गाँधी का स्वराज्य स्वप्न-न जाने कब पूरा होगा?

December 1961

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(गाँधी विचार दोहन’ से)

-रामराज्य स्वराज्य का आदर्श है। इसका अर्थ है-धर्म का राज्य, अथवा न्याय और प्रेम का राज्य अथवा अहिंसक स्वराज्य या जनता का स्वराज्य।

-रामराज्य में एक ओर अथाह सम्पत्ति और दूसरी ओर करुणाजनक फाकेकशी नहीं हो सकती। उसमें कोई भूखा मरने वाला नहीं हो सकता। उस राज्य का आधार पशुबल न होगा। बल्कि वह लोगों के प्रेम और समझ बूझकर और बिना डर दिये हुए सहयोग पर अवलम्बित रहेगा।

-रामराज्य में लोग केवल लिख पढ़ सकने वाले ही न होंगे बल्कि सच्चे होंगे, अर्थात् उन्हें ऐसी शिक्षा मिलनी चाहिये जो मुक्ति देने वाली और मुक्ति में स्थिर रखने वाली हो।

-हिन्दुओं की धार्मिक दृष्टि के सन्तोष ही नहीं, हिन्दुस्तान की आर्थिक दृष्टि से भी गो वध की मनाही होनी चाहिए।

-माँसाहार की मनुष्य को कोई आवश्यकता नहीं है। यह माने का कोई कारण नहीं है कि माँसाहार न करने वाली जनता शरीर से काफी सशक्त, निरोग और बहादुर नहीं हो सकती।

-’सा विद्या या विमुक्तये’ जो मुक्ति के योग्य बनाये वह विद्या, बाकी सब अविद्या है। अतः जो चित्त की शुद्धि न करे, मन और इन्द्रियों को वश में रखना न सिखाये, निर्भयता और स्वावलम्बन पैदा न करे, निर्वाह का साधन न बताये और गुलामी से छूटकर आजाद रहने का हौंसला एवं सामर्थ्य न उपजाये उस शिक्षा में चाहे जितनी जानकारी का खजाना, तार्किक कुशलता और भाषा पाण्डित्य मौजूद हो, व शिक्षा नहीं है या अधूरी शिक्षा।

-धार्मिक शिक्षा से रहित शिक्षा, शिक्षा नाम की अधिकारिणी ही नहीं समझी जा सकती। प्रत्येक बालक को जिस धर्म में वह जन्मा हो उस धर्म के मुख्य ग्रन्थों, महापुरुषों और सन्तों तथा उस धर्म के मन्तव्य का श्रद्धा पूर्वक ज्ञान करा देना चाहिए।

-उच्च से उच्च शिक्षा तक के लिए स्वभाषा ही शिक्षा का माध्यम होनी चाहिए। अंग्रेजी जैसी अति विजातीय भाषा की शिक्षा का माध्यम बना देने से शिक्षा के लिए किया गया और किया जाने वाला बहुतेरा श्रम व्यर्थ गया और जा रहा है। अंग्रेजी ज्ञान के बिना उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं की जा सकती यह मान्यता दयनीय और लज्जाजनक है।

-छात्रावास को सादगी मितव्ययिता और संस्कार का नमूना होना चाहिए। छात्रावास में जाकर विद्यार्थी अधिक छल छबीला; खर्चीला और उच्छृंखल हो जाय तो कहना चाहिए कि वह छात्रावास सफल नहीं हो रहा है।

-शिक्षा का बहुत खर्चीला हो जाना यह बताता है कि शिक्षा की दिशा गलत है।

-रामराज्य के विधान में जिसे मुख्य अधिकारी की जगह मिली हो वह प्रजा के प्रेम से वहाँ टिकेगा और उसके कल्याण के लिए ही प्रयत्न करता रहेगा। वह जनता के धन पर गुलछर्रे नहीं उड़ायेंगे और अधिकार बल से लोगों को सताएगा नहीं किन्तु राजा का ‘तत्सदृश्य’ कहलाते हुए भी फकीर के मानिंद रहेगा।

-संगीत, कथा-वार्ता चित्रकला, नृत्य, नाटक सिनेमा और ललित कलाएँ यदि उचित सीमा में रहे तो वे जन-समाज में निर्दोष मनोरंजन, ज्ञान प्राप्ति तथा भावना विकास के साधन हो सकती है। मर्यादा के बाहर चली जाय तो शराब अफीम जैसे हानिकारक व्यसन बन जाती है। ऐसी कलाओं का शौक अमर्यादित अनीति की ओर ले जाने वाला तथा हानिकारक न हो जाय इसके लिए ऐसे प्रदर्शनों और जलसों पर नियंत्रण और देख-रेख रहनी चाहिए।

विगत 22 वर्ष का अखण्ड-ज्योति का जीवन बहुत ही संतोषजनक एवं शानदार रहा है। जिस मिशन को लेकर यह संस्था जन्मी थी उसी पूर्ति में इतने स्वल्प समय में इतनी अधिक सफलता मिलेगी ऐसी आशा नहीं थी। आज अगणित पत्र पत्रिकाएँ और पुस्तकें छपती रहती है, उन्हें लोग खरीदते बेचते भी हैं; उनमें से कितने में धर्म, ईश्वर, सदाचार आदि की बातें भी रहती हैं पर उसका कोई विशेष प्रभाव पाठकों पर नहीं पड़ता। ‘अखण्ड ज्योति’ का इतिहास इससे सर्वथा भिन्न है, उसके लाखों आदमियों के विचारों में क्राँति उपस्थित की है, अगणितों की जीवन-दशा को मोड़ा है और सहस्रों ऐसे है जिनका आन्तरिक कायाकल्प ही हो गया हैं इस भू पर सस्वर अवतरित करने की साध को लेकर ‘अखण्ड ज्योति’ जन्मी थी। वह साध सर्वथा निष्फल नहीं हुई। अपने परिवार के असंख्य व्यक्ति यह अनुभव करते हे कि स्वर्ग कोई कल्पना नहीं वरन् तथ्य है और वह दूर नहीं वरन् हमारे पास मौजूद है, जिसके आनन्द का अनुभव हम हर घड़ी करते रहते है। अखण्ड ज्योति अपने मिशन को एक सीमा तक सार्थक हुआ देख कर अपने विगत 22 वर्ष के जीवन पर सन्तोष एवं गर्व अनुभव करती है।

हम अव तक लोगों के मस्तिष्कों में दिव्य विचारधारा प्रभावित करने की चेष्टा करते रहे है। धर्मप्रचार हमारा प्रधान कार्यक्रम रहा है। ‘अखण्ड ज्योति में भी इसी प्रकार की पाठ्य सामग्री छपती रहती हैं ‘अखण्ड ज्योति’ के माध्यम ओर अपने व्यक्तिगत प्रयत्नों से हम परिजनों की आन्तरिक महत् को विकसित करने का प्रयत्न करते रहे है। फलस्वरूप एक विशाल जनसमूह आत्मकल्याण और युगनिर्माण के महान् लक्ष्य को पूरा करने के लिए सुस्थिर और सुव्यवस्थित रीति से आगे बढ़ता चला जा रहा है। सभी सद्ग्रन्थों की भाँति हम भी अपने विशाल परिवार के परिजनों के प्रति उनकी प्रत्यक्ष सेवा सहायता करने का उत्तरदायित्व पूरा करने में भी संलग्न रहे है। सभी पिता-माता अपने बच्चों को सुखी समृद्ध और सन्तुष्ट बनाने के लिए अपनी शक्ति भर चेष्टा करता है। हमारे पास कुछ तप-साधना की पूँजी रही है तो उससे स्वजनों की सुख शान्ति बढ़ाने के लिए कुछ उठा नहीं रखा है। रोते हुए बच्चों को हँसने के उपकरण प्रस्तुत करते हुए किसी भी माता-पिता को जिस प्रकार सन्तोष होता है उसी प्रकार अखण्ड-ज्योति की आत्मा भी आज अपने प्रयत्नों पर प्रसन्नता अनुभव करती है।

अज्ञातवास से लौटने के बाद हम हमारे कार्यक्रम का दूसरा अध्याय शुरू होता है साथ ही अखण्ड-ज्योति का भी। हमारी प्रत्यक्ष गति विधि अब दस वर्ष तक सीमित है। इस अवधि में हम यह प्रयत्न करेंगे कि जागृत आत्माओं को अपना निज का प्राण बल देकर उनके आन्तरिक स्तर को ऊँचा-अधिक ऊँचा-बहुत ऊँचा-उठाने की चेष्टा करें। जिन लोगों में अपनी निजी आत्मिक निष्ठा पहले से ही मौजूद है उन्हें यदि बाहर से थोड़ी-सी भी सहायता मिल जाय तो उतने से ही उन्हें बहुत कुछ लाभ मिल जाता है। डूबते को तिनके का सहारा बहुत होता है। पौधे को बाहर से थोड़ा-सा खाद पानी मिलता रहे तो उतने से ही उसके विकास की समस्या हल हो सकती है। हम अपने आपको खाद पानी के रूप में अगणित निष्ठावान् पौधों में घुला देना चाहते है। इसके बाद हम भले ही न रहें पर हमारी संचित पूँजी अगणित स्वजनों के जीवन में हरियाली बनकर फूटे तो यह एक अच्छी परिणित होगी। अपने इस ढलते और गलते हुए जीवन को स्वजनों के जीवन में नवीन उल्लास के साथ उपजता, लहराता और फला-फूला देखते हुए जाने की इच्छा शेष है, सो उसी के लिये अज्ञातवास से लौटते ही प्रयत्न आरम्भ कर दिया है।

गत अक्टूबर अंक में दस वर्षीय पंच सूत्री कार्यक्रम छपा है। यह पहले वर्ष का कार्यक्रम है। अगले 9 वर्षों में भी इसी प्रकार आगे के पाठ्य-क्रम प्रस्तुत होते रहेंगे। पर इतने मात्र से ही यह आशा नहीं की जा सकती कि उन्हें पढ़कर ही आत्मोत्थान का महान् लक्ष्य आसानी से प्राप्त किया जा सकेगा। इस मार्ग पर चलने वाले, इस कार्यक्रम को अपनाने वाले प्रत्येक सहचर को व्यक्तिगत रूप से उतनी सामर्थ्य और अन्तः प्रेरणा देने का हम प्रयत्न करेंगे जिससे उसका मार्ग अवरुद्ध न होने पाये, प्रगति कठिन न होने पावे। इसके बाद जब हमारा वर्तमान कार्यक्रम पूर्ण हो तब शीश महल के दर्पणों में अपने ही असंख्य चेहरे देखकर प्रसन्नता करने वाले दर्शक की तरह हमें भी अनेक अपने आत्म-स्वरूप पीछे छोड़ जाने की आकांक्षा है। एक दीपक बुझने से पूर्व यदि हजारों दीपक जलाता जाय तो बुझना भी सार्थक ही होगा।

पंचसूत्री साधना को अखण्ड-ज्योति के अगणित पाठकों ने अपनाया है। पर हमें इतने से ही सन्तोष नहीं है। उसे प्रत्येक पाठक अपनाये, एक भी ऐसा न बचे जो उसकी उपेक्षा करे, तब हमें सन्तोष होगा। अनेक जन्मों में प्रयत्नों से हम सब आज इस स्तर पर पहुँच सके है कि आध्यात्मिकता के रुके विषयों में रुचि लें और उस दिशा में अभिमुख हों। अरबों नर तन धारियों में से इस स्थिति तक पहुँचने का सुअवसर कितनी स्वल्प आत्माओं को मिलता है? आज हमें जो सुअवसर मिला हुआ है उसे आलस में क्यों गँवाया जाय? यह साधन-क्रम अति सरल हैं। यह पाठ्य-क्रम उन लोगों को दृष्टि में रखकर बनाया गया है जो गृहस्थ के उत्तरदायित्वों को पूर्ण करते हुए, अपनी आजीविका स्वयं कमाते हुए जीवनयापन करेंगे और नियमित साधना में दो घण्टे से अधिक समय न लगा सकेंगे। आगामी दश वर्षों में इस बात का ध्यान रखकर ही पाठ्यक्रम बनेंगे और उन्हें निबाहना हर गृहस्थ के लिये सुगम ही होगा। गृह त्यागी योगी यती अपनी एकान्त साधना में जो ऋद्धि-सिद्ध प्राप्त कर लेता है वे इस पंच-सूची साधना क्रम में संलग्न गृहस्थों को भले ही न मिल सकें पर आत्मकल्याण के लक्ष्य को वे भी उसी प्रकार प्राप्त कर सकेंगे जिस प्रकार त्यागी और बैरागी प्राप्त करते है।

इस वर्ष में पंच सूत्री साधना में (1) रविवार को अस्वाद व्रत (2) मनन और चिन्तन के साथ नित्य स्वाध्याय (3)प्राणाकर्षण प्राणायाम (4) सोकर उठते ही अपने उपकारियों का मानसिक अभिवन्दन, पृथ्वी पर पैर धरते ही धरती माता को प्रणाम, माता, पिता, पति, गुरुजनों के चरणस्पर्श, उनके अभाव में चरणों की प्रतिमूर्ति को नमन एवं रात को सोते समय दिन भर के उपकारियों का स्मरण (5) जप के साथ अपने को एक वर्ष के बालक के रूप में मानते हुए माता की गोदी में खेलने एवं उसका स्तन पान का ध्यान यह सब कार्य न तो अधिक समय साध्य है ओर न श्रमसाध्य। थोड़ी सी इच्छा, श्रद्धा और निष्ठा हो तो इनके लिए अवकाश भी हर किसी से सकते है। गायत्री, उपासना जिनकी अब तक बिलकुल नहीं चलती, वे इस आधार पर थोड़ी-सी से ही आरम्भ कर सकते है। जिनकी चलती है वे ध्यान के द्वारा उसे और परि-पुष्ट कर सकते है।

ऐसा भी हो सकता हे कि जिन्हें इतना अवकाश न हो, इनमें से कुछ कम नियमों को-दो या तीन या चार को अपना सकते है। पर वह भी होना निष्ठापूर्वक ही चाहिये। बीच में छोड़ देने, आलस्य दिखाने से काम नहीं चलेगा। आध्यात्मिक हो या भौतिक किसी की महान् कार्य की सफलता के लिए दृढ़ संकल्प बल तो चाहिये ही। शक्ति संचार का लाभ भी इस मार्ग पर चलने वाले ही उठा सकते है। रविवार को सूर्योदय से एक घण्टा पूर्व उठकर पंचसूत्री उपासना में संलग्न साधक यदि उस योजना के अंतर्गत शक्ति ग्रहण करने लगे तो उन्हें अपने भीतर एक नया तंतु प्रवेश करता हुआ अनुभव हो सकता हैं इस माध्यम से उन्हें हमारा व्यक्तिगत प्रतिदान उसी तरह प्राप्त हो सकता है जैसे पास बैठे हुए दो व्यक्ति आपस में कुछ आदान प्रदान कर सकते है। इस प्रकार हम लोगों के बीच शरीरों की दूरी रहते हुए भी वस्तुतः अत्यन्त समीपता और एकता की स्थिति बनी रहेगी। इस शक्ति संचार साधना का विधान सब के लिए नहीं है, उसकी उपयोगिता केवल संलग्न साधकों के लिए ही है। इसलिए उसका विधान उन्हें ही बता दिया जाता है जो उसकी आकांक्षा व्यक्त करते है।

परिजनों की दशवर्षीय योजना अक्टूबर अंक में मौजूद है। हमारी दशवर्षीय योजना उन नैष्ठिक व्यक्तियों को अपनी प्राण शक्ति देकर प्राणवान बना देने की है जिनमें दृढ़ता और श्रद्धा समुचित मात्रा में मौजूद है। आत्म-कल्याण के लक्ष की अपेक्षा जिन्हें भौतिक स्वार्थ की ही चिन्ता है वे देर तक गहरे मन से इस कार्यक्रम को न अपना सकेंगे। उनकी मंजिल रास्ते में ही छूटेगी, फिर भी उन्हें ‘न कुछ’ की अपेक्षा ‘कुछ’ तो लाभ होगा ही। इस लिए हमारी आकांक्षा है कि अखण्ड-ज्योति के परिजन पूरी या अधूरी इस दशवर्षीय साधना को किसी-न-किसी रूप में अपनावें और अपनी आध्यात्मिक सेवा करने का जीवन के इस अन्तिम अध्याय में हमें एक और अवसर प्रदान करें।

यह प्रश्न हो सकता है कि क्या धर्म प्रचार का कार्य अब बन्द किया जा रहा है और हमारा कार्य क्या चन्द साधकों को साधनात्मक प्रेरणा देने तक ही सीमित हो जायेगा? नहीं, बात ऐसी नहीं है। चारों का महत्व कभी कम नहीं माना जा सकता। आत्म-निर्माण के लिए, युग-निर्माण के लिए, सद्विचारों का अधिकाधिक प्रसार होना अत्यन्त आवश्यक है। कुविचारों के विस्तार ने आज मानव प्राणी को कुकर्म करने के लिए-कुमार्ग पर चलने के लिए विवश कर दिया है और मानव सभ्यता को सर्वनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। इस स्थिति में परिवर्तन का एकमात्र उपाय है सद्विचारों का विस्तार। अविद्या का अन्धकार केवल सद्ज्ञान के प्रकाश से ही दूर होगा। कुमार्ग पर भटकने वाला मानव आत्मज्ञान के प्रकाश में ही अपना सच्चा पथ प्राप्त कर सकेगा। कुविचार फैलाने वाले साधन कितने अधिक है। सिनेमा, साहित्य, गीत-वाद्य सभी तो प्रत्यक्ष ओर परोक्ष रूप से अनीति मूलक प्रेरणा के देने में व्यस्त है। कुकर्मी मनुष्य अपने आचरण से भी कुकर्मों का शिक्षण जन-साधारण को करते है, कहने की अपेक्षा कर दिखाने का और भी अधिक असर होता है। चोर जुआरी, व्यसनी, बेईमान, व्यभिचारी अपनी वाणी से ही नहीं क्रियाओं से भी दूसरों को प्रभावित करते अपना अनुयायी बनाने में लगे हुए है। फलस्वरूप कुविचारों का कुकर्मों का दौर बढ़ता जाता है। उसका प्रतिरोध सज्जनों द्वारा सद्विचारों एवं सत्कर्मों के प्रचार करने के अतिरिक्त भला ओर किस प्रकार हो सकता है?

सृष्टि के आदि काल से लेकर अब तक प्रत्येक युग-दृष्टा ने यह प्रयत्न किया है कि सद्विचारों के विस्तार के लिए अधिकाधिक साधन जुटें अधिकाधिक प्रयत्न हो। फिर उस महान् कार्य का अखण्ड-ज्योति कैसे बन्द कर देगी? वह तो चलना ही चाहिए। वरन् अष्टग्रही योग के प्रभाव से आगामी दश वर्षं तक जो अवांछनीय स्थिति रहने वाली है उसमें समाधान के लिए तो यह कार्य और भी अधिक तीव्र गति से होना चाहिए। उस कार्य को परिवार के अन्य सब सज्जन करेंगे। हमने दूसरा अधिक महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व कंधों पर लिया है, इसका अर्थ यह नहीं कि जो हम अब तक करते रहे हैं वह बन्द हो जाय। वरन यह है कि उस भार को हमारे स्वजन अपने कंधों पर उठावें, जिनकी अधिक ठोस सेवा करने के लिए हमने अपने स्थूल ही नहीं, सूक्ष्म को भी पूरी तरह खपा देने का निश्चय किया है। यदि वे अपना उत्तर दायित्व अनुभव न करें, युग निर्माण के लिए आरम्भ किए हुए ज्ञान यज्ञ का अपनी निष्क्रियता के कारण दुःखद अन्त अभी ही हो जाने दे तो उनके लिए शोभा की नहीं शर्म की ही बात हो सकती है।

सद्ज्ञान प्रसार के लिए कोई बड़ी योजना आज अपने सामने नहीं है, पर इतना भी क्या कम है कि अखण्ड-ज्योति के पृष्ठों पर जो हम अपनी आत्मा को निचोड़ कर रखते हैं उस दर्द को अधिक लोगों के सीने में चुभाने के लिए कुछ प्रयत्न किया जाय। अखंड-ज्योति जिनके पास पहुँचती है वे उसे सरसरी नजर से न पढ़कर गम्भीरतापूर्वक स्वाध्याय की दृष्टि से मनन और चिन्तन के साथ पढ़ा करें तो उनकी आत्मा से हमारी आत्मा का स्पर्श होने लगे। इसका और भी विस्तार इस प्रकार हो सकता है कि अखंड-ज्योति के पाठक पत्रिका में प्रस्तुत विचारों को, कथाओं, प्रसंगों, दृष्टान्तों उदाहरणों को अपने घर तथा बाहर के लोगों को स्वयं सुनाया करें, अपनी पत्रिका कई-कई व्यक्तियों को पढ़ने देने स्वयं जाया करें, उनसे प्रस्तुत लेखों के संबन्ध में चर्चा किया करें। छपे हुए कागज के टुकड़े युग निर्माण नहीं कर सकते। अखंड-ज्योति में हम कुछ भी क्यों न लिखते रहें उसका प्रभाव और विस्तार तब तक नहीं हो सकता जब तक कि आप स्वजनों का त्यक्त्वा मिलकर ही गायन और वाद का जोड़ा बन सकता है। बिना बाजे के गाना और बिना गाने का बाजा अपूर्ण रह जाता है, इसी प्रकार हमारे विचारों का समुचित प्रभाव तभी हो सकता है जब उनके प्रसार में आपका व्यक्तिगत उत्साह, उल्लास एवं श्रम सम्मिलित हो।

युग निर्माण की इस पुण्य वेला में हम और आप मिलकर अपना कर्तव्य पालन करें इसी में शुभ है, इसी में श्रेय है, प्रभु की इच्छा भी ऐसी दीखती है। आत्म-निर्माण की महान प्रक्रिया की और हमें अब बिना आलस के संलग्न होना चाहिए दश वर्षीय साधना क्रम को पूरे या अधूरे रूप में अपना कर हमें आत्मिक प्रगति की ओर सक्रिय कदम बढ़ाना ही चाहिए। जितना आत्मबल बढ़ेगा उतनी ही आन्तरिक शान्ति बढ़ेगी और जन सेवा की शक्ति भी उतनी ही बढ़ेगी । साथ लोक सेवा को भी उपेक्षा नहीं करनी है। केवल भजन या आत्म-निर्माण तक ही सीमित हो जाने और अपने चारों ओर से आँख बन्द कर लेने से काम नहीं चल सकता। सबको साथ लेकर ही सच्ची प्रगति संभव है। चारों ओर नरक फैला रहे तो एक घर में स्वर्ग कब तक ठहरेगी ? इसलिए सद्विचारों का, सद्भावनाओं का अधिकाधिक विस्तार करने का ज्ञान-यज्ञ भी हमें प्रज्वलित रखना ही है। जप के साथ हवन आवश्यक है। इसी प्रकार आत्म- कल्याण के साथ युग-निर्माण की प्रक्रिया का चलना भी अनिवार्य है।

हममें से प्रत्येक को अपने आस-पास क्षेत्र में धर्म प्रचार का एक क्षेत्र विनिर्मित करना है। कम से कम पाँच आदमी ऐसे ढूँढ़ने है। जिनमें कुछ धार्मिक संस्कारों की पूर्व संचित छाया मौजूद हो। उन्हें अपनी अखंड-ज्योति पढ़ानी चाहिए, उनके घर जाना चाहिए, संबन्ध बढ़ाने चाहिए और पत्रिका में प्रस्तुत विषयों पर विचार विनिमय करना चाहिए। इस प्रकार हमारे विचार और आपका व्यक्तित्व मिलकर वाद्य और गान मिलकर सुन्दर संगीत प्रवाह बहने लगने जैसी प्रक्रिया बन पड़ेगी। पाँच व्यक्तियों को अध्यात्म की शिक्षा देने के लिए यदि अखंड-ज्योति परिवार का प्रत्येक सदस्य कटिबद्ध हो जाय तो इस अध्यात्मिक विश्व विद्यालय में हजारों अध्यापक और लाखों विद्यार्थी इसी वर्ष से बन सकते हैं। और यह पुण्य प्रक्रिया इसी प्रकार बढ़ती रहेगी। करोड़ों जनता तक देखते-देखते युग निर्माण का संदेश पहुँच सकता है। परिवार में, पड़ोस में, स्वजन संबंधियों में हम कुछ व्यक्ति जरूर ऐसे ढूँढ़ सकते हैं जो हमारी बात को सुनने को तैयार हो जाय। उनको अखंड-ज्योति में प्रस्तुत विचारधारा समझने, लेखों को पढ़कर सुनाने, छपी हुई कथा-कहानियों को सरस ढंग से कहने में यदि प्रतिदिन एक घंटा खर्च किया जाता रहे तो धीरे-धीरे उन पर प्रभाव पड़ेगा ही। उनकी प्रसुप्त आत्म चेतना जाग्रत होगी ही। अपनी अखंड-ज्योति को एक चलती-फिरती पुस्तक के रूप में दस-पाँच व्यक्तियों को हर महीने पढ़ा देना किसी भी उत्साही धर्म-प्रेमी के लिए कुछ भी कठिन कार्य नहीं है। कितने ही उत्साही व्यक्तियों ने अक्टूबर के अंक अधिक मात्रा में मंगाकर अपने पास-पड़ोस में वितरण किया है और पंचसूत्री-साधन में अनेकों नये साधकों को लगाया है। इसमें उत्साह ही एकमात्र निमित्त है। यदि वह हो तो इतना कर सकना किसी के लिए भी कुछ कठिन नहीं है।

गत 22 वर्षों से हम और आप साथ-साथ चलते रहे है। जीवन का एक बड़ा भाग इस प्रकार बिता चुके अब कुछ समय और भी साथ-साथ चल कर देख लें शायद कुछ अच्छा निष्कर्ष निकले। आप अब तक कुछ साधना न भी करते रहे हो तो अब अक्टूबर अंक में बतलाये हुए साधन-क्रम का अपना लें। आप श्रम करें हम आवश्यक प्रेरणा देंगे। दोनों के सहयोग से कुछ परिणाम अवश्य निकलेगा। आप आप की अपेक्षा कल निश्चित रूप से ऊँचे उठे होंगे।

ज्ञान-यज्ञ ही इतना ही महत्वपूर्ण है। सद्विचारों का विस्तार करना इस संसार का सबसे बड़ा परमार्थ है। इसमें भी हम और आप मिल-जुलकर आहुतियाँ देते रहें। ‘अखंड ज्योति’ विचार सामग्री प्रस्तुत करेगी आव उसे फैलाने , में अपना व्यक्तिगत श्रम एवं सहयोग प्रदान कीजिए। कार्य छोटा है पर इसकी सम्भावनाऐं महान है । लाखों करोड़ों मनुष्यों के मन और मस्तिष्क को बदल देना-उन्हें असत से सत की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमृत की ओर अग्रसर कर देना कठिन नहीं सरल है। हम लोग सच्चे मन से मिलकर इस श्रेय मार्ग पर चले तो बहुत कुछ संभव है, सब कुछ संभव है। यह संभावनाएँ सामने प्रस्तुत हैं और आपके प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा कर रही है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118