चलते समय (कविता)

December 1961

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-दुर्गाप्रसाद विशारद

इस जीवन के चौराहे पर, कितनों से मेल मिलाप हुआ।
कितनों से हुआ विवशता में, कितनों से अपने आप हुआ।।
कितनों से मिलकर हर्ष हुआ, कितनों से मिल सन्ताप हुआ।
कितनों से मिल वरदान मिला, कितनों से मिलना पाप हुआ।

जिससे मिलना था, मिला नहीं, मैं मिला उसे जो मिला नहीं।
विकसित सुमनों को चुना, चुना उसको न अभी जो खिला नहीं।।
अधखिला खिला खिलकर सूखा, सूखे को क्या परिताप हुआ।
इस जीवन के चौराहे पर कितनों से मेल मिलाप हुआ।।

कर सका न मैं निर्णय इसका, है कौन बुरा है कौन भला।
यह क्षण भर का था मिलन हुआ, मैं खड़ा रहा वह गया चला।।
किससे मिलकर उल्लास मिला? किससे मिलना अभिशाप हुआ?
इस जीवन के चौराहे पर कितनों से मेल मिलाप हुआ।।

मिल सका, मगर कह सका न कुछ रह गये अधूरे ही सपने।
अब अपनी मंजिल जाता हूँ, बन चले विराने ये अपने।।
बहुतों को छोड़ चला हँसता, बहुतों को शोक विलाप हुआ।
इस जीवन के चौराहे पर, कितनों से मेल मिलाप हुआ।।


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