बेचारा-बेंजामिन फ्रेंकलिन

December 1961

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अमेरिका के राष्ट्र निर्माता बेंजामिन फ्रेंकलिन एक अत्यन्त निर्धन घर में पैदा हुए थे। उनके पिता मोमबत्ती और साबुन बनाने का कुछ काम जानते थे, उसी के आधार पर उन्हें अपने विशाल कुटुम्ब का जिसमें 17 तो केवल बच्चे ही थे पालन करना पड़ता था। पूरे कुटुम्ब को रोटी के लाले पड़े रहते थे। बेजामिकन पन्द्रहवें बच्चे थे। वे दस वर्ष के हो पाये थे कि उन्हें रोटी कमाने के लिए कुछ करने को मजबूर होना पड़ा। इस उद्देश्य के लिए वे लुहारों, ठठेरों, मोचियों, भटियारों, रंगरेजों की दुकानों पर मुद्दतों धक्के खाते रहे। फिर एक प्रेस में छोटा काम उन्हें मिला। उस कार्य को भी वे अधिक दिन न कर सके और कुछ काम तलाश करने फिलाडेल्फिया चल पड़े। रास्ता कठिन था, जब खाली थी। नाव में इस शर्त पर वे बैठ सके कि रास्ते भर नाव में घुसने वाले पानी को उछालते चलेंगे। जब फिलाडेल्फिया पहुँचे तो उनने भूख शान्त करने के लिए तीन आने की रोटी भठियारा से खरीदी। रास्ता चलते हुए एक रोटी खाते जाते थे दो दोनों बगलें में दबी हुई थी। कपड़े भी फटे टूटे थे। इस फूहड़ लड़के को देखकर अपने दरवाजे पर खड़ा एक सुन्दर लड़की खूब हँसी। ऐसा फूहड़ लड़का उसने कभी देखा न था। बेंजामिन तब भी झेंप नहीं, न निराश हुए। अपने भाग्य का निर्माण करने के लिए वे अटूट चट्टान की तरह आगे ही बढ़ते गये।

इन परिस्थितियों में कोई दूसरा व्यक्ति होता तो हताश हो जाता। भविष्य में कुछ बन सकने की क्या आशा उसे होती? उसके पास कुछ साधन नहीं, कोई सहायक नहीं, कुछ भी योग्यता नहीं, ऐसा आदमी आमतौर से निराश ही रहता है और किसी प्रकार जिन्दगी के दिन पूरे करने की ही बात सोचता है। पर बेंजामिन दूसरी ही धातु के बने थे। उन्होंने बचपन से ही यह जान लिया था कि मनुष्य के भीतर एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण शक्ति भरी हुई है, उसका वह ठीक प्रकार उपयोग करता रहे तो प्रगति की मंजिल को दूर तक पार कर सकता है। वे यह भी जानते थे कि धैर्य एक बहुत बड़ी चीज है। अधीरता और उतावली से उन्नति नहीं होती और न रोने झींकते से, दूसरों पर दोषारोपण करने से कुछ प्रयोजन सिद्ध होता है। कोई दूसरा किसी दूसरे को न आगे बढ़ा सकता है न पीछे हटा सकता है। जो दूसरों के कंधे पर खड़े है वे कभी भी गिर सकते है इसलिए अपने पाँवों को मजबूत करना और उन्हीं के बल पर आगे बढ़ना उचित है।

इन सिद्धान्तों को अपनाने से बेंजामिन का पौरुष चमका। उनके हाथ में आरम्भ में छोटे-छोटे काम आये पर उन्हें, उनने ऐसे लगाव और खूबसूरती से पूरा किया कि काम कराने वालों की आँखों में उनकी कीमत चढ़ती ही गई। अपने गुणों के कारण जो व्यक्ति दूसरों की नजर में चढ़ा है वह उसकी सद्भावना और सहायता का भी सहज अधिकारी बन जाता है बेंजामिन जहाँ भी गये वहाँ के लोगों के दिलों में अपने लिए जगह बनाये बिना पीछे न हटे।

वे धीरे-धीरे उन्नति करते गये। एक अख़बार निकाला, प्रेस खोला, पुस्तकें छापी, शिक्षा संस्थाएँ स्थापित की, उन्हें बढ़ाया, सरकारी नौकरी में गये, संगीत सीखा, आविष्कार किये, स्वाधीनता की लड़ाई लड़ी, अन्त में राष्ट्र निर्माता बने। और चौरासी वर्ष की आयु तक अथक रूप से प्रगति की मंजिलें एक-एक करके पार करते गये। रास्ता चलते रोटी खाते देखकर जो सुन्दर लड़की उस फूहड़ युवक पर तिरस्कार से खिल-खिलाकर हँसी थी। उस घटना के सात वर्ष बाद उस रूप की देवी डिबाराहरीड ने उसी बेंजामिन के असाधारण गणों पर मुग्ध होकर विवाह प्रस्ताव किया और जब वह स्वीकार कर लिया गया तो उसने अपने को धन्य माना।

बेंजामिन बड़ी जीवट के नर रत्न थे। ज्ञान प्राप्ति को जीवन का सबसे बड़ा लाभ समझते थे। आधे पेट रोटी खाकर भी वे पैसे बचाते और पुस्तकें खरीदते। उन दिनों पुस्तकों का बड़ा अभाव था। इसलिए उन्होंने एक ऐसी गोष्ठी भी संगठित की कि जिनके पास कोई पुस्तकें हो, वे सप्ताह में एक दिन एक जगह जमा कर दिया करें और फिर एक दूसरे से माँगकर पढ़ने ले जाया करें। अमेरिका में पुस्तकालय-वाचनालय का यही श्रीगणेश था। वे कहा करते थे कि-मुझे इस संसार से प्यार है और जिस दुनियाँ में मैं जीता हूँ, जीने के साधन उपलब्ध करता हूँ, उसके बारे में मुझे अधिक से अधिक जानना चाहिये। इसी ज्ञान पिपासा ने स्कूली साधनों के अभाव में भी विद्या के उच्चस्तर पर उन्हें प्रतिष्ठित कर दिया।

बेंजामिन संगठन-के एकता के मंत्र का महत्व जानते थे। स्वाधीनता युद्ध के दिनों में जब कि साथियों में फूट पड़ने लगी तो उन्होंने कड़ी चेतावनी देते हुए कहा-हमें मिलकर एक जान हो जाना चाहिए नहीं तो हम सबकी अलग-अलग जान जायेगी।” वे उदारता, सामाजिक न्याय ओर मानवता के प्रबल समर्थक थे। जब अमेरिका स्वतन्त्र हो गया तो उन्होंने काँग्रेस पर इसके लिए बहुत जोर डाला कि दासता का उन्मूलन किया जाय। मूल निवासियों को भी मानवोचित स्वाधीनता का लाभ उठाने दिया जाय। उनके वे प्रयत्न एक दिन सफल होकर ही रहे।

बेंजामिन फ्रेंकलिन आज दुनिया में नहीं है। आज से 170 वर्ष पूर्व सन् 1790 में वे स्वर्गवासी हो गये, पर उनका बोलता हुआ जीवन अभी तक हर किसी को यह उपदेश करता है कि मनु परिस्थितियों का गुलाम नहीं साधनों के अभाव तथा विपरीत परिस्थितियों के बीच भी वह आगे बढ़ सकता है और अपने गुणों के अनुरूप आगे तक पहुँच सकता है।


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