हमारा आन्तरिक महाभारत

December 1961

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मनुष्य के अन्तःकरण में दो प्रवृत्तियाँ रहती हैं जिन्हें आसुरी एवं दैवी प्रकृति कहते हैं। इन दोनों में सदा परस्पर संघर्ष चलता रहता है। गीता में जिस महाभारत का वर्णन है और अर्जुन को जिसमें लड़ाया गया है वह वस्तुतः आध्यात्मिक युद्ध ही है। आसुरी प्रवृत्तियाँ बड़ी प्रबल है। कौरवों के रूप में उनकी बहुत बड़ी संख्या है, सेना भी उनकी बड़ी है। पाण्डव पाँच ही है उनके सहायक एवं सैनिक भी थोड़े ही हैं। फिर भी भगवान ने युद्ध की आवश्यकता समझी और अर्जुन से कहा-लड़ने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। तामसिक आसुरी प्रकृति का दमन किये बिना सतोगुणी दैवी प्रकृति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा। इसलिये लड़ना जरूरी है। अर्जुन पहले तो झंझट में पड़ने से कतराये पर भगवान ने जब युद्ध को अनिवार्य बताया तो उसे लड़ने के लिये कटिबद्ध होना पड़ा। इस लड़ाई को इतिहासकार ‘महाभारत’ के नाम से पुकारते हैं। अध्यात्म की भाषा में इसे साधन-समर कहते हैं।

देवासुर संग्राम की अनेक कथाओं में इसी साधन-समर का अलंकारित निरूपण हैं। असुर प्रबल होते हैं, देवता उनसे दुःख पाते हैं, अन्त में दोनों पक्ष लड़ते है, देवता अपने को हारता-सा अनुभव करते हैं, वे भगवान के पास जाते हैं। प्रार्थना करते हैं। भगवान उनकी सहायता करते हैं। अन्त में असुर मारे जाते हैं, देवता विजयी होते है। देवासुर संग्राम के अगणित पौराणिक उपाख्यानों की पृष्ठभूमि यही है।

हमारा अन्तः प्रदेश ही वह धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र है जिसमें महाभारत होता रहता है। असुर मायावी हैं। तमोगुण का असर हमें माया में फँसाये रहता है। इन्द्रिय सुखों का लालच देकर वह अपना जाल फेंकता है और अपने माया पाश में जीव को बाँध लेता है। उस असुर के और भी कितने ही अस्त्र-शस्त्र है जिनसे जीव को अपने दूरवर्ती करके पददलित करने में वह सफल होता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर यह छः ऐसे ही सम्मोहन अस्त्र हैं, जिनमें मूर्छित होकर जीव बंध जाता है और वह मूर्छा ऐसी होती है कि उससे निकलने की इच्छा भी नहीं होती है। वरन् उसी स्थिति में पड़े रहने को जी चाहता रहता हैं।

अर्जुन भीख माँग कर खाने और ऐसे ही किसी तरह जीवन कट लेने को तैयार है। जो दुष्प्रवृत्तियाँ एक ही घर में-एक ही कुटुम्ब में-अपने ही शरीर में पैदा हुई तथा पली हैं वे उसे स्वजन जैसी लगती है। उन्हें मारने में दुःख लगता है। जो दुर्गुण, दुर्भाग्य, दुःस्वप्न, कुविचार और कुसंस्कार अपने मनः क्षेत्र में चिरकाल से साथी बने हुए हैं उन्हें हटाने के लिये जीव की प्रवृत्ति भी नहीं होती। किन्तु यह अवसाद आत्मा के लिये अहितकर ही है इसलिये भगवान अपने भक्त के इस अवसाद को हटाने का प्रयत्न करते हैं। अर्जुन को युद्ध में लड़ना ही पड़ता है।

आत्मा का कल्याण उस तम प्रवृत्ति में पड़े रहने से नहीं हो सकता जिसमें माया मोहित अगणित जीव पाशबद्ध स्थिति में पड़े रहते हैं। इन बन्धनों को काटे बिना कल्याण का और कोई मार्ग नहीं। इस बुरी स्थिति को यदि रोका, हटाया या सुधारा न जाय तो उसकी भयंकरता एवं विभीषिका में दिन दिन वृद्धि ही होती जायेगी और नारकीय यंत्रणाओं के अधिकांश प्राणी इसी स्थिति में पड़े-पड़े नाना प्रकार के त्रास सहते रहते हैं। भव बन्धनों में बंधे हुए बिगड़ते और बिलखते रहते हैं। इस मार्ग से यदि विरत न हुआ जाय तो पाप, पतन, एवं पीड़ा के चक्र में गला फँसा कर झूलते रहना पड़ता है।

आत्मा की पुकार ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की है। वह अन्धकार से प्रकाश की ओर जाना चाहता है। तम ही अन्धकार और सत ही प्रकाश है। यह अन्धकार को त्यागने और प्रकाश को धारण करने का प्रयत्न ही ‘साधना’ है। साधना को जीवन की अनिवार्य आवश्यकता माना गया है। तम की दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा केवल इस एक ही उपाय से हो सकता है। सच्ची शान्ति और प्रगति का मार्ग भी यही है।

अन्तरात्मा में निरन्तर चलने वाले देवासुर संग्राम में तामसिकता का पक्ष भौतिक सुख साधन इकट्ठे करते रहने और सात्विकता का पक्ष आत्मकल्याण की दिशा में अग्रसर होने का है। जब दोनों में से कोई एक पक्ष प्रबल हो उठता है तो संग्राम में तेजी दिखाई देने लगती है। यदि असुरता प्रबल हुई तो दुष्प्रवृत्तियों की अभिवृद्धि होकर पतन का नारकीय परिपाक सामने आ जाता है और सुर पक्ष प्रबल हुआ तो सत्प्रवृत्तियों का उभार आता है और मनुष्य, सत्पुरुष, महामानव, ऋषि एवं देवदूत बनकर पूर्णता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये द्रुत गति से आगे बढ़ता है।

एक बीच की स्थिति ही, रजोगुण ही अवसाद भूमिका कहलाती है। इसमें तम और सत दोनों मिले रहते हैं। लड़ाई बंद हो जाती है और काम चलाऊ समझौता-सा करके दैवी और आसुरी तंत्र एक ही घर में रहने लगते हैं। भले और बुरे दोनों ही तरह के मनुष्य करता रहता है। पाप के प्रति घृणा न रहने से आत्मिक प्रगति की ओर कोई विशेष उत्साह न रहने से दिन काटने की वैसी ही स्थिति बन जाती है, जैसी मंद विष पीकर मूर्छित हुए अर्द्धमृत प्राणी की होती है। मानव-जीवन जैसा अलभ्य अवसर प्राप्त होने पर इस प्रकार का अवसाद भी चिन्ताजनक ही है।

भगवान कृष्ण ने बार-बार उकसा कर अर्जुन को युद्ध के मैदान में खड़ा कर दिया था। गाण्डीव उठाकर शत्रुओं पर शर सन्धान करने के लिये उसे तत्पर ही होना पड़ा था। हमारा भगवान-अन्तरात्मा-भी हमसे यही कराना चाहता है। उसकी गीता निरन्तर हमारे अन्तःकरण में-कुरुक्षेत्र में-कही जाती रहती है। पर हम उसे सुनते नहीं, मूर्छा छोड़ते नहीं, गाण्डीव को छूते नहीं, हमारा कृष्ण हमें झकझोरते-झकझोरते हार चला, पर हम चेतना शून्य ही बने बैठे हैं।

इस अवसाद की स्थिति का अन्त करना ही उचित है। देवासुर-संग्राम में अपने देव पक्ष को विजयी बनाना ही श्रेयस्कर है। तम को छोड़ें और सत का प्रकाश ग्रहण करें इसी में हमारा हित है। साधना में ही मनुष्य का सच्चा स्वार्थ सन्निहित है।


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