सुखों की ही भाँति दुःख को भी सहन कीजिए

December 1961

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सुखों के समान दुःख भी जीवन में आते ही हैं। दुःखों से सर्वथा रहित होना किसी के लिए भी संभव नहीं। सुख के उपभोग के लिए मन पहले से ही तैयार रहता है। कोई सुख मिले, सफलता प्राप्त हो, लाभ हो, यश और वैभव बढ़े तो इन सम्पदाओं को स्वीकार करने में किसी को कोई अड़चन नहीं होती। जब भी जिस समय भी यह मिलें उसी समय इन्हें प्रसन्नतापूर्वक शिरोधार्य कर लिया जाता है। पर यह बात दुःख के संबंध में नहीं होती। दुःख की बात सुनते ही घबराहट होती है, डर लगता है, कष्ट होता है और वैसा अप्रिय अवसर सामने आते ही मानसिक सन्तुलन बिगड़ने लगता है। कई बार तो यह हड़बड़ी इतनी अधिक होती है कि विचार शक्ति ही कुंठित हो जाती है। क्या करें-क्या न करें यह सूझ नहीं पड़ता। ऐसी स्थिति में कई बार मनुष्य ऐसे निर्णय या काम कर बैठता है जो आपत्ति को और भी बढ़ा देते हैं तथा जिनके लिए पीछे बहुत पश्चाताप करना पड़ता है।

इसलिए मनोभूमि की स्वस्थता इसी में मानी गई है कि मनुष्य दुःखों के लिए भी वैसे ही कटि-बद्ध रहे जैसे सुखों के लिए तैयार रहता है। इसका अर्थ यह नहीं कि जानबूझ कर दुःखों को बुलाया जाय, या उन्हें हटाने का प्रयत्न न किया जाए। ऐसा तो करना ही होता है। यह मनुष्य का स्वभाव है, इसके लिए किसी शिक्षा की जरूरत नहीं है। आपत्ति से बचने और दुखों का हटाने के लिए कीट पतंग तक प्रयत्न करते हैं फिर मनुष्य का तो कहना ही क्या है? वह पूरी चतुरता के साथ इस दिशा में काम करता ही है और अपनी बुद्धिमत्ता से अनेकों आपत्तियों को हटा भी लेता है। इतना होते हुए भी यह किसी के लिए भी संभव नहीं है कि वह पूर्णरूप से दुःखों से बचा रहे। लाख प्रयत्न करने पर भी उसके प्रयत्नों में अपूर्णता रहेगी ही, क्योंकि व्यक्ति अपूर्ण है। इस अपूर्णता के कारण दुखों को हटाने का प्रयत्न भी पूर्णतया सफल न होगा, उसमें कहीं न कहीं त्रुटि रह ही जायेगी और अभावों एवं कष्टों का किसी न किसी मात्रा में सामना करना ही पड़ेगा।

पूर्व संचित प्रारब्ध कर्मों का फल, तथा मानव-जाति के सामूहिक उत्तरदायित्व के कारण भी ऐसी आकस्मिक आपत्तियाँ सामने आती रहती हैं जिनको नियंत्रित कर सकना मनुष्य के काबू से बाहर होता है। भूकम्प, दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, महामारी, युद्ध, तूफान, ड़ड़ड़ड़, आततायियों का आक्रमण, अग्निकाण्ड, चोरी, बीमारी, विश्वासघात, मृत्यु, बिछोह, घाटा, दुर्घटना आदि अनेकों कारण ऐसे हो सकते हैं जिनसे आकस्मिक आघात लगे और व्यक्ति पूरी बुद्धिमानी के साथ अपनी सुरक्षा का प्रयत्न करते हुए भी आपत्ति को न टाल सके और संकटग्रस्त स्थिति में पड़ जाय। ऐसी दशा में यदि उसने अपनी मनोभूमि को पहले ही दुःखों से लड़ने, उन्हें सहन करने तथा सन्तुलन बिगड़ने न देने का अभ्यास नहीं किया हुआ हो तो कठिनाई के समय उसे बहुत परेशानी होगी।

सुख के दिनों प्रसन्न और दुःख के दिनों में अप्रसन्न रहने से जीवन का आनन्द और उद्देश्य ही नष्ट हो जाता है। आज सुखी कल दुखी यह भी कोई जिन्दगी है? परिस्थितियों के हाथ में अपनी प्रसन्नता बिकती रहे, कठपुतली की तरह परिस्थितियों से विवश होकर हँसना या रोना पड़े यह ऐसी स्थिति नहीं है जिस पर कोई मनुष्य गर्व कर सके। भगवान ने हमें ऐसा पराधीन बना कर नहीं भेजा है कि संसार की स्थितियाँ ही हमारे आनन्द की स्वामिनी बनी बैठी रहें और वे जब चाहें तब हँसा या रुलाया करें। आत्मा अपने आनन्द का स्वयं स्वामी है। इसके लिए उसे किसी पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है। उसे वह प्रतिभा योग्यता एवं कला उपलब्ध है, जिसके आधार पर मनुष्य चाहे तो दुखों की स्थिति में भी उसी प्रसन्नता पूर्वक अपना जीवन क्रम चलाता रह सकता है, जैसा कि वह सुख के समय चलाता है।

ऐसे अनेक लोग हैं जो उन परिस्थितियों में पड़े हुए मजे में अपना जीवन क्रम चला रहे हैं, जिन्हें देखते ही एक कमजोर तबियत का आदमी घबराने और काँपने लगता है। एक व्यक्ति लखपति है उसे व्यापार में बहुत घाटा हुआ। उसकी अधिकांश पूँजी चली गई। अब सिर्फ उसके पास एक रहने का मकान, स्त्रियों के आभूषण, थोड़ा-सा धनमान शेष रह गया। वह अपनी पूर्व स्थिति से इस स्थिति की तुलना करता है तो उसे अपार दुःख होता है। नींद नहीं आती, अपने दुर्भाग्य को दिन रात कोसता है और भविष्य को अन्धकारमय देखकर निराशा के गर्त में डूबा रहता है। पर यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो अभी भी जो कुछ उसके पास बचा है वह कम नहीं है। रहने को घर का मकान है स्त्रियों के आभूषण तथा जो थोड़ा-सा धन है उसे मिलाकर छोटा कारोबार अभी भी चल सकता है। दो जवान लड़के हैं वे व्यापार करना जानते हैं। अपना भी अनुभव काफी है, इस सब के बल पर वह आज भी भूखा नहीं मर सकता और परिश्रम करके कुछ ही दिनों में अपनी स्थिति को पुनः सुधार सकता है। उसकी जो स्थिति आज है उसके लिए भी असंख्य लोग तरसते हैं। संसार में ऐसे असंख्यों मनुष्य भरे पड़े हैं जिनको रोज कमाना और रोज खाने का क्रम चलाना पड़ता है। जिनके पास पूँजी के नाम पर कुछ भी नहीं, शरीर के द्वारा मजदूरी करके गुजर चलाने के अतिरिक्त उनके पास और कोई उन्नति का साधन भी नहीं हैं। इतने पर भी हँसते खेलते अपनी जिन्दगी के दिन व्यतीत करते हैं। उनकी तुलना में वह घाटा उठाने वाला लखपति व्यक्ति आज भी काफी अच्छी स्थिति में है फिर उसे इतना निराश एवं दुखी क्यों होना चाहिए?

एक व्यक्ति शरीर से कमजोर है और दुर्बलता से दुखी रहता है। पर ऐसे भी अनेकों व्यक्ति हैं जिन्हें कई बीमारियाँ सताती रहती हैं फिर भी वे शान्तिपूर्वक दिन काटते हैं। एक व्यक्ति का एक पुत्र मर गया सिर्फ दो ही और बच्चे उसके पास हैं। वह बहुत शोक करता है। पर ऐसे भी कई लोग हैं जिनके इकलौते बेटे चले गये या एक भी बालक का सुख नहीं देखा। इस प्रकार यदि दृष्टि पसार कर देखा जाये तो ऐसे अनगिनत उदाहरण मिल सकते हैं जिनमें अपने से बहुत ही गिरी और विचित्र परिस्थिति में पड़े हुए व्यक्ति भी अपने दिन हँसी खुशी से काट रहे हैं। फिर उनसे कहीं अच्छी स्थिति में रहते हुए भी हम दुखी हैं तो इसका कारण वे साँसारिक परिस्थितियाँ नहीं वरन् अपनी आन्तरिक दुर्बलता ही है जिसके कारण हम काम चलाऊ स्थिति में होते हुए भी अपने को विपत्तिग्रस्त मान बैठे हैं।

निःसंदेह इस संसार में कष्ट बहुत हैं। उनके आने से मनुष्य अप्रसन्न भी होता है। पर उन कष्टों का प्रभाव इतना तीव्र नहीं है जितना कि दुर्बल मनोभूमि के लोग अनुभव करते हैं। ऐसा कोई कष्ट इस धरती पर नहीं है जिसे धैर्यवान् व्यक्ति बिना दुःख मनाये सहन न कर सके। लोगों ने मृत्यु को हँसते-हँसते आलिंगन किया है। फाँसी के तख्त पर गीत गाते हुए झूले हैं, गोलियों और किन्हीं से अपने सीने छिदवाये हैं, तेल के खौलते कढ़ाई में कूदें हैं, अपने बच्चों को दीवार में अपनी आँखों के आगे चुने जाते देखा है। और भी न जाने कितनी-कितनी विकट वेदनाएँ लोगों ने धैर्य और साहस के साथ हँसते-हँसते सही हैं। फिर यदि छोटे-मोटे कारण आने पर, जिनमें कोई प्राण संकट जैसा खतरा भी नहीं है घबराहट होती है, मानसिक संतुलन बिगड़ता है तो इसे मन की दुर्बलता ही कहा जायेगा।

दुखों को जीवन से सर्वथा हटाया जा सकना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं। हाँ समझदारी और सद्गुणों के द्वारा उन्हें कम किया जा सकता है फिर भी वे किसी न किसी रूप में है कि उस पर दुखों का प्रभाव न पड़े तो जीवन निरानन्द पूर्ण ही रहेगा और आये दिन कोई न कोई व्यथा वेदना सताती रहेगी। इसलिए विज्ञजनों ने यही उपयुक्त समझा है कि मनोभूमि को ऐसी बना लिया जाय, जिस पर विपरीत परिस्थितियों के आघातों का कुछ विशेष प्रभाव न पड़े। इस प्रक्रिया का नाम है-तितिक्षा

कष्ट सहिष्णुता का नाम ‘तितिक्षा’ है। दुखों से डरने की अपेक्षा यदि हम उन्हें अपना सहचर बनायें तो वह डर आसानी से निकल जायेगा जिसके कारण हम बहुधा व्यथित हो जाते हैं। योग साधन एवं तपस्या में ऐसे नियम पालन करने पड़ते हैं, ऐसे व्रत लेने पड़ते हैं जिनमें शरीर तथा मन को कष्ट सहना पड़े। शरीर और मन स्वभावतः सुविधाजनक स्थिति में रहना, आराम के साधनों के साथ रहना चाहते हैं, इसके विपरीत जब कष्ट साध्य जीवन-यापन करना पड़ता है तो असुविधा एवं अप्रसन्नता अनुभव होती है। यही वह कमजोरी है जिसे यदि निकाल दिया जाये तो आये दिन सामने आते रहने वाले दुखों का कष्ट सहज ही समाप्त हो सकता है। अध्यात्म साधनाओं में तितिक्षा का महत्व इसीलिए रखा गया है।


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