महान प्रेरक-वालटेयर

December 1961

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वालटेयर 84 वर्ष की आयु में-30 मई सन् 1778 को मरा तो उसका अन्त्येष्टि संस्कार कराने के लिए पेरिस का कोई पादरी तैयार नहीं हुआ। इसलिए उसकी लाश को नगर से बाहर एक छोटे गाँव में दफनाना पड़ा। पादरी उसे धर्मद्रोही कहते थे। क्योंकि उसने जीवन भर धर्म के नाम पर चल रहे पाखण्डों का विरोध किया यद्यपि वह अधार्मिक नहीं था-वास्तविक धर्म के प्रति उसकी गहरी आस्था थी, तो भी वह धर्म के नाम पर चल रहे अनाचार को सहन न कर सका, और उसने उसका जीवन भर विरोध किया।

वालटेयर को अपने लक्ष के लिए यात्रा करते रहने में कठिन जीवन बिताना पड़ा, और कितनी ही आपत्तियों का सामना करना पड़ा फिर भी वह विचलित नहीं हुआ और अपने मार्ग पर धैर्यपूर्वक जीवन के अन्त तक चलता रहा।

उसका असली नाम फ्राँकई मारी आरुई था। सन् 1694 में जब वह जन्मा तो जन्मते ही उसकी माता की मृत्यु हो गई। माता का दूध न मिलने और जन्मजात अस्वस्थता से ग्रसित होने के कारण कोई यह आशा न करता था कि यह बच सकेगा। पर वह मौत से भी लड़ा और किसी प्रकार जीवित रहने लायक स्वास्थ्य को बनाये रहा। अस्वस्थ रहने पर भी ज्ञानार्जन के लिए उसकी प्रचण्ड अभिलाषा थी। इसलिए चारपाई पर पड़े-पड़े भी उसने पढ़ना न छोड़ा और 17 वर्ष की आयु में इस योग्य हो गया कि साहित्य सेवा को जीविकोपार्जन का साधन बना सके। उसके पिता चाहते थे कि वह रोटी कमाने के लिए कोई उपयुक्त धन्धा तलाश करे। वे उसे कानून पढ़ाना चाहते थे। उन दिनों साहित्य सेवा से भर पेट रोटी मिलना कठिन था। इसलिए वे लड़के की साहित्यिक चेष्टाएँ को नापसंद करते थे और उससे रुष्ट थे। एकबार तो उनने घर से निकाल देने तक की धमकी दी और कहा अपनी जिद पर अड़ा रहा तो उसे भूखों मरना पड़ेगा। वालटेयर के जीवन का एक लक्ष्य था। वे समाज को नया जीवन, नई विचारधारा देने आये थे। इस के लिए भूखों मरना पड़े या किसी और तरह मरना पड़े इसकी उन्हें चिन्ता न थी। पिता की बात से वे सहमत न हो सके और धार्मिकता की एक महिमापूर्ण सेवा करने का प्रयत्न किया।

उन्होंने अपने जीवन में लगभग एक सौ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे। उन सभी में उन्होंने धर्म के वास्तविक स्वरूप का प्रतिपादन किया और धर्म के नाम पर प्रचलित भ्रान्तियों और अनीतियों का खण्डन किया। भारत में जो कार्य विवेकानन्द, दयानन्द, गाँधी, राममोहन राय आदि ने किया वही कार्य वालटेयर ने फ्राँस में किया। इस प्रकार का कठिन कार्य अपने जिम्मे लेने वाले प्रत्येक सुधारक को निहित स्वार्थों तथा रूढ़िवादिता को विरोध का सामना करना पड़ता है। वालटेयर को भी वह आपत्तियाँ सहनी पड़ी।

एक पुस्तक लिखने में उन्हें जेल की सजा मिली। छूटकर आये और अन्य पुस्तकें लिखी तो वह भी जब्त हो गई। उनके लिखे हुए नाटकों को दिखाने में कानूनी प्रतिबन्ध लगाये गये। उन पर आरोप लगाया गया कि वे जनता को नीति भ्रष्ट करते हैं। उन दिनों राज शासन या प्रचलित परम्पराओं की आलोचना करना-नीति भ्रष्टता मानी जाती थी। इतने प्रतिबन्ध होते हुए भी उनकी पुस्तकों में जो तथ्य होता था, उससे जनता बहुत प्रभावित थी। लुक छिप कर उनकी पुस्तकें खूब पढ़ी जाती थीं और जब तक प्रतिबंध नहीं लगता था तब तक उनके लिखे नाटकों को देखने के लिए लोग टूट-टूट पड़ते थे।

उनके एक भाषण से अप्रसन्न होकर लोगों ने उनकी पिटाई की और राजकीय सहायता से उन्हें जेल भिजवा दिया। आखिर उन्हें इस शर्त पर जेल से छोड़ा गया कि वे तुरन्त ही फ्राँस छोड़कर अन्यत्र चले जाये। वे इंग्लैण्ड में कई वर्ष भटकते रहे। बड़े प्रयत्न से स्वदेश लौटने की अनुमति मिली पर थोड़े ही दिनों में उनके विरुद्ध फिर वातावरण गरम हो गया। फ्राँस की पार्लियामेण्ट ने उनकी पुस्तकें सरेआम जला डालने का आदेश दिया। उन्हें फिर देश छोड़कर भागना पड़ा। सन् 1750 में जर्मन सम्राट फ्रैडरिक ने उन्हें आमन्त्रण दिया पर वहाँ भी वे राजा की आलोचना करने लगे इस पर उन्हें जर्मनी भी छोड़ना पड़ा। स्विट्जरलैंड जाकर वे खेती करने लगे और वहाँ भी कई महत्त्वपूर्ण पुस्तकें लिखी जिनके कारण वहाँ भी उनका तीव्र विरोध होने लगा और तरह-तरह से उन्हें सताया गया। अर्धमृतक अवस्था में उनकी इच्छा अपनी जन्मभूमि देखने और वहीं मरने की हुई तो पेरिस में उनकी लाश का संस्कार कराने तक को कोई पादरी तैयार न हुआ।

जीवन के आदि से लेकर अन्त तक उसे अनगिनत आपत्तियों का सामना करना पड़ा। पर उसने वह सब कुछ हँसते-हँसते सहन किया। उसे अनेकों बार बड़े-बड़े प्रलोभन दिये गये कि अपना विरोध कार्य बन्द कर दे पर वह उससे भी विचलित न हुआ। उनकी लेखनी में व्यंग और कटाक्ष भरा रहता था। नीत्से ने उन्हें हँसता हुआ सिंह कहा है। उनका हँसना इस युग के अनाचारों के लिए एक साँघातिक वज्र प्रहार के समान था। उनकी लेखनी ने न केवल धार्मिक वरन् राजनैतिक और आर्थिक क्रान्ति के लिए भूमि तैयार की जिसके फलस्वरूप निहित स्वार्थों का आसन ही डगमगा गया और फ्राँस ही नहीं सारे योरोप की जनता में स्वतंत्र विचारों की एक महिमापूर्ण शक्ति का उदय हुआ।

विक्टर ह्यूगो ने लिखा है-वालटेयर का नाम लेते ही अठारहवीं सदी में जो कुछ श्रेष्ठता है वह मूर्तिमान् होकर हमारी आँखों के सामने आ खड़ी होती है। जान्स वेले ने लिखा है-भगवान ने उन्हें एक बौद्धिक चिकित्सक के रूप में भेजा जो क्षतिग्रस्त और गलित स्थिति में पड़े हुए युग की जीवन भर चिकित्सा करते रहे। वे एक अथक सैनिक थे जो अनवरत रूप से बुराइयों के विरुद्ध लड़ते रहे। मानसिक दासता और आदर्शों की दुर्बलता को मिटाने के लिए वे एक साहित्यिक विद्रोही के रूप में डडडड हुए और इस संग्राम में जूझते हुए ही उन्होंने वीर गति प्राप्त की। वे मानव मन को अन्ध-विश्वासों और कुसंस्कारों से विरत करना चाहते थे, जो उन्होंने चाहा उसके लिए असीम बलिदान और असाधारण त्याग और अथक श्रम किया।

वालटेयर घोर परिश्रमी थे। उन्होंने अपने जीवन का एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाने दिया। वे कहा करते थे-आलसी को छोड़कर दुनियाँ के और सब लोग अच्छे हैं। कुछ काम न करना और मृतक होना एक ही बात है। मेरी आयु ज्यों-ज्यों बढ़ती जा रही है त्यों-त्यों जीवन के शेष थोड़े से क्षणों का और भी अधिक सदुपयोग करने का मैं प्रयत्न करता हूँ। कर्मनिष्ठा का अभ्यास होने पर वह स्वयं एक आनन्द बन जाती है। जो आत्म-हत्या नहीं करना चाहता उसके लिए यही उचित है कि निरन्तर कार्य संलग्न रहे। उन्होंने अपने इन आदर्शों को कार्य रूप में परिणत किया फलस्वरूप वे मानव-जीवन का वास्तविक लाभ प्राप्त कर सके।

मरते समय उन्होंने कहा-मैं ईश्वर की उपासना करते हुए, मित्रों से प्रेम करते हुए, शत्रुता रखने वालों के प्रति किसी प्रकार की घृणा न करते हुए, अन्ध-विश्वासों को घृणित समझते हुए शान्ति और सन्तोष के साथ मृत्यु का वर्णन करता हूँ।

सभी महापुरुषों की भाँति वालटेयर का महत्व उसके जीवनकाल में नहीं समझा गया। लोग उसका विरोध और तिरस्कार ही करते रहें। पर एक समय ऐसा भी आया जब उसका महत्व स्वीकार किया गया। फ्राँस की राज्य क्राँति जब हो गई तो क्रान्तिकारी दल ने वालटेयर की मरी मिट्टी को 13 वर्ष बाद कब्र में से निकाला और एक विराट जुलूस के रूप में उसे राजसी सम्मान के साथ नगर में घुमाया गया। उसकी शव यात्रा में 6लाख नर-नारी सम्मिलित थे। उनकी अर्थी पर मोटे अक्षरों में लिखा हुआ था-वह वालटेयर जिसने-हमारे मन को बड़ा बल और साहस प्रदान किया, जिसने हमें स्वाधीनता संग्राम के लिए उकसाया।”


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