अपनी ओर भी देखो
एक राजा के बहुत से नौकर थे। राजा उनके साथ कुटुम्बियों जैसा व्यवहार करता था। आवश्यकता पड़ने पर वह उन्हें धन उधार भी देता। एक राज-कर्मचारी पर एक हजार रुपया बहुत दिन से शेष था। कोश के कर्मचारियों ने उसे पकड़ कर राजा के समक्ष उपस्थित किया। राजा को उसकी दशा देखकर दया आई और उसने उसका ऋण माफ कर दिया। उसी कर्मचारी का कुछ रुपया एक दूसरे मनुष्य पर शेष था, वह उस पर तकाजा करने गया तो उसने अपनी शोचनीय दशा तथा गृहिणी की बीमारी की बात कहते हुए एक सप्ताह में रुपये देने की बात कही। परन्तु वह कर्मचारी न माना और उसने उसके साथ मारपीट कर डाली और बोला कि ‘अभी रुपए लूँगा।’ कर्जदार ने राजा से रक्षा के लिए निवेदन किया तो कर्मचारी की पेशी हुई। राजा ने सब कारण जानकर कर्मचारी से कहा कि ‘विपत्ति सब पर आती है। अभी, उस दिन मैंने तेरी बुरी दशा देखकर ही तो राजकोष का एक हजार रुपया माफ किया था। तू इस व्यक्ति के प्रति किंचित् भी दया नहीं कर सका? मैंने तुझे माफी दी थी, इसलिए कि किसी की आत्मा को कष्ट न पहुँचे। परन्तु, तू इसके योग्य नहीं है अतः राज्य का बकाया लाकर इसी समय दे।’
परमात्मा कितनी उदारता के साथ हमें अनगिनत वस्तुएँ दे रहा है, पर हम उस प्राप्त सम्पदा में से थोड़ा भी दूसरों को देने में कितनी संकीर्ण ता दिखाते हैं। इसी प्रकार परमात्मा हम से निरन्तर होने वाली भूलों का विचार न करके सदा कृपा बनाये रहता है पर हम दूसरों की थोड़ी-सी गलती को क्षमा करने की उदारता नहीं दिखाते। हमारी ही तरह यदि परमात्मा भी निष्ठुर और संकीर्ण दृष्टि बनाये तो हमारी क्या दुर्गति हो कभी इस बात पर भी विचार किया है?
पढ़ने के साथ गुण भी
एक दुकानदार व्यवहार शास्त्र की पुस्तक पढ़ रहा था। उसी समय एक सीधे-सीधे व्यक्ति ने आकर कौतूहल वश पूछा-क्या पढ़ रहे हो भाई?’ इस पर दुकानदार ने झुँझलाते हुए कहा-तुम जैसे मूर्ख इस ग्रन्थ को क्या समझ सकते हैं।’ उस व्यक्ति ने हँसकर कहा-मैं समझ गया, तुम ज्योतिष का कोई ग्रन्थ पढ़ रहे हो, तभी तो समझ गए कि मैं मूर्ख हूँ।’ दुकानदार ने कहा-ज्योतिष नहीं, व्यवहार-शास्त्र की पुस्तक है।’ उसने चुटकी ली-तभी तो तुम्हारा व्यवहार इतना सुन्दर है।’ दूसरों को अपमानित करने वालों को स्वयं अपमानित होना पड़ता है। पढ़ने का लाभ तभी है जब उसे व्यवहार में लाया जाय।
कठोर वाणी से विनाश
युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ के अवसर पर मय दानव द्वारा अत्यन्त सुन्दर सभा-भवन बनवाया। उसके कौशल से जल के स्थान और स्थल के स्थान पर जल दिखाई देने लगा। दुर्योधन उस रचना से भ्रम में पड़ गया और स्थल पर पानी होने का भ्रम होने से कपड़े ऊँचे करके चला तथा पानी को स्थल समझ उसमें गिरकर भीग गया। द्रौपदी ने यह देख उसे ‘अन्धे का अन्धा बताया।’ यही कठोर वाणी महाभारत युद्ध की जड़ थी। फिर द्रौपदी का चीर खींचते समय दुर्योधन ने भीम को देखकर कहा था-कौए तुझमें शक्ति हो तो इसकी सहायता कर।’ इस कठोर वचन के कारण भीम ने दुर्योधन के रुधिर से द्रौपदी के बाल सींचने की प्रतिज्ञा की। कठोर वचनों से ऐसे ही अनिष्ट परिणाम होते हैं।
चमार की सभा
महाराज जनक की राज्य सभा में अष्टावक्र जी पधारे। उनके शरीर के बेढंगापन को देखकर सब हंस पढ़े। इस पर अष्टावक्र ने भी हँसते हुए कहा-जिस सभा में केवल चर्म और हड्डियों की परख की जाय उसे चमार की सभा के अतिरिक्त क्या कहा जाय?’ यह सुनकर पूरी सभा स्तब्ध थी। सचमुच ही उनके शब्दों में गूढ़ तत्त्वज्ञान छुपा था।
“मनुष्य की परीक्षा और उसका सम्मान वेशभूषा तथा ऊपरी ठाटबाट से करने के बजाय उसके गुणों से ही करना चाहिये।”
अन्याय का धन टिकता नहीं
एक ग्वालिन बढ़िया दूध बेचती थी, इससे उसके ग्राहकों की संख्या बढ़ने लगी। ग्वालिन के पास इतना दूध न था कि सब की माँग पूरा करती, अतः वह पानी मिलाने लगी। एक दिन बिक्री का धन पोटली में बाँधकर नदी किनारे रखा और बर्तन माँजने लगी। तभी एक चील उस पोटली को लेकर उड़ गई, परन्तु गाँठ खुल गई और कुछ धन किनारे पर तथा कुछ धन उछल कर नदी में जा गिरा। यह देख ग्वालिन रोते-रोते किनारे के पैसों को समेटने लगी। तभी एक संत उधर आ निकले और ग्वालिन के रोने का कारण जानकर बोले कि दूध का पैसा किनारे पर है और पानी का पानी में। अधर्म से अधिक लिया था, वह चला गया। ग्वालिन ने पैसे गिने तो उतने ही थे जितने का असली दूध होना चाहिए था। अन्याय का धन ठहरता नहीं।
छोटे के साथ सहयोग
सेना का एक अधिकारी सैनिकों से एक बड़ा शहतीर उठवा रहा था और बार-बार आदेश दे रहा था-जल्दी करो, जोर लगाओ मुर्दों की तरह हाथ मत चलाओ।’ उसी समय एक भद्र पुरुष ने आकर बड़ी विनम्रता से अधिकारी से कहा-यदि आप भी इनके साथ हाथ लगाने का कष्ट करें तो यह कार्य शीघ्र ही पूर्ण हो जायेगा। अधिकारी ने भद्र पुरुष को घूरते हुए उत्तेजनापूर्ण कहा-मैं इनका अधिकारी हूँ मेरा काम आज्ञा देना है।’ यह सुन वह पुरुष चुपचाप सैनिकों को शहतीर उठाने में सहायता देने लगा और थोड़ी देर में ही कार्य पूर्ण हो गया। तब भद्र पुरुष ने अधिकारी से क्षमा-याचना करते हुए कहा-महोदय भविष्य में जब कभी कोई कठिनाई आ जाये तो मुझे सहर्ष सूचना देकर बुला लिया करे।’ अधिकारी ने अकड़ और लापरवाही से उनका नाम धाम पूछा। भद्र पुरुष बोले-श्रीमान् मुझे जार्ज वाशिंगटन कहते हैं। राष्ट्रपति के पते पर सूचना मुझे मिल जायेगी।’ अधिकारी यह सुनते ही परेशानी और शर्म से गढ़ गया और उनसे क्षमा माँगते हुए भविष्य में अपने साथियों के साथ स्वयं भी काम करने की प्रतिज्ञा की।
साधु के लक्षण
एक त्यागी से शाह इब्राहिम ने पूछा कि ‘सच्चे साधु के लक्षण क्या हैं?’ त्यागी ने कहा कि ‘मिले तो खालें, न मिले तो संतोष करे।’ इब्राहिम ने कहा कि यह लक्षण तो कुत्ते का भी है। त्यागी ने कहा तो आप ही बताइए। शाह ने कहा-मिले तो मालिक की राह में लुटा दे और न मिले तो मालिक को धन्यवाद दे।’
बड़े होने का अर्थ
इंग्लैण्ड के सम्राट एडवर्ड सप्तम की धर्मपत्नी एलेग्जेन्ड्रा बचपन से ही बड़ी परिश्रमी और दयालु थीं। उनका नित्य नियम था कि अपने हाथ से कम से कम एक कपड़ा सीकर गरीबों को बाँटना। वे कहा करती थीं कि बड़े होने का अर्थ आलसी और विलासी बनना नहीं वरन् छोटों की सहायता के लिए और भी अधिक उत्साह से काम करना है।