‘बहुत’ नहीं ‘उत्कृष्ट’ चाहिए

December 1961

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भौतिकता का परिणाम है ‘विस्तार’ और आध्यात्मिकता का प्रतिफल है ‘उत्कृष्ट’। लोभी मनोवृत्ति अनगिनत चीजों की ओर हमारा मन डोलती है। इस संसार की सभी वस्तुएँ नीरस हैं, पर हम उनमें रस चाहते हैं। बहुत प्रयत्न करने पर उनमें उतना ही रस मिलता है जितना कुत्ते को सूखी हड्डी चबाते समय अपना जबड़ा छिल जाने पर उससे टपकने वाले खून का स्वाद आता है। अपना मन जितना जिस वस्तु पर आकर्षित होता है वह उतना ही प्रिय या सुन्दर लगने लगती है, मन हटा नहीं कि वह अप्रिय एवं कुरूप लगी नहीं। वस्तुतः अपनी मनोवृत्ति, अपनी आन्तरिक अभिरुचि ही बाहर के पदार्थों में सरसता एवं सुन्दरता के रूप में झलकती है। अपनी उस आन्तरिक स्थिति में हेर-फेर होते ही प्रिय पदार्थ अप्रिय बन जाते हैं और सुन्दर कुरूप दीखने लगते हैं।

हम इस रहस्य से अपरिचित रहते हैं फल-स्वरूप एक के बाद दूसरे पदार्थ में प्रसन्नता, सरसता ढूँढ़ने के लिए मृगतृष्णा में भटकते रहते हैं। भौंरा और तितली का यही गोरखधन्धा रहता है। वे एक फूल से दूसरे पर दूसरे से तीसरे पर रस की खोज में मँडराते रहते हैं। पुराना नीरस लगने लगा तो दूसरे में अधिक रस की आशा दिखाई दी उड़कर उस पर जा पहुँचे। वह भी कुछ क्षण में नीरस लगना ही था अब और पर जा पहुँचे। इस प्रकार वे दिन भर भटकते रहते हैं पर जिस वस्तु की चाह थी वह मिलती कहाँ है? वस्तुतः रस तो भीतर था बेचारे तितली भौंरे उसे बाहर तलाश करते फिरते हैं। जो चीज जहाँ है ही नहीं वह वहाँ मिले कैसे? जड़ पदार्थ जिनमें कोई जीवन नहीं है किसी को क्या रस दे सकते हैं? भौंरे और तितलियाँ सदा अतृप्त ही रहते हैं। उनके भाग्य में निराशा और असफलता ही बदी है।

हम भी भौंरे और तितली के अनुचर हैं। एक के बाद दूसरे सरस पदार्थ की खोज हमें निरन्तर बनी रहती है। खाद्य पदार्थों के अनगिनत प्रकार बनते चले जा रहे हैं। थाली की शोभा इस बात में मानी जाती है कि उसमें अनेकों प्रकार के व्यंजन परोसे गये हैं। जरा-जरा सा स्वाद सब का चखने को मिले। देर तक खाते रहने पर तो पदार्थ की नीरसता का पता चल जायेगा इसलिए भौंरे और तितली की तरह हर कटोरी में से थोड़ा-थोड़ा चखा जाय तो ठीक रहे यही सोचकर लोग भोजन करते समय बहुत तरह के खाद्य पदार्थ एकत्रित करते हैं।

वस्त्रों की भी यही बात है जिनके पास थोड़ी सुविधा है वे तरह-तरह के कपड़ों से बनी अनेक जोड़ें पोशाक जमा रखते हैं और कभी किसी को, कभी किसी को, पहिन कर अपने सुन्दर दीखने की लालसा पूरी करते रहते हैं। वैसे लगती कोई भी पोशाक सुन्दर नहीं है। यदि लगती होती तो उसे ही सदा पहना जाता। बार-बार बदलने की नौबत क्यों आती? इतने जोड़ी, इतने प्रकार के, कपड़े इकट्ठे क्यों किये जाते?

धन से, सन्तान से, मकान से, जायदाद से, सवारी से, गहने से, कपड़े से, किसी को सन्तोष नहीं होता। उनकी तादाद बढ़ाते रहने की धुन हर एक को लगी रहती है। जिनके पास हजार रुपये हैं वह लाख कमाने की धुन में लगा है। वैभव से, विलासिता से, मनोरंजन से, सैर सपाटे से किसी को तृप्ति नहीं। और अधिक-और अधिक-और अधिक यह एक ही हवस दिन रात मनुष्य को बेचैन किये रहती है। नाम के लिए, यश के लिए, मान के लिए, कितने ही लोग निरन्तर व्याकुल रहते हैं। उन्हें किसी ‘अमुक’ के मिल जाने पर सन्तोष हो जाएगा, इसकी किसी को आशा नहीं करनी चाहिए।

आध्यात्मिकता का अर्थ है-उत्कृष्टता जिसने विस्तार की आकांक्षा छोड़कर उत्कृष्टता को अपना लक्ष्य बनाया है वस्तुतः वही आध्यात्मिक व्यक्ति है। अनेकों सन्तान पैदा करते जाना और उनकी शिक्षा संस्कृति पर कुछ भी ध्यान न देकर एक फूहड़ फौज खड़ी कर देना क्या कोई प्रशंसा की बात है? घटिया दृष्टि के लोग भले ही यह सोचें कि हमारी इतनी सन्तान हैं, हम इतने भाग्यवान हैं, पर यह गर्व वस्तुतः सर्वथा मिथ्या है।

कोई बड़ा मकान जो सर्वत्र गंदगी एवं अस्त-व्यस्त व्यवस्था से भरा पड़ा हो क्या किसी साफ सुथरी झोपड़ी से बढ़ कर आनन्ददायक हो सकता है? मैले कुचैले कई कपड़े और कितने ही जेवर लाद लेने की अपेक्षा शरीर पर थोड़ा ही परिधान सुशोभित हो सकता है, बशर्ते वह स्वच्छता और सादगी से सुसज्जित हो। शरीर पर जल के दो लोटे लुढ़का कर जमे हुये मैल को और भी दुर्गन्धित करने वाले चार बार के स्नान से वह एक बार का स्नान अधिक उत्तम है जिसमें देह की रगड़-रगड़ कर अच्छी तरह सफाई की गई हो और सारा मैल पसीना छुड़ा दिया गया हो।

किसी भी रीति से लाख आदमी हमें जान जायें ऐसी नामवरी कमाने की अपेक्षा दस आदमियों के हृदय में अपने लिए सच्ची श्रद्धा पैदा कर लेना अधिक कठिन है। दस देवताओं को पूजने की अपेक्षा एक ही इष्टदेव में तन्मय हो जाना श्रेयस्कर है। हजार तीर्थों में अन्यमनस्क होकर भ्रमण करने की अपेक्षा सच्ची श्रद्धा से पाँच तीर्थों की यात्रा का पुण्य अधिक है। हजार कुपात्रों को भोजन कराने की अपेक्षा एक सत्पात्र का ब्रह्म-भोज अधिक फलप्रद है। पाँच घण्टे अन्यमनस्क होकर भजन करते रहने की अपेक्षा भावनापूर्ण भजन आध घण्टे का भी बहुत है।

किसी प्रकार सौ वर्ष तक जीवित रहना क्या उस अल्पायु पुरुषार्थी से अधिक श्रेष्ठ है जिसने अपनी थोड़ी जिन्दगी में ही बहुत कुछ कर दिखाया। जगत्-गुरु शंकराचार्य केवल बत्तीस वर्ष ही जीवित रहे थे, स्वामी रामतीर्थ ने भी अल्पायु में ही जीवन पूर्ण कर लिया था। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के अनगिनत वीर सेनानी उगती जवानी में ही सीने पर गोलियाँ और गले में फन्दा लगा कर शहीद हो गये। क्या उन्हें अल्पायु कहा जायेगा? गुरु गोविन्द सिंह के बच्चों ने क्या थोड़ी ही आयु में लम्बी जिन्दगी का पूरा लाभ प्राप्त नहीं कर लिया था? दुनियाँ में धन-कुबेर की कब कमी रही है पर राणा प्रताप को अपनी सारी पूँजी को समर्पण करने वाले भामा-शाह और बापू के दत्तक पुत्र बनकर अपनी कमाई उन्हें सौंपते रहने वाले सेठ जमनालाल बजाज अपनी साधारण पूँजी से ही इतिहास के पृष्ठों पर अमर हो गये। विद्वानों की, गुणियों की, चतुर और प्रतिभा वालों की इस संसार में क्या कमी है? पग-पग पर एक से एक बड़ा सुयोग्य व्यक्ति मौजूद है, पर यदि उस योग्यता का उत्कृष्ट उपयोग न हुआ, केवल उस व्यक्ति के अपने ही सुख साधन बढ़ाने में उसका अन्त हो गया तो इसमें क्या बढ़ाई की बात है? उसमें सन्तोष और गर्व करने के लिये धरा ही क्या है? पेट पालने और मौज करने की कला में सुअर जैसा निकृष्ट प्राणी भी चतुर और सफल माना जा सकता है पर उसमें श्रेष्ठता क्या है? गौरव की बात क्या है?

आध्यात्मिकता का आदर्श है-उत्कृष्टता उसे विस्तार में कोई रुचि नहीं होती। संयोगवश उसके कार्यक्षेत्र का विस्तार हो जाय यह बात दूसरी है पर उसमें उसे अभिरुचि जरा भी नहीं होती। काम थोड़ा हो पर हो उत्कृष्ट यही सही दृष्टिकोण है। पर यह आदर्श जमता तभी है जब मनुष्य बहिर्मुखी न होकर अन्तर्मुखी बने। दूसरों के मुँह से अपनी प्रशंसा सुनने का इच्छुक न होकर आत्म सन्तोष में ही प्रसन्नता अनुभव करने लगे।

हमें बहिर्मुखी नहीं अन्तर्मुखी होना चाहिए। “लोग क्या कहते हैं?” इस आधार को छोड़कर ‘सत्य क्या है?’ इसी कसौटी पर अपनी गतिविधियों को कसना चाहिए। विस्तार की नहीं हमें ‘उत्कृष्टता’ की आकांक्षा करनी चाहिए। अधिक-अधिक-अधिक वह वह भृंग तृष्णा निरर्थक है हमें उत्कृष्ट- उत्कृष्ट-उत्कृष्ट की आकांक्षा करनी चाहिए। यही हमारा आदर्श होना चाहिए। जीवन की किसी समस्या पर हम बाह्य दृष्टि से विचार न करें। बाहर के किसी पदार्थ में न तो सुख है और न रस। जो कुछ भी श्रेष्ठता जो कुछ भी सौन्दर्य जो कुछ भी सुख इस संसार में बाहर कहीं दीखता है वह अपने भीतरी स्थिति का ही प्रतिबिम्ब है। यदि हम अपने अन्तस् को उत्कृष्ट बनायें, अन्तर्मुखी होकर आत्म-शोधन और आत्म-निर्माण में लग जायें तो हमारी भीतरी उत्कृष्टता निरन्तर बढ़ेगी और उसकी आभा संसार में बाहर के हर पदार्थ पर छिटक पड़ेगी हर वस्तु सुन्दर, सुसज्जित, मधुर और आनन्ददायक दीख पड़ेगी पतिव्रता को अपना कुरूप पति प्यारा लगता है उसमें उसकी आस्था ही मुख्य कारण है। यह आस्था हम आज खो चुके हैं। इसे प्राप्त किये बिना मानव-जीवन निरर्थक और नीरस ही रहेगा। यदि संसार में सरसता का आस्वादन करना हो तो विस्तार की बहिर्मुखी दृष्टि का परित्याग कर हमें उत्कृष्टता का आध्यात्मिक दृष्टिकोण अपनाना पड़ेगा। जीवन की सफलता और असफलता का प्रमुख आधार यह आध्यात्मिक आस्था ही है। इस तथ्य को जितनी जल्दी समझ लिया जाय उतना ही श्रेयस्कर है।


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