क्रोध मत किया कीजिए

December 1961

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धम्मपद में भगवान बुद्ध ने क्रोध को अक्रोध से-क्षमा से जीतने की शिक्षा दी है। उनमें से कुछ वचन नीचे देखिए-

क्रोध जह्यात् विप्र जह्यात् मानम।

क्रोध छोड़े, अभिमान छोड़े, वासनाओं के बन्धनों से छूटे, नाम रूप की आसक्ति से बचकर कर्म करें। अपरिग्रही रहे, ऐसा मनुष्य दुखों से पार हो जाता है।

यो वै उत्पतितं क्रोधं, रथं

जो बढ़े हुए क्रोध को रथ की तरह रोक ले वही सच्चा सारथी है और तो लगाम पकड़ने वाले ही हैं।

अक्रोधेन जयेत्क्रोधम्

क्षमा से क्रोध को जीते। भलाई से बुराई को जीते। कृपण को उदारता से जीते और असत्यवादियों को सत्य से जीते।

सत्यं वदेत् न क्रुध्येत्

सत्य ही बोलें। क्रोध न करें। याचक को विमुख न करें। इन कार्यों से मनुष्य देव श्रेणी में पहुँचता है।

अक्रोषीत् मां अवधीत् मां,

मुझसे कटु वचन कहे, मुझे सताया, मुझे नीचा दिखाया, मुझे हानि पहुँचाई, इन बातों को सोच-सोचकर जो बैर बढ़ाते रहते हैं उनका द्वेष कभी शान्त नहीं होता।

नहि ड़ड़ड़ड़, शाम्यन्तीह कदाचन।

द्वेष से द्वेष की कभी शान्ति नहीं होती। बैर छोड़ने से ही बैर शान्त होता है। यही सनातन धर्म है।

क्षमा खडगः करे यस्य, दुर्जनः किं करिष्यति।

जिसके हाथ में क्षमा रूपी तलवार है उसका दुर्जन क्या बिगाड़ सकता है। आग पर यदि ईंधन न पड़े तो वह स्वयं ही बुझ जाती है।

मूढानामेव भवति क्रोधों ज्ञानवतां कुतः

-विष्णु पुराण 1/1/17

क्रोध मूर्खों को ही आता है। ज्ञानियों को नहीं।

क्रोधमेव तु यो हन्ति तेन सर्वे द्विषो हताः

जिसने क्रोध को मार लिया उसने अपने सब शत्रु मार लिए।

विकार हेतौ सति विक्रियन्ते येषां न

विकार का कारण उत्पन्न होने पर भी जिसका चित्त विकारग्रस्त नहीं होता वही धीर है।

सेलो यथा एकघनो वातेन न समीरति।

इट्ठाधम्मा अनिट्ठा च न पवेधन्ति तादिनो।

- अगुत्तर निकाय 3/52

जिस प्रकार पर्वत भयंकर तूफानों और प्रचण्ड अन्धकार से भी डगमगाते नहीं, अपने स्थान पर जमे रहते हैं उसी प्रकार साँसारिक विषयों और विपत्तियों से शान्त चित्त वाले निर्वाण प्राप्त व्यक्ति

क्षुब्ध नहीं होते। इन बाधाओं से भी उनकी शान्ति अक्षुणता बनी रहती है।

मानं हित्वाप्रियो भवति

-महाभारत

जो अपना अहंकार छोड़ देता है वह सब का प्यारा हो जाता है।

पराभवस्य हैतन्मुखं यद्तिमानः।

-शतपथ 5/1/1/1

अभिमान ही पतन का द्वार है।

वाचो वेगं मनसः क्रोधवेगं

-महाभारत शान्ति 299/14

जो अपने वाणी के आवेश को, मन के आवेश को, क्रोध के वेग को, काम के वेग को, उदर और उपस्था के वेग को रोकता है, उसी को मैं ब्राह्मण और मुनि मानता हूँ।

अज्ञान प्रभवो मन्युरहंमानोपवृंहितः।

-श्रीमद्भागवद् 19/13

क्रोध अज्ञान के कारण उत्पन्न होता है और अहंकार से बढ़ता है।


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