ईश्वरोपासना के सत्परिणाम

December 1961

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श्रृण्वे वृष्टेरिव स्वनः पवमानस्य शुप्मिणः।
चरन्ति विद्युतो दिवि।।(ऋ॰ ९-४१-३)

“बलवान सोम के तेज अभिषेक किये जाते समय विद्युत के समान घूमते और चमकते है और सोम का शब्द वर्षा के शब्द के समान ही सुनाई पड़ता है।”

ईश्वर की स्तुति और उपासना मनुष्य के कल्याणार्थ आवश्यक मानी गई है। प्राचीन काल के जितने भी धर्म और मतमतान्तरों हे उन सब में कोई न कोई विधान पाया जाता है। चाहे ईश्वर को निराकार मानने वालों को देखिये ओर चाहे साकार वालों को, स्तुति और प्रार्थना की उपयोगिता सब स्वीकार करते है। भारतवर्ष में सैकड़ों ही नहीं हजारों विभिन्न संप्रदाय पाये जाते है, जिनके सिद्धान्तों में जमीन आसमान का सा अन्तर है, पर एक बात सब में समान रूप से मिलेगी और वह यही है कि वे किसी न किसी रुपं में ईश्वर का गुणगान अवश्य करते हैं और उससे अपने कल्याण की प्रार्थना करते है। थोड़े से अर्द्धमृतक लोग वान का नाम लेकर इस बात को विरोध करने को तैयार हो सकते है, पर सत्य बात यह है कि उन्होंने न विज्ञान के मर्म को समझा है और न अध्यात्म क्षेत्र में कदम रखा है। ऐसे लोग प्रायः इधर-उधर की दो-चार बातों को सुन कर मिथ्यावादी हो जाते हैं और उसी धन में अपने से कहीं अधिक अनुभवी और ज्ञान-सागर में प्रविष्ट महापुरुषों के विरुद्ध निरर्थक बकवाद किया करते है।

पर उपासना और साधना के लिये एक आवश्यकीय शर्त यह है कि वह सच्चे भाव से चित्त लगाकर की जाय। आज कल जिस प्रकार बहुसंख्यक ‘धार्मिक’ कहलाने वाले व्यक्ति दुनिया को दिखाने के लिये अथवा एक रस्म पूरा करने के लिये मंदिर में जाकर दर्शन कर लेते है और नियम को पूरा कर लेने के लिए एकाध माला भी जप लेते है, उससे किसी बड़े सुफल की आशा नहीं की जा सकती। उपासना और साधना तो तभी सच्ची मानी जा सकती है जब कि मनुष्य उस समय समस्त साँसारिक विषयों और आसपास की बातों को भूलकर प्रभु के ध्यान में निमग्न हो जाय। जब मनुष्य इस प्रकार की संलग्नता और एकाग्रता से अपने इष्टदेव की उपासना करता है, तभी वह आध्यात्म मार्ग पर अग्रसर हो सकता है और तभी वह देवी कृपा का लाभ प्राप्त कर सकता हैं इसी तथ्य को समझाने के लिये इस मन्त्र में बतलाया गया है जब मनुष्य हृदय और आत्मा से सोम का अभिषेक (परमात्मा की उपासना) करता है तब उसे स्वयमेव ईश्वरीय तेज के दर्शन होने लगते है और परमात्मा की कृपा अपने चारों तरफ मेह की तरह बरसती जान पड़ती है।

संसार में जीवन निर्वाह करते हुये एक साधारण मनुष्य को नेक विघ्न-बाधाओं का सामना करना पड़ता है, विपरीत परिस्थितियों में होकर गुजरना पड़ता है, विरोधियों के साथ संघर्ष करना पड़ता है और लोगों की भली बुरी सब प्रकार की आलोचना को सहन करना पड़ता है। इससे उसके जीवन में स्वभावतः उद्वेग अशान्ति, भय, क्रोध, आदि के अवसर आते है तिनका उस पर न्यूनाधिक परिणाम में प्रभाव पड़ता है। और वह जीवन में मानसिक अशान्ति-कष्ट का अनुभव करने लगता है। ऐसा मनुष्य अपने कष्टों के निवारणार्थ और मन तथा आत्मा की शांति के लिए परमात्मा का आश्रय ग्रहण करता है, मन, वचन और कर्म से उसकी उपासना में संलग्न होता है, तो उसकी अवस्था में परिवर्तन होने लगता है। जब साधना में अग्रसर होकर वह अपने चारों ओर परमात्म-शक्ति की क्रीड़ा अनुभव करता है और यह समझने लगता है कि संसार जो कुछ हो रहा है वह उस प्रभु की प्रेरणा और इच्छा का भी फल है तब वह जो कुछ करता है उसका अन्तिम परिणाम जीव के लिये शुभ ही होता है, चाहे वह तत्काल उसे न समझ सके, तब उसकी व्याकुलता और अशान्ति दूर होने लगती है और उसे ऐसा अनुभव होता है मानो ग्रीष्म ऋतु से व्यथित, श्रान्ति, क्लान्त व्यक्ति को शीतल और शान्तिदायक वर्षा ऋतु प्राप्त हो गई। मनुष्यों ने अपनी भिन्न-भिन्न कामनाओं की पूर्ति के लिये तरह-तरह की साधनायें निकाली है। धन, संतान, वैभव, सम्मान, प्रभाव, विद्या, बुद्धि आदि की प्राप्ति के लिए लोग भाँति-भाँति के उपायों का सहारा लेते रहते है, निकसे उनको अपनी योग्यतानुसार कम या अधिक परिणाम में सफलता भी प्राप्त होती है। पर आत्मिक शांति, प्राप्त करने, साँसारिक तापों के छुटकारा पाने का एक मात्र उपाय यही हे कि मनुष्य भिन्न-भिन्न कामनाओं का मोह त्याग कर सच्चे-हृदय से परमात्मा का आश्रय ले और शुद्ध भाव से उसकी स्तुति और प्रार्थना करे। हमें स्मरण रखना चाहिये कि सब प्रकार की कामनाओं को पूरा करने वाला भी वास्तव में भगवान ही है। इसलिये अगर हम उसकी कृपा प्राप्त करके आत्मिक शांति प्राप्त कर लेंगे तो हमारी अन्य उचित कामनायें और आवश्यकतायें अपने आप में पूरी हो जायेंगी।

कितने ही मनुष्य इस विवेचन से यह निष्कर्ष निकालेंगे कि परमात्मा के ध्यान में लीन होने से मनुष्य की कामनायें शान्त हो जायेंगी, उसमें संसार के प्रति विरक्ति के भाव का उदय हो जायेगा और इस प्रकार वह आत्म-संतोष का भाव प्राप्त कर लेगा। इस विचार में कुछ सचाई होने पर भी यह खयाल करना कि परमात्मा की उपासना का साँसारिक कामनाओं की पूर्ति से काई सम्बन्ध नहीं, ठीक नहीं है। एक अन्य वेद मंत्र में कहा गया है कि-अपमिव प्रवणे यस्य दुर्धरं राधो विश्वायु शवसे अपावतम्।” ‘भगवान का धन कभी न रुकने वाला और सदा स्थिर रहने वाला हैं वह उसके उपासकों को इस प्रकार प्राप्त होता है जिस प्रकार नीचे की ओर बहता हुआ जल।’ वर्तमान समय में अनेकों ऐसे व्यक्ति हो चुके है जो बहुत साधारण विद्या-बुद्धि के होते हुए भी परमात्मा के भरोसे सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करते है और जो अपने दूसरों के बड़े-बड़े कार्यों को सहज में ही पूरा कर देते है। हम अपने प्राचीन ग्रन्थों में संतों, तपस्वियों ओर भक्तों के जिन चमत्कारों का वर्णन पढ़ते है उनसे तो यह बात स्पष्ट दिखलाई पड़ती हे कि ईश्वर की सच्चे हृदय से उपासना करने वालों को किसी साँसारिक सम्पदा का अभाव नहीं रहता।

मंत्र में यह भी कहा है कि परमात्मा के उपासक को उसके तेज के भी दर्शन होते है। विचार किया जाय तो वास्तव में यही उपासना के सत्य होने की कसौटी है। जो कोई भी एकाग्र चित्त से और तल्लीन होकर परमात्मा का ध्यान करेगा उसे कुछ समय उपरान्त उसके तेज का अनुभव होना अवश्यम्भावी है। यह तेज ही साधक के अन्तर को प्रकाशित करके उसकी भ्रांतियों को दूर कर देता है और उसे जीवन के सच्चे मार्ग को दिखलाता है। इसी प्रकार से मनुष्य सच्चे ज्ञान का अधिकारी बनता है और सब प्रकार की भव बाधाओं को सहज में पार कर सकने की समर्थ प्राप्त करता है।


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