सौराष्ट्र की लोकोपकारी सन्त महिलायें

December 1961

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भारतवर्ष की आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में पुरुषों के समान स्त्रियों का भी पूर्ण अधिकार माना गया है। वैदिक-काल से ही यहाँ स्त्रियों के सब प्रकार के धार्मिक अनुष्ठानों ओर क्रिया काण्डों में प्रमुख रूप से भाग लेने; शास्त्रों के अध्ययन और मनन में संलग्न रहने, ऊँची से ऊँची साधना, तपस्या और उपासना करने के उदाहरण मिलते है। यह सत्य है कि स्त्री का प्रधान कार्य-क्षेत्र घर-गृहस्थी ही मानी गई है। गृहस्थ आश्रम के पश्चात् पत्नी भी पति के साथ वानप्रस्थ आश्रम में रह कर ईश्वरोपासना करती थी और उसके संन्यासी हो जाने पर वह भी उसी प्रकार का त्यागमय जीवन व्यतीत करती थी। इस प्रकार धार्मिक दृष्टि से इस देश की स्त्रियों का दर्जा कभी हीन अथवा निकृष्ट नहीं समझा गया।

यद्यपि मुसलमानी शासनकाल में स्त्रियों की स्थिति अपेक्षाकृत अरक्षित हो जाने से उनकी स्वाधीनता का अनेक अंशों में ह्रास हो गया था और घर के भीतर बन्द रहने के कारण वे सार्वजनिक जीवन से बहुत कुछ पृथक् हो गई थी, फिर भी प्राचीन परम्परा के प्रभाव से कितनी ही आत्मज्ञानी महिलायें घर और परिवार के संकीर्ण क्षेत्र से आगे बढ़कर लोकोपकार और सेवा के क्षेत्र में भाग लेती रही है। इस लेख में हम पाठकों को सौराष्ट्र की ऐसी ही कुछ महिला-सन्तों की जीवन गाथा सुनाना चाहते है।

सन्त ड़ड़ड़ड़

सौराष्ट्र के महिला सन्त मंडल में लोयण सबसे प्राचीन और प्रसिद्ध है। उसका जन्म चौदहवीं शताब्दी में खंभालिया गाँव के एक पाँचाल(लुहार) के घर में हुआ था। उसके माता-पिता का देहान्त उसकी बाल्यावस्था में ही हो गया, जिससे उसे आरम्भ से ही स्वतन्त्र रहकर जीवन व्यतीत करना पड़ा। वह अत्यन्त रूपवती थी, जिससे आस-पास के अनेक व्यक्तियों का ध्यान उसकी तरफ आकर्षित होता रहता था, पर उसके स्वच्छ हार्दिक भाव और निर्भयता के कारण किसी का साहस उससे अनुचित व्यवहार या वार्तालाप करने का नहीं होता था वैसे वह लाखा नाम के एक अहीर युवक को, जो उसी के समान रूपवान् और बीर पुरुष था, हृदय से प्रेम करती थी, पर उन दोनों ने यह निश्चय कर लिया था कि जब तक प्रत्यक्ष रूप से विवाह सम्बन्ध न हो जाय तब तक शारीरिक सम्बन्ध कदापि नहीं करेंगे।

पर इन दोनों के विवाह में एक बड़ी बाधा जातिवाद की थी। दो भिन्न जातियों के होने के कारण वे अपने घर और गाँव में रह कर ऐसा सम्बन्ध नहीं कर सकते थे। लोयण तो अपने घर में अकेली थी, पर लाखा का परिवार बड़ा था और अपनी जाति में उसका काफी नाम था। यदि वह जाति-प्रथा को तोड़कर इस विवाह को कर लेता तो उसे जाति च्युत होकर रहना पड़ता। इससे बचने का अगर कोई उपाय था तो यही कि लाखा अपनी जाति के सब व्यक्तियों को दण्ड के रूप में एक बड़ा भोज दे और उनसे इस विवाह की स्वीकृति ले ले। इस कार्य में बहुत अधिक धन व्यय करने की आवश्यकता थी और एक दिन लाखा इसी धन की व्यवस्था करने परदेश को चला गया।

इधर कुछ समय पश्चात् सेलसणी नाम के एक सन्त गाँव में पधारे, जो वेदान्त सिद्धान्त का प्रचार करके हिन्दू-समाज की भेदभाव की भावना को मिटाने का प्रयत्न करते थे। लोयण ने उनके उपदेशों को सुना तो उसके भीतर आत्म-भाव जाग्रत हो गया और वह उनकी शिष्य होकर समाज-सेवा के कार्य में प्रवृत्त हो गई। वह बड़ा सुन्दर गाती थी और अब भावनायुक्त भजन भी बनाने लग गई थी, इसलिए थोड़े ही समय में जनता की आदर और श्रद्धा की पात्र बन गई।

जब लाखा लौटकर आया और उसने विवाह का प्रस्ताव किया तो लोयण ने स्पष्ट कह दिया कि “मैं तुमको प्रेम अवश्य करती हूँ, पर अब मैं भगवत्-कार्य को छोड़कर साँसारिक विवाह-बन्धन में नहीं बंध सकती। अगर तुमको आवश्यकता हो तो अपनी जाति की अन्य कन्या से विवाह कर लो।” जब बहुत समझाने पर भी लोयण न झुकी तो लाखा बल प्रयोग करने पर उतारू हुआ, पर उसकी आत्म शक्ति के सम्मुख उसकी वीरता की कुछ न चल सकी।

इस घटना के पश्चात् लाखा को कुष्ठ रोग हो गया और वह संता पके कारण घर के भीतर ही पड़ा रहने लगा। लोयण अब भी उसके पास आकर उसे सान्त्वना देती रहती थी। बारह वर्ष बाद वे ही महात्मा पुनः खम्भालिया पधारे। लोयण ने उनसे लाखा की दुर्दशा की बात कह कर उसका कष्ट मिटाने की प्रार्थना की। सन्त के आदेश से लोयण ने लाखा की देह को स्पर्श किया जिससे उसका रोग जाता रहा। फिर लोयण और लाखा दोनों आजीवन पीड़ित जनता की सेवा में ही लगे रहे।

रामबाई

रामबाई बाँटा निवासी माणसुर पटेल की पुत्री थी। उसका घर धन-जन से सम्पन्न था और उसका लालन-पालन सब प्रकार से सुख में हुआ था। पर उसमें किसी प्रकार का अहंकार न था और वह स्वभाव से ही दीन-दुखियों के प्रति दया का व्यवहार किया करती थी।

संवत् 1869 में सौराष्ट्र में भयंकर अकाल पड़ा। अनावृष्टि, अतिवृष्टि, पाला, टीड़ी आदि किसी न किसी कारण से फसल खराब होती चली गई। उधर राज्यों की अव्यवस्था के कारण डाकू, लुटेरों का जोर बढ़ गया और हजारों गाँव उजाड़ हो गये। इसके फल से लाखों व्यक्ति भूख और रोग के शिकार होकर काल के गाल में समा गये। इस प्रकार मरने वालों के अनेक छोटे-छोटे बालक अनाथ होकर इधर-उधर मारे-मारे फिरने लगे। जब इस प्रकार के दस-बीस बालकों का समूह किसी गाँव में जा पहुँचता तो वहाँ के निवासी उनको मार-मार कर निकाल देते। लोगों के पास अपने खाने को नहीं था, इन अकाल के मारो को खाने के लिये कौन देता?

जिस दिन रामबाई गौना होकर अपनी ससुराल जाने वाली थी, उस दिन उसके गाँव में अकस्मात् ऐसे ही बालकों का एक झुण्ड आ गया। गाँव के युवक उनको मार-मार कर भगा रहे थे और वे गरीब ‘हाय मा, हाय बाप’ कहते हुये इधर-उधर दौड़ रहे थे। कई के सिर और हाथ-पैरों से खून भी निकल रहा था। रामबाई ने कुँए पर पानी भरे हुये जो यह दृश्य देखा तो उससे न रहा गया और वह दौड़कर उन अनाथ बालकों तथा मारने वाले युवकों के बीच खड़ी हो गई और डाँट कर बोली-खबरदार अब जो इन मरे हुओं को मारने के लिये हाथ उठाया। ऐसे बिना माँ-बाप के जीते जागते फलों को कुचलते हुये तुमको शर्म नहीं आती।” इसके पश्चात् वह उन बालकों को लेकर गाँव में गई और अपने पिता-मा तथा ससुराल वालों से, जो उसे लेने आये थे, कहा कि मुझसे इन अनाथों की दुर्दशा नहीं देखी जाती। इस तरह के सैकड़ों बालक हर रोज मारे-मारे फिर रहे है और उनमें से नित्य दस-बीस मर जाते है। भगवान की प्रेरणा से मैंने सर्वस्व त्यागकर इन अनाथों के साथ रहकर उनकी रक्षा और सेवा करने का निश्चय कर लिया है। आप मुझे विवाह-बन्धन से मुक्त करके इस पुण्य-कार्य में लगने की आज्ञा दें।” सगे सम्बन्धियों ने उसे रोकने की बहुत चेष्टा की पर वह उसी समय उन सब बालकों को लेकर गाँव स निकल पड़ी। रास्ते में उसको हर जगह ऐसे ही बालक मिलते चले गये और शाम तक उनकी संख्या सौ से ऊपर पहुँच गई।

रामबाई इन बालकों को लेकर भजन गाती हुई घर-घर उनके लिये भिक्षा माँगने लगी। जब लोगों को उसके त्याग की बात मालूम हुई तो वे मुक्तहस्त होकर सहायता करने लगे। तीन-चार दिन पश्चात् वह बावणिया बन्दर में पहुँच गई जहाँ कि एक बड़ी मण्डी थी। जब वहाँ के बड़े व्यापारियों को खबर मिली कि एक युवती अहीर कन्या भूखे मरते हुये बच्चों की अनाथ-माता बन गई है, तो वे उसकी सहायता के लिये ढेरों अन्न, वस्त्र भेजने लगे। कुछ ही समय में रामबाई का अनाथ-आश्रम बनकर तैयार हो गया और उसमें गरीबों के लिये सदावर्त स्थापित कर दिया गया। रामबाई की कीर्ति सौराष्ट्र से बढ़कर दूर-दूर के स्थानों तक फैल गई।

एक दिन कोई साधू आश्रम में आकर ठहरा और लोगों के कहने पर भी उसने भोजन नहीं किया। रामबाई ने उससे प्रार्थना की कि महाराज! यह आश्रम केवल सेवा-भावना से ही स्थापित किया गया है इसमें मेरा कुछ भी नहीं है जो कुछ है वह दीन-दुखी और संत-महात्माओं के लिये ही है। इसलिये जो कुछ आप चाहे ले सकते है। साधू ने जब अपनी असद् भावना प्रकट की तो रामबाई ने उसे भगवान की लीला समझकर स्वीकार कर लिया। पर जब वह साधू एकान्त में रामबाई के पास पहुँचा तो उसने देखा कि पलंग पर एक सिंहनी बैठी हुई है। वह भय के मारे चिल्लाकर बेसुध हो गया। बाद में रामबाई को माता कह कर और उससे बारम्बार क्षमा माँग कर वह चला गया। इस प्रकार आजन्म दीनों की सेवा करती हुई रामबाई संवत् 1934 में परलोकगत हुई। उसका आश्रम अब भी सेवा-कार्य का स्थल बना हुआ है।

तोरल

सौराष्ट्र के लोक गीतों में तोरल-जेसल का बड़ा नाम है। इस तोरल का विवाह सासतिया नामक क्षत्रिय युवक से हुआ था, जिसके पास इसी नाम की एक घोड़ी और एक तलवार थी। ये दोनों पति पत्नी सच्चे ईश्वर भक्त और परोपकारी थे और पवित्र जीवन व्यतीत करते थे। उस समय कच्छ के अंजार स्थान में जेसल नामक एक क्षत्रिय युवक लूटमार का धंधा करता था। वह बड़ा ही साहसी और वीर था और सब लोग उसके नाम से दहशत खाते रहते थे। जब जेसल ने सासलिया की “तीन तोरलों’ की प्रशंसा सुनि तो वह उनको छीनने के लिये उसके गाँव में आ पहुँचा। सन्ध्या के समय जब घर के सब लोग अन्य साधकों के साथ भगवत् कीर्तन कर रहे थे जेसल सासलिया की घुड़साल में घुस गया। तोरल घोड़ी उसे देख हिनहिनाने लगी जिससे वह घास के ढेर के नीचे छिप गया। जब तोरल घोड़ी को देखने वहाँ आई तो उसने घोड़ी को बाँधने के लिए उसी स्थान पर एक कील गाढ़ दी जहाँ जेसल छुपा हुआ था। संयोग से वह जेसल की हथेली के आरपार हो गई, पर उसने मुँह से एक आह तक नहीं निकाली। कुछ देर बाद सासलिया भी भीतर गया और उसका पैर जेसल से टकरा गया। तब सब लोगों ने उसे बाहर निकाला। पकड़े जाने पर जेसल तनिक भी नहीं डरा, और उसने कहा कि चाहे आज मैं तोरल को ले जाने में सफल न हो सकूँ पर मैं कभी न कभी उसे प्राप्त करके ही रहूँगा।

तोरल बहुत पहले से जेसल के लूटमार और जनात पर उसके आतंक के किस्सों को सुन चुकी थी। आज उसे इस स्थिति में अपने सम्मुख पाकर उसके मन में आया कि यदि किसी प्रकार इसको अनुचित मार्ग से हटाकर सुमार्ग पर लाया जा सके तो सैकड़ों लोगों के जान-माल की रक्षा हो सकती है और इस प्रदेश की जनता इसके आतंक से छुटकारा पा सकती है। उसने अपनी मनोभावना सासलिया के सामने प्रकट की। वह भी भगवान का पक्का भक्त था। उसने जेसल से कह दिया कि यदि तुम्हारा ऐसा ही अटल निश्चय है, तो तुम खुशी से तीनों ‘तोरलों’ को ले जा सकते हो।

जब जेसल तोरल, को साथ लेकर अंजार जाने के लिए जहाज में सवार हुआ तो रास्ते में अकस्मात् तूफान आ गया जिससे जहाज के डूबने का भय होने लगा। जेसल को तूफान से भयभीत होते देखकर तोरल ने कहा-तुम तो इतने बड़े बीर हो, न मालूम कितने व्यक्तियों को तुमने लूट-मार कर मौत के घाट उतार दिया है, तो अब मौत को सामने देखकर क्यों डरते हो।” जेसल से कुछ उत्तर देते न बना। तब तोरल ने कहा कि तु अब भी अपने पापों को स्वीकार करके उनका प्रायश्चित करने का निश्चय करो और भविष्य में किसी भी प्रकार का पाप न करने की प्रतिज्ञा करके भगवान से क्षमा माँगों तो रक्षा हो सकती है। जेसल के सच्चे हृदय से पश्चाताप करने पर तूफान सचमुच शान्त हो गया और जहाज किनारे पर लग गया।

इस घटना के फल स्वरूप जेसल का जीवन ही बदल गया। उसने तलवार फेंक दी, भाले को भूल गया और बन्दूक के दो टुकड़े कर दिये। तोरल के उपदेश से वह माला लेकर हरिनाम लेने लगा और पहले जिस प्रकार उसका समय लोगों को लूटने, मारने और सताने में जाता था, अब वह उसी प्रकार लोगों की सेवा और परोपकार में जीवन व्यतीत करने लगा। तोरल ने सब प्रकार से परीक्षा लेकर उसके हृदय की सचाई और शुद्धता की जाँच कर ली, और इस बात का विश्वास कर लिया कि अब उसका जीवन सर्वथा बदल गया है। एक आततायी और निर्दय व्यक्ति को परोपकारी सन्त के रूप में बदला हुआ देखकर उसने अपने यहाँ आने को सार्थक समझा। इसके पश्चात् उन दोनों ने संसार के मोह-माया का पूर्णतः त्याग करके अपना समस्त जीवन दीन-दुखियों की सेवा और परोपकारी में ही व्यतीत कर दिया।


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