जीवन में उतारने की साधना जिसने आरम्भ कर दी उसे अष्ट-सिद्धि नव-निद्धि न सही पर जीवन को सुविकसित करने की सफलता बहुत बड़ी मात्रा में अवश्य ही मिलकर रहेगी।

हमें उन तत्वों की ओर ध्यान देना ही चाहिये जो जीवन विकास के मूल आधार हैं। उनका सदुपयोग ही लौकिक, पारलौकिक सफलता का एकमात्र उपाय है। ईश्वर ने हमें शरीर और मन जैसी अनमोल वस्तु दी है। उनका लाभ वही उठा सकता है जो शरीर को सुव्यवस्थित श्रम में निरन्तर लगाये रहता है और एक क्षण का समय भी बर्बाद न होने देने के लिए सतर्क रहता है। मनोयोगपूर्वक दिलचस्पी के साथ जो भी कार्य किया जायगा उसकी चमक निराली ही होगी। बेगार भुगतने की तरह भार रूप में किसी प्रकार पूरा किया हुआ काम और अपने सम्मान का प्रश्न बनाकर पूरी तन्मयता के साथ किया हुआ काम जमीन-आसमान की तरह भिन्न दिखाई पड़ता है। जिस काम में सजीवता होगी वह छोटा ही क्यों न हो करने वाले के व्यक्तित्व एवं गौरव को बढ़ाने में भारी सहायक सिद्ध होगा। सफलता की ऊँची स्थिति प्राप्त करने के लिए प्रत्येक प्रगतिशील को इसी रास्ते अपनी यात्रा करनी पड़ी है। हम भी यदि सफल लोगों की जिन्दगी जीना चाहें तो यही तरीका अपनाना पड़ेगा कि परिश्रमी बनें, घोर परिश्रम में आनन्द अनुभव करें तथा समय का एक क्षण भी बर्बाद न होने दे। अपने कामों में हमारी जितनी ही अधिक दिलचस्पी होगी वे उतने ही अधिक सुन्दर बन पड़ेंगे और उन कला कृतियों के तिनकों द्वारा सफलता का वह घोंसला बुना जा सकेगा जिसमें बैठकर किसी चतुर पक्षी की तरह हम भी सन्तोष का जीवनयापन कर सकें।

उज्ज्वल भविष्य के संजोये हुए स्वप्नों की सार्थकता निरर्थकता इस बात पर निर्भर है कि हम कितने धैर्यपूर्वक, कितने अध्यवसाय के साथ निर्धारित लक्ष्य में संलग्न होते हैं। उसके लिए कितना मनोयोग लगाते और कितना पुरुषार्थ करते हैं। आलस्य और प्रमाद यह दो जहाँ रहेंगे, वहाँ पग-पग पर असफलता प्रस्तुत रहेगी। दैवी अनुग्रह भी पुरुषार्थियों का सहायक होता है। आलसी और


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