धर्म-पुराणों की सत्यकथा

December 1961

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शिक्षा का आचरण

गुरु द्रोणाचार्य अपने शिष्यों को शिक्षा देते थे। एक दिन उन्होंने अपने शिष्यों को पढ़ाया सत्यं-वद् और कहा इसे कल अच्छी तरह याद करके लाना। और सब लड़के तो उस चार अक्षर के पाठ को दूसरे दिन याद कर लाये, पर युधिष्ठिर ने कहा भगवान मुझे याद नहीं हुआ। गुरु ने कहा-अच्छा कल याद कर लाना। और विद्यार्थियों को उनसे अगला पाठ पढ़ा दिया। युधिष्ठिर से दूसरे दिन भी वह पाठ याद न हुआ। इस प्रकार कई दिन तक वे यही करते रहे। पाठ बहुत मुश्किल है, ठीक तरह याद नहीं होता। इस पर एक दिन गुरु जी ने उन्हें धमकाया कि इतने दिन हो गये, चार अक्षर का पाठ याद नहीं होता-क्या कारण है? युधिष्ठिर ने कहा-लिखने और पढ़ने की दृष्टि से वह पाठ जरा-सा था। दो मिनट में उसे याद किया जा सकता था पर इतने में क्या बनेगा? वह जीवन व्यवहार में आ जाय तभी उसका पढ़ना सार्थक है। मैं ‘सत्यं वद्-सत्य बोलो-की शिक्षा को अपने व्यवहार में ढाल रहा हूँ। पुरानी आदतों के कारण वह अभ्यास में नहीं आ पाता, इसी से देर हो रही है।

गुरु द्रोणाचार्य ऐसे कर्मठ शिष्य को पाकर बढ़े प्रसन्न हुए। युधिष्ठिर ने सत्यं वद् का पाठ पढ़ा ओर ऐसा पढ़ा कि जीवन भर निभाता रहा।

ब्रह्मचर्य की शक्ति

ब्रह्मचारी भीष्म पितामह युद्ध में बुरी तरह घायल हुए, उनका सारा शरीर तीर से बिदा हुआ था। उस समय सूर्य दक्षिणायन थे। वे उत्तरायण सूर्य में देह त्यागना चाहते थे इसलिए अभीष्ट समय आने की प्रतीक्षा में उन्होंने अपने प्राणों को रोक लिया । शरीर की दृष्टि से वे उतने घायल थे कि तुरन्त ही प्राण निकल जाना चाहिए था पर वे अपनी इच्छा शक्ति के बल पर तब तक शरीर धारण किये रहे जब तक कि उत्तरायण सूर्य का शुभ मुहूर्त न आ गया।

ब्रह्मचर्य की शक्ति महान् है उसके बल पर प्राण भी वश में रह सकते हैं।

साधु का चरित्र अत्यन्त निर्मल रहे

शंख और लिखित दो साधु भाई-भाई थे। दोनों अलग -अलग जगह रहते थे। एक दिन लिखित अपने भाई शंख के आश्रम में गये। वे भूखे थे इसलिए उस वाटिका के फल तोड़कर खाने लगे। इतने में शंख आये उन्होंने भाई को कहा-हम लोग साधु हैं, हमारा चरित्र साधारण लोगों की अपेक्षा अधिक ऊँचा होना चाहिए। मैं तुम्हारा भाई हूँ सो ठीक है पर बिना पूछे भाई की चीज लेना भी चोरी ही है। इसका प्रायश्चित करना आवश्यक है। शंख को अपनी भूल का पता चला। वे इसका दंड लेने राजा के पास गये। उन दिनों चोरी की सजा हाथ काटना थी। लिखित ने खुशी-खुशी अपने हाथ कटवा लिये।

सत्पुरुषों का अनुकरण दूसरे लोग करते हैं इसलिए उन्हें अपने चरित्र की ओर साधारण लोगों की अपेक्षा अधिक ध्यान रखना और अधिक उज्ज्वल बनना आवश्यक है।

ब्राह्मणत्व का पतन

एकबार एक ब्राह्मण, युधिष्ठिर तथा श्रीकृष्ण जी तीनों बैठे चुपचाप आँसू बहा रहे थे। इतने में अर्जुन आये, उन्होंने तीनों के इस प्रकार रोने का कारण पूछा, तो सब के मन को जानने वाले श्रीकृष्णचन्द्र जी ने उस मूक प्रसंग का कारण बताते हुए कहा-आज युधिष्ठिर ने इस ब्राह्मण को निमन्त्रण दिया था। ब्राह्मण संकोच वश उस निमन्त्रण को अस्वीकार भी नहीं कर पा रहा है और मन ही मन दुखी भी है कि राजा का कुदान खाकर मुझे अपना तप क्षीण करना पड़ेगा। युधिष्ठिर भी ब्राह्मण के मन की जानते हैं और इस कारण दुखी हैं। कि यदि मैं अपने हाथ पैर से सात्विक अन्न कमा कर ब्राह्मण को खिला सका होता कैसा अच्छा होता। मैं इसलिए दुखी हूँ कि आज तो खाने वाले ब्राह्मण में यह विवेक मौजूद हैं कि किसके यहाँ खाऊँ तथा यजमान में यह विवेक मौजूद है कि पुण्य केवल सात्विक कमाई के पैसे से ही होता है। आगे जाकर दोनों में से यह विवेक चला जायेगा और खाने के लिए ब्राह्मण अभक्ष्य के लिए भी दौड़ेंगे और खिलाने वाले अनीति उपार्जित धन से भी पुण्य की आशा करेंगे। मैं उसी बुरे भविष्य की कल्पना करके दुखी हो रहा हूँ।

दान की आजीविका बनाने वाले लालची ब्राह्मण सब प्रकार शोचनीय हैं।

भूमिगत संस्कार

जब महाभारत युद्ध होने का निश्चय हो गया तो उसके लिये जमीन तलाश की जाने लगी। श्रीकृष्ण जी बढ़ी हुई असुरता से ग्रसित व्यक्तियों को उस युद्ध के द्वारा नष्ट कराना चाहते थे। पर भय यह था कि यह भाई-भाइयों का, गुरु शिष्य का, सम्बन्धी कुटुम्बियों का युद्ध है। एक दूसरे को मरते देखकर कहीं सन्धि न कर बैठें इसलिए ऐसी भूमि युद्ध के लिए चुननी चाहिए जहाँ क्रोध और द्वेष के संस्कार पर्याप्त मात्रा में हों। उन्होंने अनेकों दूत अनेकों दिशाओं में भेजे कि वहाँ की घटनाओं का वर्णन आकर उन्हें सुनायें।

एक दूत ने सुनाया कि अमुक जगह बड़े भाई ने छोटे भाई को खेत की मेंड़ से बहते हुए वर्षा के पानी को रोकने के लिए कहा। पर उसने स्पष्ट इनकार कर दिया और उलाहना देते हुए कहा-तू ही क्यों न बन्द कर आवे? मैं कोई तेरा गुलाम हूँ। इस पर बड़ा भाई आग बबूला हो गया। उसने छोटे भाई को छुरे से गोद डाला और उसकी लाश को पैर पकड़कर घसीटता हुआ उस मेंड़ के पास ले गया और जहाँ से पानी निकल रहा था वहाँ उस लाश को पैर से कुचल कर लगा दिया।

इस नृशंसता को सुनकर श्रीकृष्ण ने निश्चय किया यह भूमि भाई-भाई के युद्ध के लिए उपयुक्त है। यहाँ पहुँचने पर उनके मस्तिष्क पर जो प्रभाव पड़ेगा उससे परस्पर प्रेम उत्पन्न होने या सन्धि चर्चा चलने की सम्भावना न रहेगी। वह स्थान कुरुक्षेत्र था वहीं युद्ध रचा गया।

श्रवणकुमार के माता-पिता अंधे थे। वे उनकी सेवा पूरी तत्परता से करते, किसी प्रकार का कष्ट न होने देते। एक बार माता-पिता ने तीर्थ यात्रा की इच्छा की। श्रवण कुमार ने काँवर बनाकर दोनों को उसमें बिठाया और उन्हें लेकर तीर्थ यात्रा को चल दिया। बहुत से तीर्थ करा लेने पर एक दिन अचानक उसके मन में यह भाव आये कि पिता-माता को पैदल क्यों न चलाया जाय? उसने काँवर जमीन पर रख दी और उन्हें पैदल चलने को कहा। वे चलने तो लगे पर उन्होंने साथ ही यह भी कहा-इस भूमि को जितनी जल्दी हो सके पार कर लेना चाहिए। वे तेजी से चलने लगे जब वह भूमि निकल गई तो श्रवणकुमार को माता-पिता की अवज्ञा करने का बड़ा पश्चाताप हुआ और उसने पैरों पड़ कर क्षमा माँगी तथा फिर काँवर में बिठा लिया।

उसके पिता ने कहा-पुत्र इसमें तुम्हारा दोष नहीं। उस भूमि पर किसी समय मय नामक एक असुर रहता था उसने जन्मते ही अपने ही पिता-माता को मार डाला था, उसी के संस्कार उस भूमि में अभी तक बने हुए हैं इसी से उस क्षेत्र में गुजरते हुए तुम्हें ऐसी बुद्धि उपजी।

शुभ और अशुभ विचारों एवं कर्मों के संस्कार भूमि में देर तक समाये रहते हैं। इसीलिए ऐसी भूमि में ही निवास करना चाहिए जहाँ शुभ विचारों और शुभ कार्यों का समावेश रहा हो।

भगवान की दृष्टि में जाति का मूल्य

दण्डकारण्य वन में शबरी नाम की एक भीलनी अपनी कुटी बनाकर रहती और प्रेमपूर्वक साधना करती थी। वह भजन के साथ-साथ ऋषियों की कुछ सेवा भी करना चाहती थी पर ऋषि उसे अछूत कह कर उसकी सेवा भी स्वीकार न करते थे। निदान शबरी ने ऋषियों के रास्तों को झाड़ बुहार कर साफ करने और ईंधन इकट्ठा करके आश्रमों के आगे जमा कर देने की सेवा करना यह सोचकर आरम्भ कर दिया कि इसमें तो उन्हें आपत्ति होगी ही नहीं। किन्तु यह भी अभिमानी ब्राह्मणों को बुरा लगा। वे उसे पकड़कर मातंग ऋषि के आश्रम ले गये।

मातंग दयालु थे। उन्होंने उसे छुड़ा दिया। इतना ही नहीं उसकी वृद्धावस्था को देखते हुए अपने विशाल आश्रम के एक कोने में उसे भी रहने की आज्ञा दे दी। यह बात अन्य ब्राह्मणों को बहुत लगी, उन्होंने मातंग का भी बहिष्कार कर दिया।

एक दिन शबरी कहीं जा रही थी। सामने से स्नान करके आते हुए किसी ब्राह्मण का शरीर छू गया। उस पर वे बहुत क्रुद्ध हुये

भगवान राम जब दंड कारण अपने वनवास काल में आये तब सबसे पहले वे शबरी के ही आश्रम में गये। शबरी आचार व्यवहार में प्रवीण न थी। उसने इकट्ठे किये हुए बेरों को चख-चख कर मीठे-मीठे रामचन्द्रजी को खिलाये। उन्होंने लक्ष्मण समेत उन बेरों को बड़े प्रेमपूर्वक खाया।

ऋषियों ने सरोवर में कीड़े पड़ने और उसका जल रुधिर होने की बात कही तो लक्ष्मण ने कहा-मतंग ऋषि के बहिष्कार और शबरी के अपमान का यही फल है । अब शबरी यदि उस जल को स्पर्श करे तो वह जल शुद्ध हो। शबरी ने उस तालाब में प्रवेश किया और वह फिर पूर्ववत् शुद्ध हो गया।

भगवान की दृष्टि में जाति का नहीं भावना का मूल्य है।

भाइयों की सहायता

जब पाण्डव द्वैत वन में रह रहे थे, तब दुर्योधन कुटिल उद्देश्य से वहाँ पहुँचा। वह पाण्डवों का अनिष्ट करना चाहता था। रास्ते में जब वह एक सरोवर में स्नान के लिए घुसा तो वहाँ के निवासी गन्धर्वों ने युद्ध करके उसे रानियों समेत बन्दी बना लिया।

युधिष्ठिर को जब यह समाचार मिला तो उन्होंने अपने भाइयों से कहा-तुम सब जाकर गन्धर्वों से दुर्योधन को छुड़ाए यद्यपि वह दुष्ट उद्देश्य से वहाँ आया था फिर भी इस समय वह विपत्ति में पड़ा हुआ है। आखिर है तो अपना भाई ही। दूसरों के हाथों उसकी दुर्गति होते देखना हमारे लिए अशोभनीय है। दुर्योधन के उपकारों को भुलाकर हमें अपनी सहज उदारता से उसके साथ उपकार करना ही उचित है।

युधिष्ठिर की आज्ञानुसार अर्जुन ने गन्धर्वों से लड़कर दुर्योधन को रानियों सहित बन्धन मुक्त करा दिया।

आपत्तिजनक होने पर भी अपकार करने वालों की सहायता करना सज्जनों का कर्तव्य है।

धैर्य की परीक्षा

हैहयवंशी श्रतभिधान के पुत्र राजा शंख को भगवान के दर्शनों की इच्छा उत्पन्न हुई और वे तप करने लगे। जब बहुत दिन बीत गये और दर्शन नहीं हुए तो उन्हें अपने तप की शुद्धता में शंका होने लगी। तब उन्हें आकाशवाणी सुनाई दी कि अभी एक हजार वर्ष की देर है, तब दर्शन होंगे। इतनी प्रतीक्षा कर सकता हो तो तप कर। शंख इससे बहुत आश्वस्त हुए और धैर्यपूर्वक नारायण गिरि पर्वत पर और भी कठिन साधना करने चले गये। भगवान ने उनके धैर्य की परीक्षा लेने के लिए एक हजार वर्ष बाद फिर आकाशवाणी की कि तेरी साधना में अभी कमी है इसलिए एक हजार वर्ष और प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। इस प्रकार तीन बार वह अवधि टली। तो भी राजा अधीर नहीं हुआ उस अवधि को साधारण मानता रहा। अन्त में भगवान ने उसके धैर्य को परिपक्व परख कर दर्शन दिये।

भगवान को धैर्यवान् प्रिय है। अधीर की निष्ठा तो बड़ी अच्छी होती है इसलिए वह भगवान की दृष्टि में तुच्छ ही रहता है।


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