वेद में यज्ञों का वैज्ञानिक स्वरूप

December 1955

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विश्व की प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है । वह कभी भी सदा के लिए एकरस या एकरूप नहीं रह सकती। अतः प्रकृति के सभी पदार्थ परस्पर के संसर्ग से जहाँ बनते रहते हैं वहाँ वियोग से बिगड़ते भी रहते हैं। मिट्टी के परमाणु जलादि का संसर्ग पा कर घट मठ आदि नाना रूपों में बन भी जाते हैं ओर वहीं मिट्टी के परमाणु अन्य किसी कारण से वियोग को प्राप्त कर घटादि के नाश का भी कारण बन जाते हैं। इसलिये संयोग अर्थात् पदार्थ का परस्पर संगति के कारण ही संसार की स्थिति का कारण है। और वियोग विनाश का हेतु। यदि बीज और मिट्टी का संयोग न हो तो अंकुर पैदा नहीं हो सकता।रज आर वीर्य के संयोग के बिना बालक का जन्म नहीं हो सकता।अग्नि और जल के संयोग के बिना नाना आविष्कारों का वाष्प का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता । अतः मनुष्य का कर्त्तव्य है कि संसार की स्थिति को बनाये रखने के लिये पदार्थों के संगतिकरण रूपी पुरुषार्थ में सदा प्रयत्नशील रहें और इस संगतिकरण का नाम ही यज्ञ है। इसीलिए यज्ञ शब्द जिस वस्तु से बना है। उसके जहाँ दो अर्थ है। वहाँ संगतिकरण भी एक अर्थ है। अतः यज्ञ ही विश्व की स्थिति का मुख्य कारण है। बिना यज्ञ के समष्टि जगत ब्रह्मांड तथा व्यष्टि जगत शरीर दोनों की स्थिरता कायम नहीं रह सकती।जैसे यदि मनुष्य उत्तम अन्न, दुग्ध, घृत, शाक, फलादि का मिश्रण अर्थात् संगतिकरण करके यदि पक्काशय रूपी हवन कुण्ड में प्रज्वलित वैश्वानर रूपी यज्ञाग्नि में आहुति प्रदान न करे तो उस पक्काशय से रस रक्त अस्थि मज्जादि धातुओं की उत्पत्ति नहीं हो सकती । और इनके बिना शरीर रूपी व्यष्टि जगत का पोषण भी भली प्रकार हो सकता है और इन रसादि धातुओं से हीन शरीर या तो बीमार रहेगा या कमजोर अतः मनुष्य का कर्त्तव्य है कि जहाँ वह व्यष्टि जगत अर्थात् शरीर को कायम रखने के लिए घृत दुग्ध अन्न औषध पदार्थों का त्याग करता है अर्थात् उन की आहुति जठराग्नि रूपी यज्ञाग्नि में प्रतिदिन करता है वहाँ वह समष्टि जगत की स्थिति को भी सुचारु रूप से बनाये रखने के लिए प्रतिदिन घृत दुग्ध औषधि तथा अन्नादि का त्याग करे अर्थात् प्रतिदिन उनकी आहुति यज्ञाग्नि में प्रदान करे। इस लिए यज्ञवेद ने जब एक जिज्ञासु ने प्रश्न किया कि -

पृच्छामि यत्र भुवनस्य नाभिः

अर्थात् -भगवान ! मैं आपसे पूछता हूँ कि इस सारे भुवन की नाभिः अर्थात् आधार कहाँ है। तब वेद ने उत्तर दिया-

अयं यज्ञों भुवनस्य नाभिः

यह यज्ञ ही सारे विश्व की नाभि अर्थात् है। अतः यदि हम इस समग्र विश्व से अपने जीवन के लिए लाभ लेकर उसे कायम रखने का यत्न नहीं करते तो हम पाप के भागी बनते हैं। और हम उन दैवी शक्तियों की चोरी करते हैं जो कि सारे विश्व को चला रही हैं। इसी लिए भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है-

तै दर्त्तान प्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः।

अर्थात् -देवों के विश्व की दिव्य-शक्तियों के दिए पदार्थों को बिना उनके अर्पण किए जो भोग करता है वह चोर है। इसी लिए वेद ने स्थान पर यज्ञ करने का आदेश दिया है। ऋग्वेद में कहा है-

यज्ञेन वर्धत जातवेदसमाग्नि। यज्ञग्वं हविषा तना गिरा।

हे मनुष्यों! यज्ञ द्वारा इस यज्ञाग्नि को खूब करो और उत्तम हवियों द्वारा श्रद्धा भक्ति उदार से इस यज्ञाग्नि का यजन करो।”यह मन्त्र जहाँ हमें यज्ञ करने का आदेश देता है,वहाँ यह भी बताता है कि यज्ञ उत्तम हवियों तथा श्रद्धा और भक्ति से पूर्ण वाणियों द्वारा होना चाहिये। सड़े गले पदार्थों से तथा श्रद्धाहीन शुष्क वाणी से किया हुआ यज्ञ, यश के वास्तविक उद्देश्य को पूर्ण नहीं कर सकता। जिस प्रकार यदि हम उत्तम पदार्थ न खाकर सड़े,गले वाले पदार्थों का ही सेवन करें, तो जहाँ हमारा शरीर स्वस्थ, निरोग तथा बलवान नहीं रह सकता, वहाँ हमारे शरीर में जिसे कि वेद ने ‘देवानाँपुरः” कहा है जो दैवी शक्तियां निहित है। उनका भी विकास नहीं हो सकता। उसी प्रकार यदि हम यज्ञ तो करते हैं किन्तु उसमें सड़ी गली सामग्री, बासा और वैजिटेविल घृत आदि पदार्थों की हवि देते हैं। तो जर्हा ब्रह्मांड रूपी शरीर स्वस्थ, बलवान तथा निरोग नहीं रहेगा, वहाँ उसमें जो महान दैवी शक्तियां निहित हैं, उनका भी विकास नहीं हो सकेगा। अतः प्रत्येक पुरुष का यह परम कर्तव्य है कि वह अभीष्ट तथा व्यष्टि दोनों जगत् को कायम रखने के लिए, और उनमें निहित दैवी शक्तियों के विकास के लिए प्रतिदिन घृत, औषध, मेवा आदि उत्तम पदार्थों से यज्ञ करे। इसीलिए वेद ने कहा-समिद्ध अग्न आवह देवानख यतसुचे 29।1।42।।

है यज्ञ द्वारा प्रदीप्त अग्नि ! तू आज स्रुवा ग्रहण कर यज्ञ करने वाले यजमान में दैवी शक्तियों का संचार कर। इसी विषय को अथर्ववेद और अधिक स्पष्ट कहता है-

उत्तिष्ठ ब्रह्मणास्पते देवान् यज्ञेन बोघय।

आयुः प्राणं प्रजाँ पशून् कीर्तिं यजमानं च वर्धय।।

अ॰ 19।63।1

है ब्रह्मणस्पते ! चारों वेदों विद्वान ! तू अब उठ खड़ा हो, आलस्य मत कर ? उठ और यज्ञों द्वारा विश्व की दैवी शक्तियों को जागृत कर। और उन जागृत हुई दैवी शक्तियों के द्वारा जहाँ यजमान की सब प्रकार के सुखमय साधनों से बढ़ा, वहाँ प्राणिमात्र की आयु, जीवन शक्ति, उक्त प्रजा, अच्छे पशु और यश तथा कीर्ति को भी बढ़ा दें।”

इस मन्त्र में जहाँ यज्ञ द्वारा दैवी शक्तियों को जागृत करने का स्पष्ट वर्णन हैं, वहाँ दैवी शक्तियों के जागृत हो जाने पर प्राणि जगत् को लाभ होता है। उसका भी सुन्दर वर्णन किया गया है। सब से पहला लाभ वेद ने यज्ञ द्वारा आयु की वृद्धि कहा है। आयु की वृद्धि अर्थात् दीर्घायु की प्राप्ति शरीर के स्वस्थ और रोग रहित होने पर ही निर्भर है। नाना प्रकार की व्याधियों से जर्जरित शरीर कभी दीर्घायु नहीं हो सकता। और शरीर को स्वस्थ और निरोग बनाने के जहाँ अन्य उत्तम-आहार आदि साधन हैं, वहाँ यज्ञ भी एक मुख्य साधन हैं। यज्ञ द्वारा प्राप्त हुई रोग नाशक उत्तम औषधियों की सुगन्ध शरीर के समस्त रोगों को नष्ट कर देती है। तपेदिक (राजयक्ष्मा) का रोगी भी यदि वह यक्ष्मा नाशक औषधियों से प्रति दिन यज्ञ करे, तो औषधि सेवन की अपेक्षा बहुत जल्दी ठीक हो सकता है इसीलिए वेद में कहा है-

मुंचामित्वाहविषा जीवनाय कमज्ञातयक्ष्माद्र राजयक्ष्मात्।।

अ॰ 1।76।1।1।।

अर्थात्-हे मनुष्य मैं तेरे जीवन को स्वस्थ निरोग तथा सुखमय बनाने के लिए तेरे शरीर में जो गुप्त रूप से छिपे रोग है, उनसे और राजयक्ष्मा जैसे असाध्य रोग से भी (हविषा मुंचामि) यज्ञ की हवियों से छुड़ाता हूँ।”

यज्ञ से रोग निवृत्ति-

जब कोई साधारण रोग होता है, तो वैध या डाक्टर उसे खाने की औषधि दे देता है। किन्तु जब रोग बढ़ जाता है, या कोई असाध्य रोग होता है, तो डाक्टर न केवल औषधि देता है, प्रत्युत औषधि सेवन के साथ 2 इन्जेक्शन भी लगाता है। परन्तु यह यज्ञ रूपी डाक्टर सभी प्रकार के रोगों की दोनों प्रकार से एक साथ चिकित्सा करता है। औषधि सेवन द्वारा भी और इन्जेक्शन द्वारा भी। इसी लिए यज्ञ द्वारा सभी प्रकार के रोग जल्दी ठीक हो जाते हैं।

तत् तद् रोगों की औषधियों द्वारा किया हुआ यज्ञ जहाँ वह उन औषधियों की रोग नाशक सुगन्ध नासिका तथा रोमकूपों द्वारा सीधा सारे शरीर में पहुँचाकर इन्जेक्शन का काम करता है। वहाँ यही यज्ञ, यज्ञ के पश्चात यज्ञशेष को प्रसाद रूप में खिला कर औषध सेवन का भी काम करता है। इससे रोग के कीटाणु बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं। इसीलिए वेद में कहा गया है-

इदं हवि र्यातुधानान् नदीफेनमिवाऽऽवहत ।।

295।5।1।।

अर्थात्- हे मनुष्य! यह यज्ञ में प्रदान की हुई रोग नाशक हवि तेरे रोगोत्पादक कीटाणुओं को जैसे नदी फेनों को अपने वेग से बहाकर दूर ले जाती है, वैसे बहाकर दूर ले जाए, अर्थात् तेरे शरीर में से सदा के लिए बाहर निकाल दे। इससे पता लगा कि यज्ञ की रोगनाशक गन्ध शरीर में प्रविष्ट होकर रोग के कीटाणुओं के विरुद्ध अपना कार्य कर उन्हें नष्ट कर देती है। ऋग्वेद के एक अन्य मन्त्र में इस विषय को और अधिक स्पष्ट करके दर्शाया गया है।

त्वामग्गे प्रदिवः आहुत दहतैः सुम्नायवः सुपमिधा समीधिरे। स वावृधानः ओपधिमिरुक्षितोऽमि ग्रयाँसि पाथिर्वा वितिष्टसे।।

5।8।71।।

“ हे यशाग्ने! तुझे ज्ञानी जन सबके सुख की कामना करते हुए उत्तम समिधा और घृतादि पदार्थों से यज्ञ वेदी में प्रकाशित करने हैं। और तू यज्ञ में घृतादि औषधियों द्वारा सींचा हुआ। पार्थिवा+ग्रयाँसि+अभि+वितिष्ठि से पृथिवी के अयोग्य पदार्थों के सेवन से उत्पन्न हुए रोग के कीटाणुओं का चारों और से मुकाबला कर उन्हें नष्टकर देती है।”

यज्ञ से सूक्ष्म शक्ति का प्रादुर्भाव-

वेद के इस वचन से स्पष्ट हो गया है कि यज्ञ रोग के कीटाणुओं को अवश्य नष्ट कर देता है। सम्भवतः पाठक पूछेंगे कि ऐसा क्यों? उत्तर यही है, कि संसार में किसी भी पदार्थ का सर्वथा नाश नहीं होता। प्रत्युत रूपांतर में परिवर्तित हो जाता है । और पदार्थों का रूपांतर में परिवर्तित होने या हमारी आंखों से ओझल हो जाने का नाम ही लोप या नाष है। जैसा कि पाणिनि महर्षि ने अपने प्रसिद्धि ग्रन्थ अष्टाध्यायी में कहा है।

“अदर्शनं लोपः”

अर्थात् किसी पदार्थ के ने दीखने का नाम ही लोप या नाष है। अतः इस सिद्धान्त के अनुसार यज्ञ में डाले हुए घृत, औषधि आदि पौष्टिक तथा रोगनाशक पदार्थ भी नष्ट नहीं होते प्रत्युत अग्नि अपने भेदक गुणों के कारण, उन्हें छिन्न-भिन्न कर अति सूक्ष्म बना देती है। वे सूक्ष्म पदार्थ वायु द्वारा आकाश मण्डल में व्याप्त हो के उसमें रहने वाले सब प्राणियों के नासिका तथा रोमकूपों द्वारा पहुँचकर उनके रोगों तथा निर्बलताओं को नष्टकर उन्हें स्वस्थ बलवान तथा निरोग बना देती है। इसका एक ही उदाहरण हम पाठकों के सम्मुख रखते हैं। मेरे पास सौ मनुष्य बैठे है। मैं। चाहता हूँ कि वे सौ के सौ मेरे पास से उठ जाएं, यदि मैं। उन्हें उठाने के उद्देश्य से सब को एक 2 कड़वी मिर्च भी खाने को दे दूँ तो वे मिर्च तो शायद खालेंगे किन्तु वहाँ से उठकर नहीं जायेंगे। किन्तु प्रत्येक को एक 2 मिर्च न देकर केवल एक ही कड़वी मिर्च बारीक करके अग्नि में डाल दूँ तो उससे जो भड़ास उठकर उनकी नासिका में पहुंचेगी, उससे वे सभी मनुष्य छूँ छूँ करते हुए उठ कर भाग जायेंगे। पाठक देखें कि जितना सौ मिर्चों ने काम नहीं किया उतना अग्नि में डाली हुई एक मिर्च ने कर दिखाया। ऐसा क्यों? इसका यही उत्तर है कि अग्नि जहाँ अपने भेदक गुणों से पदार्थों का भेदन कर उन्हें सूक्ष्म बना देती है, वहाँ उन की शक्ति को भी कई गुणा अधिक बढ़ा देती है। अग्नि द्वारा भाप बना हुआ जल हजारों मनुष्यों से भरी गाड़ी को साठ सत्तर मील घण्टे की तेज रफ्तार से खींच कर ले जाता है, किंतु बिना भाप, उससे दस गुना जल भी गाड़ी को अपनी जगह से हिला तक नहीं सकता। एक तोला स्वर्ण में उतना बल और शक्ति देने की सामर्थ्य नहीं, जितनी अग्नि द्वारा भस्म बनी हुई उस की एक रत्ती की मात्रा में है। इसीलिए अग्नि ने उस मिर्च को न केवल सूक्ष्म बना दिया, प्रत्युत उसमें सौ गुना अधिक शक्ति का संचार कर दिया। अब जबकि अग्नि में डाला हुआ छोटा सा अहितकर पदार्थ सैकड़ों मनुष्यों को हानि पहुँचा सकता है, वहाँ यज्ञ में सेरों और मनों ढाले हुए हितकर पौष्टिक तथा रोग नाशक पदार्थ कितने असंख्य प्राणियों का कल्याण करते होंगे। इसका अनुमान पाठक स्वयं लगा सकते हैं अग्नि किस प्रकार पदार्थों को सूक्ष्म तथा शक्तिशाली बना देती है, इसका ऋषि दयानन्द ने यज्ञ की महत्ता का वर्णन करते हुए एक बहुत अच्छा उदाहरण, दिया है। उन्होंने लिखा है--घर में सेर भर जीरा पड़ा हुआ है, किंतु उसकी सुगन्ध किसी को भी नहीं आ रही। परन्तु घर की गृहिणी उसमें से छः माशा जीरा लेकर अग्नि में खूब तपे थोड़े घृत में डाल कर जब दाल में पगार (छोंक) लगा देती है तो न केवल वही एक ही घर प्रत्युत आस पास के सभी घर उस की सुगन्ध से सुगंधमय हो जाते हैं। जो लोग आज कल की पाश्चात्य शिक्षा में दीक्षित अपने को “साइन्स वेत्ता” कहते हुए भी वह कहने लगते हैं कि क्यों अग्नि में घृतादि पदार्थों को डालकर नष्ट करते हो, वे भी उपर्युक्त पदार्थों के वैज्ञानिक तत्व पर अवश्य विचार करें।

यज्ञ से परिपूर्ण वर्षा

आयु वृद्धि का कारण जहाँ स्वस्थ तथा निरोग शरीर है, वहाँ शरीर का बलवान् तथा हृष्ट पुष्ट होना भी कारण है। जहाँ निर्बल तथा कमजोर शरीर जल्दी मृत्यु का वास बन गया है। वहाँ बलवान पुरुष से मृत्यु भी डर कर दूर भागती है। शरीर का बलवान होना शक्ति प्रद पौष्टिक पदार्थों के अपने पाचनशक्ति के अनुसार यथेष्ट मात्रा में सेवन पर निर्भर है और पौष्टिक पदार्थों की पर्याप्त मात्रा वृष्टि के ऊपर निर्भर है। जिस देश में न अति वृष्टि और नहीं अल्प वृष्टि होगी वहाँ पुष्टिप्रद खाद्य पदार्थों की कमी कदापि न रहेगी। यज्ञ जहां अपनी रोग नाशक शक्ति से प्राणि मात्र के रोगों को दूर करता है, वहाँ यज्ञ की हवियां सूक्ष्म बनकर आकाश मार्ग से ऊपर अन्तरिक्ष में जाकर वृष्टि को उत्पन्न करने का भी कारण बनती हैं। न केवल साधारण वृष्टि का, प्रत्युत पौष्टिक और रोग नाशक वृष्टि का भी इसीलिए सामवेद में कहा है-

घृत पवस्व धारया यज्ञेषु देववीतमः। अस्मभ्यं वृष्टिमापव।। सामवेद-उत्तरा. अ. 13, ख. 1 मं. 3।।

अर्थात्-हे विद्वान! तू यज्ञ में घृत की धाराओं को बहा। ओर उनके द्वारा यज्ञ के पवित्र कर दे। तथा उसके द्वारा हमारे लिये वृष्टि को उत्पन्न कर और उस वृष्टि को पवित्र अर्थात् रोग नाशक और बलप्रद बना दे। यहाँ घृत शब्द अन्य सब यज्ञीय पदार्थों का उपलक्षण है।

यज्ञ से वृष्टि किस प्रकार होती है। इसका कुछ संक्षिप्त वैज्ञानिक विश्लेषण हम पाठकों के सम्मुख रखना चाहते हैं।

आज कल के वैज्ञानिकों का मत है कि जल यह कोई स्वतंत्र तत्व नहीं, प्रत्युत हाइड्रोजन और आक्सीजन नाम की दो प्रकार की प्राणवायु (गैसों) के मेल से जल तत्व की उत्पत्ति होती है। वेद भी वैज्ञानिकों के इस विचार का समर्थन करता है। वेद में जल तत्व को उत्पन्न करने वाली इन गैसों के ‘मित्र’ और ‘वरुण’ के नाम से कहा गया है। जैसा कि वेद में कहा है-

मित्र हुये पूत दक्षं वरुणं च रिषादसम्। धियँ धृताची साधन्ता।। ऋ. 1।2।7।।

जल तत्व का निर्माण करने वाला वैज्ञानिक कहता है- मैं पदार्थों को पवित्र करने में दक्ष और सबसे हलकी होने से अन्य सूक्ष्म पदार्थों को मापने का साधन होने से मित्र अर्थात् हाइड्रोजन वायु को और रोग को खा जाने वाली और स्वास्थ्य प्रद होने से सबके वरण योग्य ‘वरुण’ अर्थात् आक्सीजन वायु को अपने पास बुलाता हूँ’ क्योंकि ये दोनों (घृताचीम् x धियम्) जल निर्माण करने की विद्या को (साधन्ता) सिद्ध करने वाले हैं। वेद के इस वचन से स्पष्ट होता है कि ‘मित्र’ और ‘वरुण’ नाम की दो प्राणवायु ही जल को निर्माण करने वाली है। यही जलीय तत्व को उत्पन्न करने वाले ‘मित्र’ और ‘वरुण’ अंतरिक्ष में व्याप्त हों रहे है। इसीलिए अंतरिक्ष को जलों का स्थान माना गया है और वेद भी इसका समर्थन करता है-

“ततः समुद्रों अर्णवः”

अर्थात्-सृष्टि उत्पत्ति के समय भगवान् ने जल से पूर्ण आकाश को उत्पन्न किया। यहाँ जल से तात्पर्य कार्यरूप जल नहीं, प्रत्युत जल को उत्पन्न करने वाले मित्र और वरुण नामक सूक्ष्म प्राणवायु से है इन दोनों प्राणवायु को मिलाने का कारण जहाँ सूर्य की किरणें आदि अन्य कारण भी है, वहाँ यज्ञ भी इन दोनों को मिला कर जल के निर्माण करने का मुख्य साधन है। अतः प्राचीन तत्व वेत्ता ऋषि जब देश में वृष्टि का अभाव देखते थे, जो सूक्ष्मरूप में शक्ति सम्पन्न होकर अन्तरिक्ष में आकर इन दोनों गैसों को मिलाने का कमा करते थे तथा इस संगतिकरण के द्वारा जल को उत्पन्न कर पृथ्वी पर बरसा देते थे। और ‘मानसून’ के जल को भी कई गुना अधिक बढ़ा कर पर्याप्त वर्षा के बरसाने का कारण बनते थे। इसीलिए वेद में विभिन्न और वरुण को वृष्टि का अधिपति कहा है। यथा-

मित्रावरुणौ वृष्ट्याधिपाती तो माऽवताम् ।।अ.5।।।

अर्थात्- मित्र और वरुण वृष्टि के अधिपति हैं। अतः वे वृष्टि द्वारा मेरी रक्षा करें। सम्भवतः पाठक कहेंगे, उपर्युक्त यन्त्र में “वृष्टि द्वारा” मेरी रक्षा करें ऐसा कहा हैं केवल वे दोनों मेरी रक्षा करें। इतना ही कहा है। प्रथम वो मन्त्र में वृष्टि का अधिपति कहने से प्रार्थी का अभिप्राय वृष्टि द्वारा ही रक्षा करने का है और वृष्टि द्वारा ये मित्र और वरुण रक्षा करें” ऐसा स्पष्ट निर्देश भी यदि पाठक देखना चाहें तो यजुर्वेद के निम्न मन्त्र में स्पष्ट रूप से देख लें-

“मित्रावरुणौत्वा वृष्ट्याऽवताम्” यग्न. 2।16

मित्र और वरुण वृष्टि द्वारा तेरी रक्षा करें। यज्ञ में डाली गई, मित्र और वरुण का संगतिकरण करने वाली आहुतियाँ जहाँ अन्तरिक्ष में व्याप्त होकर वर्षा के होने का कारण बनती थी, वहाँ वे आहुतियाँ सूर्य के किरणों द्युलोक में भी जो कर उन किरणों की उपर्युक्त दोनों प्रकार की गैसों को मिलाने की शक्ति को भी कई गुणा अधिक बढ़ा दिया करती थी। इसी लिए मनु ने कहा है-

अग्नौ प्रास्ताऽऽहुतिः सम्यगादित्य मुपतिष्टते। आदित्याज्जायते वृष्टि वृष्टेरन्नं ततः प्रजा।।

अर्थात्- भली प्रकार विचार पूर्वक अग्नि में डाली हुई आहुति आदित्यलोक अर्थात् द्युलोक में पहुँचती है। ओर फिर द्युलोक से वृष्टि- वृष्टि से अन्न तथा अन्न से प्रजाओं का पालन होता है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि यज्ञ भी वृष्टि के उत्पन्न करने का एक मुख्य साधन है। आज अमरीका आदि देशों में कृत्रिम बादलों का निर्माण कर उन्हें पृथ्वी पर बरसाया जा रहा है। यह उपयुक्त दोनों गैसों को विज्ञान द्वारा मिश्रण करने का ही परिणाम है। हमारे प्राचीन ऋषि इसी संमिश्रण अर्थात् संगतिकरण को यज्ञ द्वारा किया करते थे। यज्ञशालाएं ही उनकी प्रयोगशालाएं हुआ करती थी।जिसमें वे नाना प्रकार के परीक्षण किया करते थे। वेद में यज्ञ द्वारा वृष्टि निर्माण का एक और स्पष्ट प्रमाण देखिये-

समानमेतदुदकमु च्चैत्यच चाहभिः। भूमि पर्जन्या जिन्वन्ति दिवं जिन्वन्त्यग्नयः।।

अर्थात् - जल में यह समान क्रिया है कि वह (अहोभिः x उत् x एति x अव + च) कालान्तर में कभी ऊपर चला जाता है और कभी नीचे आ जाता है। इसीलिए(अग्नयः x जिन्वन्ति)यज्ञ की अग्नियाँ ऊपर जाकर द्युलोक को जल से सींच देती हैं और (पर्जन्याः x भूमिम् x जिन्वन्ति)और वह जल बादल बनकर नीचे पृथ्वी को सींच देता है।महर्षि दयानन्द अपने ऋग्वेद भाषा में लिखते हैं- मनुष्यै र्येन मेघेन सर्वस्य पालनं जायते

वह वृष्टि तथा अपनी सुगंध आदि के द्वारा दीर्घायु प्रदान करने वाला है। इसमें कुछ भी सन्देह नहीं। इसीलिए वेद में कहा है- त्वमग्ने वृहद् वयो दधासि देव दाशुषे। ऋ. 8।10।2।1।।

तस्योन्नति वृष्टिप्रवापेन,वनरक्षणेन होमेन च संसाधनीया। यतः सर्वस्य पालन सुखेन जायते। ऋग्वेद भाष्य।।5।83।4।।

अर्थात् -जिस मेघ के द्वारा सब का पालन होता है उसकी उन्नति हरे वृक्षों के बोने से हरे हरे वनों की रक्षा से और प्रतिदिन यज्ञ करने से मन मनुष्यों को सिद्ध करनी चाहिए। अतः यज्ञ वृष्टि का एक मुख्य साधन हैं।और

प्राण शक्ति की अभिवृद्धि

वेद ने यज्ञ का दूसरा लाभ प्राप्ति मात्र में प्राण शक्ति अर्थात् जीवन शक्ति का संचार होना बताया है अर्थात् यज्ञ द्वारा जहाँ शरीर स्वस्थ बलवान और निरोग बनता है वहाँ यज्ञ द्वारा ही उसमें जीवन शक्ति का भी विकास होता है। यह कैसे ? संभवतः पाठक पूछेंगे ।इस सम्बन्ध में संक्षेप, इतना ही निवेदन है कि जितने भी अग्नितत्व- प्रधान पदार्थ हैं, या जहाँ भी अग्नि तत्व की प्रधानता है वही जीवन शक्ति का निवास है।प्रतिदिन यज्ञ करने से जहाँ शरीर में अग्नि तत्व का संचार होता है, वहाँ यज्ञीय वृष्टि से पुष्ट होकर अग्नितत्व-प्रधान बने पदार्थों का भी सेवन करने से शरीर में जीवन शक्ति अर्थात् विद्युत शक्ति का भी विकास होता है। इस प्रकार यज्ञ कर्ता दिन प्रति-दिन शारीरिक,मानसिक तथा आत्मिक शक्तियों से पुष्ट होता जाता है-इसीलिए वेद में कहा है-

सो घा यस्ते ददाशति समिधा जातवेदसे। सो अग्नेधत्ते सुवीर्यें से पुष्यति।।

अर्थात् -हे यज्ञाग्ने! जो तेरे लिए समिधा प्रदान करता है। वह निश्चय से ही उत्तम वीर्य को धारण करता है और वह सब प्रकार से पुष्ट होता है।

वेद ने यज्ञ का तीसरा लाभ प्रजा की प्राप्ति बताया है। अर्थात् जो मनुष्य विधिपूर्वक पुत्रेष्टि आदि यज्ञ करता है, उसे अवश्य सन्तान की प्राप्ति होती है। सन्तान भी केवल साधारण सन्तान नहीं। प्रत्युत राम जैसी धर्मात्मा और वीर सन्तान जैसा कि वेद ने स्वयं कहा है-

अग्ने स्तुविश्रवस्तमं तुवि ब्राह्मणमुत्तमम्। अतूर्तं श्रावयत्पतिं पुत्रं ददासि दाशुषे ।।

अर्थात् - यज्ञाग्नि अपने हवि देने वाले के लिए अत्यन्त यशस्वी ज्ञानवान, अहिन्सति अर्थात् किसी से पराजित न होने वाले, वक्ताओं में श्रेष्ठ वक्ता ऐसा सर्वगुण संपन्न अर्थात् सर्वोत्तम पुत्र प्रदान करती है।

उत्तम सन्तान की प्राप्ति

पाठक देखें? वेद यज्ञ कैसे पुत्र की प्राप्ति का निर्देश करता है। अब यज्ञ द्वारा उत्तम संतान की प्राप्ति कैसे होती है, हम थोड़ा विवेचन इस सम्बन्ध में पाठकों के सम्मुख रखना चाहते हैं। माता पिता के रज, वीर्य के संयोग से ही बालक का जन्म होता है। किंतु यदि माता पिता दोनों का रज, वीर्य संतान उत्पन्न करने योग्य नहीं। अथवा केवल माता का रज या केवल पिता का वीर्य संतान उत्पन्न करने के अयोग्य है, तो भी संतान उत्पन्न नहीं होती। तात्पर्य यह है कि पुरुष या स्त्री के अन्दर यदि संतान उत्पन्न करने की शक्ति विद्यमान नहीं, तो वे कदापि सन्तान उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हो सकते। पुरुष अग्नि तत्व-प्रधान है, और स्त्री चन्द्र सोम तत्व प्रधान। और ये दोनों तत्व ही सन्तानोत्पत्ति के कारण है। जब माता पिता के अंदर यह दोनों तत्व अपनी उचित मात्रा में विद्यमान होते हैं तो अवश्य सन्तान उत्पन्न होती है। इसमें कुछ भी सन्देह नहीं। किन्तु यदि स्त्री पुरुष दोनों में उपर्युक्त दोनों तत्वों का अभाव होता है, या स्त्री के अन्दर सोम तत्व तो है किन्तु पुरुष के अंदर अग्नि तत्व का अभाव है। अथवा पुरुष के अंदर अग्नि तत्व के होने पर भी स्त्री सोम अर्थात् चन्द्र तत्व से रहित है; तो भी संतान उत्पन्न नहीं होती। हमारे प्राचीन तत्ववेत्ता ऋषि इस रहस्य को भली प्रकार जानते थे। और पुत्रेष्टि यज्ञ के द्वारा संतानहीन स्त्री पुरुष के अंदर इन दोनों तत्वों को स्थापित कर, उन्हें संतान उत्पन्न करने के योग्य बना देते थे। जब वे देखते थे कि पुरुष के अंदर अग्नि तत्व की न्यूनता से अमुक दंपत्ति की संतान नहीं होती, तो वे अग्नितत्व-प्रधान औषधियों से उस पुरुष से यज्ञ में आहुति दिलवाते थे और यदि स्त्री में संतान उत्पत्ति के कारण सोमतत्व की कमी को अनुभव करते थे, तो स्त्री से सोमतत्व प्रदान औषधियों से युक्त हवियाँ यज्ञ में प्रधान करवाते थे या दोनों तत्वों की कमी होने पर दोनों से उभय तत्व प्रधान औषधि की हवि दिलवाते थे। और यज्ञ के अन्त में उपर्युक्त औषधियों के मिश्रण से ही स्थालीपाक अर्थात् खीर आदि बनवा कर, उनके हाथों से उसकी स्विष्टकृत आहुति दिलवाने के पश्चात शेष बचे स्थालीपाक को यज्ञ शेष के रूप में स्त्री पुरुष दोनों या दोनों में से एक को भक्षण करवाते थे। इससे जहाँ उन औषधियों की सुगन्ध नासिका तथा रोमकूपों द्वारा प्रविष्ट होकर उपर्युक्त तत्वों के बढ़ाने में सहायक होती थी वहाँ उन औषधियों के मिश्रण से बने क्षीरादि यज्ञ शेष के खाने से भी पुरुष में अग्नि तत्व तथा स्त्री में सोमतत्व की कमी की पूर्ति हो जाती थी। वेद में इस प्रकार की पुत्रोत्पादक औषधियों का कुछ निर्देश भी मिलता है

जैसा कि अथर्ववेद में लिखा है-

शमीमश्वत्थ आरुढ़ स्तत्र पंसवनं कृतम्। तद्वै पुत्रस्य वेदनं तत्स्त्रीष्वा भरामार्स।।

ऋ. 6,11,1 ।।

जहाँ पीपल का वृक्ष के शमीवृक्ष खोक के अन्दर से उग कर उसके ऊपर छा गया हो। वहाँ यदि पुँसवन संस्कार किया जाय तो उस संस्कार के द्वारा अवश्य पुत्र प्राप्ति का लाभ होता है। सभी वृक्ष अग्नितत्व प्रधान तथा पीपल सोम तत्व प्रधान है। जो पीपल शमीवृक्ष की खोक से उत्पन्न होगा। उसमें दोनों तत्वों का समावेश को जायेगा। अपना सोमतत्व भी और शमीवृक्ष का अग्नितत्व भी। उस पीपल की कोपलों या बीजों द्वारा औषधि निर्माण कर उसे यज्ञ शेष में मिश्रण कर खिलाने, और उस पीपल के बीजों की आहुति तथा उसकी समिधाओं द्वारा यज्ञ करने से पुत्र का जन्म होना सम्भव है। विज्ञ वैद्य-वर्ग इसका अधिक विचार करे, अग्नि की उत्पत्ति के रहस्य का वर्णन बड़े वेद त्तिष्ट शब्दों में करता है। ऋग्वेद में लिखा है-

अग्निषोमा य आहुतिं यो वा दाशद्धविष्कृतिम्। स प्रजया सुवीर्यं विश्वाण्र्युव्यश्नवत्।।

अर्थात्-जो पुरुष या स्त्री अग्नि और सोम के लिए अर्थात् इन दोनों तत्वों की वृद्धि के लिए यज्ञाग्नि में घृतादि तथा उत्तम औषधियों की हवि प्रदान करता है। वह उत्तम वीर्यवान् अर्थात् दोनों तत्व प्रधान बन कर उसके द्वारा उत्तम प्रजा से युक्त होकर सम्पूर्ण आयु का भोग करता है।

इस मन्त्र से स्पष्ट है कि अग्नि और सोमतत्व की वृद्धि के लिए दी हुई आहुति अवश्य संतानोत्पत्ति का कारण बनती है। इसीलिए गर्भाधान संस्कार में जिन मन्त्रों द्वारा भात या खीर की आहुति दी जाती है। उनमें निम्न तीन मन्त्र भी है-

ॐ अग्नये पावकाय स्वाहा, ॐ अदित्यै स्वाहा, ॐ प्रजापतये स्वाहा।

पुत्र प्राप्ति की कामना करता हुआ पुरुष अग्नि में आहुति प्रदान करता हुआ कहता है- मैं वीर्य को पवित्र कर, उसे सन्तानोत्पत्ति के योग्य बनाने वाले, गर्भ को खण्डित न करने वाले अर्थात् गर्भपात को रोकने वाली शक्ति से युक्त और गर्भ में प्रजा अर्थात् संतान पालन और पोषण करने वाले अग्नि के लिए अर्थात् अग्नि तत्व की वृद्धि के लिए यह उत्तम औषधियों द्वारा निर्मित भात या खीर की आहुति प्रदान कर रहा हूँ।”

दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ में शृंग्य ऋषि ने कौशल्या आदि को साधारण चावलों की खीर नहीं प्रत्युत उपर्युक्त गुणों से युक्त औषधियों द्वारा निर्मित खीर का ही आस्वादन कराया था। इसीलिए उन माताओं ने राम, लक्ष्मण जैसे धर्मात्मा वीर पराक्रमी पुत्रों को जन्म दिया था। अब पाठकों को भली प्रकार अवगत हो गया होगा कि पुत्रेष्टि यज्ञ द्वारा किस प्रकार उत्तम वीर, धर्मात्मा, पराक्रमी, संतान का जन्म होता है। इसी पुत्रेष्टि यज्ञ का वर्णन वेद कैसे सुन्दर शब्दों में कहता है। जैसा कि यजुर्वेद में कहा है-

सिनीवालि पृथुष्टुके या देवानार्माज्ञिस्वसा।

जुपस्व हव्यमाहुतं प्रजा देवि दिदिडिढ नः।।

यजु. 24।10।।

हे सबको स्नेह बन्धन में बान्धने वाली, सुन्दर तथा सुडौल शरीर वाली स्त्री! तू देवों की बहिन है, अर्थात् तू भी साक्षात देवी है। इसलिए हे देवी! इस पुत्रेष्टि यज्ञ में देवताओं के निमित्त आहुति रूप में दिए हुए स्थाली पकादि उत्तम पदार्थों का तू भी सेवन कर और हमारे लिए उत्तम वीर प्रजा को उत्पन्न कर।

यज्ञ द्वारा उपर्युक्त तत्वों की वृद्धि तो सन्तानोत्पत्ति का कारण बनती ही है किंतु विद्वानों, देवताओं, ऋषि मुनियों का आशीर्वाद और यज्ञीय मन्त्रों द्वारा माता पिता के अन्दर उत्पन्न हुई प्रबल भावना तथा पूर्ण विश्वास भी पुत्रोत्पत्ति में पूर्ण सहायक होते हैं। इसलिए जिस शतपथ ब्राह्मण के मन्त्र द्वारा यजमान तथा यजमान पत्नी स्थाली पाक की स्विष्टकृत आहुति देते हैं। उसमें कहा गया है- यह यज्ञाग्नि मुझे इस को प्राप्त कराने वाला बना दे। हे सब कामनाओं को पूर्ण करने वाली स्विष्टकृत आहुति तू हमारी सब कामनाओं का पूर्ण कर दे।

यज्ञ द्वारा यजमान की सब कामनाओं पूर्ण होती हैं इस पर भी यह मन्त्र उत्तम प्रकाश डालता है।

पशुओं की परिपुष्टि

वेद ने यज्ञ का चौथा लाभ उत्तम पशुओं की प्राप्ति बताया है ऊपर बतलाया जा चुका है कि यज्ञ वर्षादि के द्वारा प्राणिमात्र का परम हितकारी है, उन्हें आरोग्य, बल और पुष्टि प्रदान करता है। अतः भी इससे पुष्टि प्राप्त करेंगे इसमें कुछ भी संदेह ड़ड़ड़ड़डड भी यज्ञ द्वारा की हुई वृष्टि से उत्पन्न हुए रोग न पुष्टिप्रद ग्रासों और अन्नों को खाकर गौयें, भैंसे डडडडडड पशु क्यों नहीं बलवान और पुष्कल पुष्टिप्रद दूध आदि पदार्थों के देने वाले बनेंगे। इसीलिए आज जहाँ हमारे देश में दूध, दही, धृत आदि पुष्टिप्रद पदार्थों का अभाव हो रहा है। वहाँ प्राचीन वैदिक काल में दूध, दही की नदियाँ बहती थी। इसी लिए वेद में भगवान यज्ञ कर्ता यजमानों को आशीर्वाद देते हैं-

अयं यज्ञो गातुबिन्नार्थावित् प्रजाविदुग्रः पशुविदे

वीरविद्वो अस्तु ।। अ॰ 11,1,15

हे यज्ञ कर्त्ता यजमानों! यह (उग्र x यज्ञः प्रचण्ड अग्नि से देदीप्यमान यज्ञ तुम्हारे लिए सस्पशालिनी पृथ्वी, परम-ऐश्वर्य, उत्तम-प्रजा, बलवान पशु और पराक्रमी सन्तान प्रदान करने वाला हो।

अक्षय कीर्ति का विस्तार

वेद ने यज्ञ का पाँचवाँ लाभ यशस्वी और कीर्तिमान होना बताया है। इसमें कुछ भी संदेह नहीं कि यज्ञ द्वारा मनुष्य यशस्वी और कीर्तिमान बनता है। उसकी कीर्ति रूपी सुरभि यज्ञ की सुगन्ध के समान चारों दिशाओं में फैल जाती है। इसी लिए वेद में प्रार्थना की गई है।

जातवेदो यशो अस्मासु धेहि ।

“हे यज्ञाग्ने! तू हमारे अन्दर यश को धारण कार।” भला जो विश्व के कल्याण के लिए यज्ञों का अनुष्ठान करेगा। अपने जीवन को भी यज्ञमय अर्थात् परोपकारमय बना देगा। उसकी कीर्ति चन्द्रिका क्यों नहीं विश्व में चमकेगी।

दूसरा- संसार में वह भी यशस्वी और कीर्तिमान होता है। जो वीर, पराक्रमी, और साहसी बन कर अपन


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