ज्ञान से ही बन्धन टूटते हैं

December 1961

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अज्ञान ही सबसे बड़ा बन्धन है, इसी के पाश में जीव बंधा हुआ है। माया और अविद्या एक ही वस्तु के दो नाम है। जिस माया के वशीभूत होकर प्राणी कुकर्म करता और निविड़ बन्धनों में जकड़ा हुआ भवसागर में डूबता उतरता रहता है वह और कुछ नहीं अज्ञान एवं भ्रम मात्र ही है।

अपने स्वरूप के सम्बन्ध में अपने अस्तित्व के सम्बन्ध में हम सबको भारी भ्रम हैं कहने को शरीर और आत्मा को भिन्न माना जाता है पर व्यवहार में शरीर की आत्मा-शरीर ही सर्वस्व बना रहता है और जीव शरीर के लिए अपने आपको भयानक अन्धकारमय भविष्य में डाल लेता है। यदि वस्तुस्थिति का ज्ञान हमें हो जाय और शरीर को आत्मा के एक तुच्छ उपकरण की तरह प्रयोग करें तो जीवनोद्देश्य की प्राप्ति का मार्ग सहज ही खुल सकता है।

कुविचारों, कुसंस्कारों, वासनाओं और तृष्णाओं में मनुष्य इसलिए ग्रसित रहता है कि वह उनकी तुच्छता और व्यर्थता को ठीक प्रकार न समझ कर उन्हीं को प्रिय मान लेता है और उन्हें अपने स्वभाव का एक अंग बना लेता हैं। बाहर से वह उन्हें बुरा भला भी कहता है पर भीतर गहराई तक जो जड़े जमी हुई है उन्हें काटने का प्रयत्न नहीं करता। फल स्वरूप अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं को जानते हुए भी मनुष्य उनके निवारण के लिए कुछ कर नहीं पाता।

ज्ञान ही एक मात्र वह प्रकाश है जिसके आधार पर जीव को अपने वास्तविक स्वरूप का, हित-अनहित का, लाभ-हानि का, बुद्धिमत्ता मूर्खता की वास्तविक जानकारी हो सकती है और वह उन तुच्छ बातों की उपेक्षा करके महान् हित साधन में संलग्न हो सकता है।

‘ज्ञान’ की इस महान् उपयोगिता एवं अनिवार्य आवश्यकता को देखते हुए शास्त्रकारों ने प्रत्येक श्रेयार्थी को ज्ञान की साधना सर् प्रािम करने का आदेश दिया हैं। स्वाध्याय और सत्संग को आत्मकल्याण का सर्वोपरि मार्ग बताया है। ज्ञान की महत्ता के सम्बन्ध में शास्त्र का अभिमत देखिये-

नास्ति विद्या समं चक्षुर्नास्ति सत्य समं तपः

-महाभारत

ज्ञान के समान नेत्र नहीं, सत्य के समान तप नहीं, राग के समान दुःख नहीं, और त्याग के समान कोई सुख नहीं।

गीताकार का भी यह अभिमत है।

सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परि समाप्ते।

4।38

सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में ही समाप्त होते है।

नहिज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।

4।38

ज्ञान के सामान पवित्र इस संसार में और कुछ नहीं है।

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।

4।37

हे अर्जुन, जैसे जलती हुई अग्नि ईधन को भस्म कर देती है वैसे ही ज्ञानाग्निः से सम्पूर्ण कर्म भस्म होते है।

इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए सबसे प्रथम साधन है स्वाध्याय। सद्ग्रन्थों के माध्यम से सत्पुरुषों की, मनीषियों और ऋषियों की आत्मा हर घड़ी सत्संग करने को प्रस्तुत रहती है। जो महापुरुष स्वर्गवासी हो चुके है, दूरस्थ है, या जिनके पास समय का अभाव रहता है उससे प्रत्यक्ष सत्संग नहीं हो सकता पर ग्रन्थों द्वारा उनका सत्संग कितनी ही देर तक किसी भी समय किया जा सकता है। सभी सद्ग्रन्थ, जिनमें जीवन की समस्याएँ को सतोगुणी दृष्टिकोण के साथ सुलझाया गया है, शास्त्र है। शास्त्र किसी भी भाषा या लिपि में हो सकते है। वे संस्कृत में ही हों यह कोई आवश्यक नहीं ऐसा भी नहीं कि जो कुछ हैं संस्कृत शास्त्र ही है। शास्त्र का अर्थ है सत्साहित्य। वह पुस्तकें जो आत्मा को सत् की ओर अग्रसर होने के लिये प्रेरणा देती है, ऐसे ग्रन्थों का अध्ययन शास्त्रार्थ कहलाता है। उन्हीं को स्वाध्याय के निमित्त पढ़ने का मनीषियों ने आदेश किया है।

योगवाशिष्ठ में शास्त्र अध्ययन को प्राथमिकता दी गई है।

पूर्वं राघव शास्त्रेण वैराग्येण परेण च।

-योगवाशिष्ठ 6।5।14

हे राम, सबसे प्रथम शास्त्राध्ययन सज्जनों की संगति और वैराग्य से कन को पवित्र करो

शास्त्र सज्जन सत्कार्य संगे नोपहतैनसाम्।

-योगवाशिष्ठ 5।6।5

शास्त्र पढ़ने, सज्जनों की संगति करने और सत्कार्य करने से मन के पाप दूर हो जाते है और बुद्धि दीपक के समान प्रकाशवान होती है जिससे सार और असार दिखाई पड़ता है।

शास्त्र सज्जन सर्म्पकः प्रज्ञामादौ विवर्धयेत्।

-योगवाशिष्ठ 6।120।1

शास्त्रों का अध्ययन और सज्जनों का सम्पर्क करके प्रज्ञा को बढ़ाना। योगियों ने इसी को प्रथम साधना बताया है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118