विश्व-कल्पतरु यज्ञ

December 1955

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(श्री. पं. दुर्गादत्तजी त्रिपाठी, बनारस)

शास्त्रों के परिशीलन से यह विदित होता है कि सृष्टि के प्रारम्भ में सर्वव्यापक, सर्वाधार, सर्वज्ञ, विराट् पुरुषसंज्ञक परमात्मतत्त्व से आज्य, समित्, इघ्मा, हवि, ग्राम्य-आरण्य पशु, अश्व, गौ, अजादि समस्त यज्ञ साधक सामग्री, यज्ञविधि बोधक ऋगादि वेद तथा यज्ञ सम्पादक ब्राह्मणादि वर्णों का प्रादुर्भाव हुआ और देवगण, साध्यगण, ऋषिगण आदि ने इनकी सहायता से यज्ञ पुरुष भगवान का यजन किया। यही सर्वप्रथम धर्म हुआ और इसी का अवलंबन करके उन्होंने अपने अभीष्ट स्वर्गादि की प्राप्ति करली (पुरुषसूक्त, श्रीमद्भागवत स्कन्ध 2; अध्याय 5-6 इत्यादि)-“यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। तेहनाकं महिमानःसचन्त”, पुरुषत्वयवैरेते सम्भाराः सम्भृता मया। इति सम्भृतसम्भारः पुरुयवायवैरहम्। तमेव यज्ञपुरुषं तेनैवा यजमीश्वरम्।। ततन्ते भ्रातर इमे प्रजानाँ पतयोनव। अयजन् व्यक्तमव्यक्तं पुरुषं सुसमाहिताः।। ततश्च मनवः कालेईजिरे ऋषयोऽपरे। पितरो विवुधा दैत्या मनुष्याः क्रतुभिर्विभुम्।।”

भारतीय प्राचीन समस्त साहित्य एक स्वर से यज्ञ के महत्व उपादेयता की अनिवार्यता की साक्षी दे रहा है। प्रधानतया मनुष्य की दो ही अभिलाषाएं होती हैं-एक इष्ट प्राप्ति और दूसरी अनिष्ट निवृत्ति इन्हीं दो में समस्त अभ्युदय एवं निःश्रेयस का समावेश हो जाता है। अभ्युदय लौकिक पारलौकिक भेद से दो प्रकार का है। स्त्री-पुत्र, धन-धान्य ऐश्वर्य, राज्य, साम्राज्यादि की प्राप्ति लौकिक अभ्युदय और स्वर्ग सुख, ऐन्द्र, ब्राह्मपद आदि का सम्पादन पारलौकिक अभ्युदय हैं। इन दोनों अभ्युदयों तथा अनन्त अखंड आनन्द स्वरूप निःश्रेयस की उपलब्धि का अव्यर्थ एवं एकमात्र कारण यज्ञ ही बतलाया गया है।

प्रत्यक्षानुमान मूलक लौकिक प्रयत्नों से भी जिन अभिलषित वस्तुओं की प्राप्ति नहीं हो सकती, वैसे अनिष्टों के परिहार का मार्ग वेद बतलाते हैं। प्रत्यक्ष तथा अनुमान द्वारा जिन वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता, ऐसे तत्वों का ही ज्ञान वेदों से होता है। यही वेदों का महत्व एवं उपयोगिता है।

मन्त्र ब्राह्मणात्मक अखिल वेदराशि प्रायः विविध यज्ञों का ही निरूपण करती है। वेदों के उपवृंहक समस्त श्रौत-स्मार्त-धर्मसूत्र, स्मृतियाँ, इतिहास, पुराण तन्त्र एवं आगम ग्रन्थ भी विविध यज्ञों का ही प्रकाशन कर रहे हैं। शास्त्रों के इन प्रयत्नों से यही अवगत हो रहा है कि प्राणियों के सकल कल्याण के एकमात्र साधन यज्ञ ही है। यज्ञों के अवलम्बन से समस्त सुख शान्ति ऐश्वर्य की प्राप्ति एवं दुःख, अशान्ति, दारिद्रादि का निवारण होती हैं और यज्ञों की उपेक्षा में ही प्राणी अपने अभीष्ट सुखादि से वंचित होकर अनन्त दुःखों का भाजन बनता है।

पारलौकिक अभ्युदय की चर्चा घड़ी भर के लिए छोड़ भी दे तो भी लौकिक अभ्युदय के लिए भी बिना यज्ञ की सहायता के काम नहीं चल सकता। कई बार मनुष्य के सामने ऐसी परिस्थिति उपस्थित हो जाती हैं कि लाख लौकिक प्रयत्न करने पर भी वह अपना अभीष्ट नहीं पाता अथवा अथक लौकिक उपायों के अवलम्बन करने पर भी कष्ट से उसका पिण्ड नहीं छूटता। ऐसी परिस्थिति में शास्त्रों से उसे आश्वासन मिलता है कि आओ, अब हमारे बतलाये मार्ग का कुछ समाश्रयण करो, उनसे तुम्हारा अभीष्ट अवश्य सिद्ध होगा। और यह असंख्य प्राणियों ने अनन्त बार अनुभव किया हैं कि वेद शास्त्रोक्त कर्मरूप यज्ञों का सहारा लेने से मनुष्य कष्ट से मुक्त होकर सुख शान्ति का भागी बना है।

मनुष्य यदि स्वस्वर्णाश्रमानुसार स्वाधिकारानुरूप अपने लिए विहित कर्मरूप यज्ञों के अनुष्ठान में आरुढ़ रहे, तो सहसा उसे दुःख दारिद्रादि के संकट में पड़ना ही न पड़े। यज्ञों की उपेक्षा के ही परिणाम स्वरूप विभिन्न विपत्तियों का प्राणी को सामना करना पड़ता है। रामराज्य में, धर्मराज्य में जब कि “नानाहिताग्निर्नायज्वा” के अनुसार कोई द्विजाति अन्याधन एवं यज्ञयागादि स्वकर्म धर्म के आचरण से विमुख नहीं था, तब ‘दैहिक दैविक भौतिक तापा, रामराज्य काहूँ नहिं व्यापा’ के अनुसार सभी लोग विविध तापों से रहित एवं सर्व प्रकार से सुखी शान्त थे। समय समय पर आवश्यकतानुसार मेघ वृष्टि करते थे, विपुल मात्रा में अन्न फूलादि उत्पन्न होते थे, प्राणिमात्र सन्तुष्ट एवं प्रसन्न थे। यह तो मानना ही पड़ेगा कि कभी कभी जब लोग चाहते हैं कि वृष्टि हो परन्तु नहीं होती, कभी न चाहने पर भी होती है। कभी जितनी चाहता है, उतनी नहीं होती, कभी आवश्यकता से अधिक होती हैं। फलतः चाहने पर भी मनचाही फसल नहीं पैदा होती कभी अवर्षण से, कभी अकालवर्षण से कभी खण्ड वृष्टि से, कभी अतिवृष्टि से फसल विनष्ट हो जाती हैं। पैदा हुई भी तो कभी ओले गिरने से, कभी पाले से, कभी चूहे, खरगोश, तोते, बन्दर, टिड्डी आदि के भयानक आक्रमणों से तैयार फसल भी देखते देखते साफ हो जाती हैं। कभी खत्तियों में भरा हुआ अन्न तथा तृण का संचय भी बाढ़, अग्निकाँड या कीड़े-मकोड़ो के उत्पात से चौपट हो जाता है। मनुष्य इन सब उपद्रवों का आगमन हृदय से न चाहता हुआ भी उनका किंचितमात्र भी प्रतीकार नहीं कर पाता, वह हाथ पर हाथ धरे बैठा हुआ टुकुर टुकुर ताकता रहता है और कोई प्रबल शक्ति उसकी इच्छा, उसकी आशा के विरुद्ध उसकी सब सम्पत्ति विनष्ट कर डालती हैं, संसार में हाहाकार मच जाता है, दुर्भिक्ष के बादल मंडराते हुए विश्व में विभीषिका उत्पन्न करते हैं। मनुष्य के सब प्रयत्न, सब बुद्धिमानी, सब हेकड़ी निरर्थक हो जाते हैं।

ऐसा क्यों होता है? कौन करता हैं? इसका उत्तर आधुनिक विज्ञान के पास भी नहीं हैं। प्रकृतिकोप के आगे आज के विज्ञान के सभी आविष्कार निष्फल से रह जाते हैं, जिन पर कि आज के युग के मानव को बड़ा गर्व हैं। किन्तु वह गर्व किसी अनन्त शक्ति सम्पन्न की एक सहज लीला के आगे चकनाचूर हो जाता है। आज यह सब दृश्य जगत में आँखें खोलकर देखने वालों को अनुभूत हो रहा हैं। शास्त्र इस विषय में बतलाते हैं कि ‘भाई! सृष्टिकर्ता प्रभु ने जब सृष्टि रचना की थी, उसी समय तुम्हें उत्पन्न करके यह बतला दिया गया था कि समस्त विश्व की व्यवस्था ठीक तरह से चलाने, उसे कायम रखने एवं नियन्त्रित करने के लिए अदृश्य देवशक्ति का निर्माण किया गया हैं और उसे प्रसन्न कर अपना अभीष्ट सिद्ध करने के लिए उपाय रूप में वेद-शास्त्र द्वारा यज्ञों का प्राकट्य किया जा रहा है। यज्ञों द्वारा उन विविध शक्ति सम्पन्न देवों की सम्भावना करते रहने से उन देवों की प्रसन्नता सम्पादित होगी और फलस्वरूप वे तुम्हें इष्ट भोग प्रदान करेंगे। इस तरह परस्पर आदान प्रदान द्वारा उपकार करते हुए परमश्रेय को प्राप्त होंगे। देवों को यज्ञों द्वारा सन्तुष्ट किये बिना वस्तुओं का उपभोग करोगे तो यह चोरी समझी जायेगी और इसका दण्ड भोगना पड़ेगा-

“सह यज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।10।। देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः। परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।11।। इष्टान् भोगान् हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः। तैर्दत्तान प्रदायैभ्यो यो भुंके स्तेन एवं सः।।12।। यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्व किल्विषैः। मुंजते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।13।।”

(भगवद्गीता 3)।

विश्व के प्राणियों को जीवन धारण करने के लिए उनके योग्य खाद्य पदार्थ तथा जल की अपेक्षा निर्विवाद हैं। खाद्य वस्तु का उत्पादन यथा समय उचित वर्षा पर निर्भर हैं। वर्षा भगवान आदित्य की कृपा के अधीन हैं और आदित्य की अनुकूलता उक्त वचनों के अनुसार यज्ञ पर निर्धारित हैं। अतः विश्व की स्थिति का एकमात्र कारण यज्ञ ही हैं। इसी को महर्षि मनु ने “अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्य मुपतिष्ठते। आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः’ (3/76) इन शब्दों में और भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में-“यज्ञाद्भवति पर्जन्यः” (3/14) इन शब्दों में कहा हैं। इससे सिद्ध है कि विश्व रक्षा के लिए यज्ञ संस्था का चालू रखना नितान्त आवश्यक एवं अनिवार्य है।

केवल यही नहीं जन्म से ही द्विजों पर देवऋण का भार रहता है, जिससे वह यज्ञों द्वारा ही मुक्त होता है। बिना यज्ञ द्वारा देवऋण का अपाकरण किये प्राणी की न तो सग्दति हो सकती है, न वह मोक्ष का अधिकारी ही बन सकता है-“ऋणैस्त्रिभि र्द्विजो जातो देवर्षिपितृणाँ प्रभो। यज्ञाध्ययनपुत्रैस्तान्यनिस्तीर्य त्यजन् पतेत्” (भागवत 10।84।39), “ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशयेत्। अनपाकृत्य मोक्षंतु सेवमानोव प्रजत्यधः।।..........इष्टवा च शक्तितो यज्ञैर्मनो मोक्षे निवेशयेत्।..........अनिष्टवा चैव यज्ञेश्च मोक्षमिच्छन् व्रजत्यधः।।”

(मनु. 6।35-37)

इस तरह लौकिक पारलौकिक अभ्युदय एवं निःश्रेयस की सिद्धि में यज्ञों का बड़ा हाथ हैं। इतना ही नहीं, संसार में आज साम्यवाद, समाजवाद, अधिनायकवाद आदि विभिन्न मतवादों के कारण मनुष्यों में जो भयावह संघर्ष छिड़ा हुआ हैं, उसका भी समाधान अपने यहाँ के यज्ञवाद द्वारा ही हो सकता है। यह स्पष्ट है कि उक्त सभी वाद आर्थिक विषम समस्या के कारण उत्पन्न हुए है और विभिन्न गुट की स्थापना करके वादों की ओट में अधिकाधिक अर्थ सम्पादन के लिए छीना झपटी चल रही हैं। इसी प्रवृत्ति को अपने यहाँ ‘वित्तैषणा’ कहा गया हैं। यही लोभ हैं, जिसे गीता में नरक के द्वारों में एक द्वार कहा गया हैं। यह वित्तैषणा व्यष्टि समष्टि सुख शान्ति की बड़ी विकट बाधक हैं। इसी के कारण निकट सम्बन्धियों तक में भीषण द्रोह होता देखा जाता है। हमारे दूरदर्शी महर्षियों ने इस महा दोष की निवृत्ति के लिए यज्ञ दान की योजना रखी है। यज्ञों में सर्व प्रथम भूमि को सम एवं उपयुक्त बनाने के लिए निम्नवर्ग के श्रमिक मजदूरों की, फिर यज्ञमण्डप निर्माण के लिए ईंट बनाने वालों, उसे ढोने वालों, मिट्टी खोदने वालों, वेदी, कुण्ड आदि के निर्माण में मिस्त्रियों, लकड़ी के स्तम्भ, यूप आदि तथा यज्ञ पत्रों के निर्माण में बढ़ई, लोहार आदि की, मण्डप को चटाई से अच्छादित करने के लिए चटाई बुनने वालों की, यज्ञ सामग्री निर्माणार्थ जुलाहे कसेरे, सोनार, दर्जी, बनिये आदि की, यज्ञ में आने वाले अतिथि, अभ्यागतों की व्यवस्था के लिए विभिन्न कर्मचारियों-हज्जाम, पनभरों, रसोइयों परोसने वालों, सफाई करने वालों, पहरा देने वालों आदि की अपेक्षा स्पष्ट है। फिर यज्ञ सम्पादनार्थ विद्वान् ऋत्विजों की आवश्यकता होती हैं । इस तरह यज्ञ में पारिश्रमिक, क्रय, दान, उपहार आदि रूप से संचित द्रव्य का जनता के सब वर्गों में विभाजन हो जाता है। यहाँ यज्ञकर्ता स्वयं अपनी इच्छा से प्रसन्नतापूर्वक द्रव्य का वितरण करता है, जिससे देने पाने वाले दोनों को सन्तोष होता है। आधुनिक साम्यवाद सिद्धान्त की तरह वहाँ द्रव्य का उसके स्वामी से उसकी इच्छा के विरुद्ध बलात् अपहरण करने की योजना नहीं बनानी पड़ती। दुर्दैव से आज यज्ञों का अनुष्ठान अवरुद्ध होने से ही आर्थिक विषमता फैली हैं, उसको मिटाने का सौम्य उपाय एकमात्र यज्ञ ही हैं।

पहले बड़े बड़े राजा, सम्राट् दिग्विजय द्वारा सम्पत्ति का अर्जन करके या द्वारा उसका पुनः निःशेष वितरण कर दिया करते थे। महाराज रघु ने दिग्विजय के उपरान्त विश्वजित् नामक यज्ञ में समस्त खजाना खाली कर दिया था। उनके पास धातु का एक पात्र तक नहीं बचा था। वरतन्तु शिष्य कौत्स के आने पर राजा ने उनका मिट्टी के अर्घ्यपात्र से सत्कार किया था। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् रामचन्द्र के यज्ञों में इतना दान किया गया कि माता सीता देवी के कण्ठ में सौभाग्य चिन्ह मंगल सूत्र मात्र बच रहा था। कई उदारचेता यजमान यज्ञ के ऋत्विजों को अपनी समस्त अधिकृत भूमि प्रदान कर देते थे। यज्ञ की साँगता के लिए वे निःस्पृह ऋत्विक् दान ले तो लेते थे, किन्तु बाद में उस सम्पत्ति को फिर वापस लौटा दिया करते थे। राजा भी निक्षेप समझ कर निरपेक्ष वृत्ति से उस लौटायी हुई भूमि की व्यवस्था करते थे। ऋत्विजों द्वारा त्यक्त सुवर्ण, रत्न आदि चल सम्पत्ति वहाँ ही पड़ी रहती थी, कोई भी परस्वापहरण के पाप का भय होने से उसको हाथ भी नहीं लगाता था। महाराज मरुत्त के विश्वविख्यात यज्ञ में ऋत्विजों द्वारा इसी प्रकार छोड़ी हुई अपार संपत्ति का धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में महर्षियों की अनुमति से उपयोग किया गया था।

पुण्यकार्य में यत्किंचित् सहयोग करना भी पुण्यजनक होता है, अतः यज्ञों में अधिकतर लोग बिना अर्थलिप्सा के ही सहायक बनकर यज्ञ कार्य के सम्पादन में भाग लेते थे। बड़े बड़े शूर-वीर, सम्मान्य, विद्वान् एवं मूर्धन्य लोग भी निरभिमान, निर्दम्भ होकर यज्ञ सम्बन्धी साधारण से भी साधारण कार्य के सम्पादन का भार सहर्ष वहन किया करते थे। महाराज मरुत्त के यज्ञ में साक्षात् देव मरुद्गणों ने परोसने का कार्य किया था महर्षि वेदव्यास ने मरुत्त यज्ञ के लिए जो प्रशंसा पत्र प्रदान किया हैं, वह ‘श्रीमद्भागवत’ से उद्धत किया जा रहा हैं-मरुत्तस्य यथा यज्ञो न तथान्यस्य कश्चन। सर्व हिरण्मयंत्वासीन् यत् किच्चिचास्य शोभनम ।।27।। अमाद्यदिन्द्रः सोमेन दक्षिणाभिद्विजातयः। मरुरतः परिवेष्टारो विश्वेदेवाः सभासदः।।28।।” 9।2 धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में रसोई घर की व्यवस्था भीमसेन ने, खजांची का काम दुर्योधन ने, पूजा सत्कार सहदेव ने, सामग्री जुटाने का कार्य नकुल ने, बड़ों की सेवा अर्जुन ने, पाद-प्रज्ञालन करने का सत्कार्य स्वयं श्रीकृष्ण ने, परोसने का भार महाभागा द्रौपदी ने, दानाध्यक्षता महामना कर्ण ने तथा युयुधान, विकर्ण, विदुर आदि ने महायज्ञ में विविध कर्मों का भार संभाला था। वह कैसा सुवर्ण समय होगा, जिसकी कल्पना में भी आज चित्त आनन्दविभोर हो जाता है। भगवत्कृपा से पिछले दिनों दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, बम्बई, उदयपुर, काशी आदि स्थलों में हुए महायज्ञों में अलौकिक छटा का कुछ आस्वादन प्राप्त करने का भारतीयों को सौभाग्य प्राप्त हो गया था।

मगधेश्वर जरासन्ध के वहाँ वैदखाने में पड़े हुए 20 हजार 8 सौ राजाओं को छुड़ा कर भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें यही उपदेश दिया था कि देखिये, धन तथा ऐश्वर्य का मद मनुष्य को कैसा उन्मादी बना देता हैं? देव, दैत्य तथा मानवों के अधिपति भी कार्तवीर्य, नहुष, वेन, रावण, नरकासुर आदि श्रीमद के परिणाम स्वरूप अपने पद से गिरा दिये गये। यह जान कर और देहादि को उत्पत्ति विनाशशाली समझ कर उसका गर्व न करते हुए सावधानी से यज्ञों द्वारा मेरा यजन करके और धर्मपूर्वक प्रजाओं का रक्षण करें-‘श्रियैर्श्वय मदोन्नाहं पश्य उन्मादकंनणाम ।।19।। हैहयो नहषो वेनो रावणो नरकोअपने। श्रीमदाद् मुँशिताःस्थानादेवर्दत्यनरैश्वराः।।20।।वंभत एताद्विज्ञाय देहाद्युप्ताद्यमन्तवत्। माँ यजन्तोअध्वरै-र्युक्ताः प्रजा धर्मेण रक्षथ।।21।।” (भागवत 10।73)

यज्ञ करना, उसके लिए अन्यों को प्रोत्साहित करना, बन पड़े तो होते हुए यज्ञ में किसी प्रकार सहायक होना अपने ही कल्याण का हेतु है। यज्ञ का विरोध अपने ही विनाश का मूल बनता है। “ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्याँ जगत्” इत्यादि श्रुतिवचनों से यह चराचर विश्व भगवान् का ही विराट् स्वरूप है। जीव उस भगवान का अंश या प्रतिबिम्ब ही है। प्रतिबिम्ब को अलंकृत करने का जैसे एकमात्र उपास बिम्ब को अलंकृत करना ही है। बिम्ब को अलंकृत करने पर प्रतिबिम्ब स्वयं अलंकृत हो जाया करता है, बिना बिम्ब को अलंकृत किये अन्य सहस्रों उपायों से भी प्रतिबिम्ब को अलंकृत कर सकना जैसे असम्भव हैं, वैसे ही प्रतिबिम्ब भूत जीव को सुखी, समृद्ध, एवं अलंकृत करने का एकमात्र उपाय स्वकर्मों से बिम्बभूत का परमात्मा का अर्चन करना ही हैं। जीव यदि अपने यज्ञादि कर्मों द्वारा भगवान का समर्चन नहीं करता, तो उसका अभ्युदय किस प्रकार हो सकता है? परमेश्वर स्वरूप भूत आनन्द से सदा परिपूर्ण हैं। वह लोगों द्वारा समर्पित अर्चन का स्वीकार क्यों करे? यह तो उसकी महती कृपा है कि वह सामान्यजनों द्वारा अर्पित मान का स्वीकार करता है-“नैवात्मनः प्रभुरयं निजलाभपूर्णो मानं जनादविदुषः करुणों वृणीते। यद्यज्जनों भगवते विदधीत मानं तच्चात्मनं प्रतिमुख्यस्य यथा मुखश्रीः” (भाग॰ 7।9।11)।

कंस की अध्यक्षता में उसके मन्त्रिमण्डल की एक आवश्यक बैठक में यह निर्णय किया गया था कि धर्म के निवासभूत विष्णु देवताओं के मूल हैं और विष्णु का मूल अर्थात् धर्म का आधार वेद, गौ, ब्राह्मण, तप तथा दक्षिणायुक्त यज्ञ है। अतः देवों का विनाश करने के लिए उनके मूल ब्रह्मवादी, तपस्वी, यज्ञ करने वाले ब्राह्मण तथा हवि का दोहन जिनसे होता है, ऐसी गौओं का विनाश करना चाहिए। ब्राह्मण, गौर, वेद, तप, सत्य, दम, शम, श्रद्धा, दया, तितिक्षा और यज्ञ यही भगवान का शरीर हैं और ऐसे भगवान विष्णु ही देवताओं के आधार हैं, अतः देवों के नाशार्थ विष्णु का नाश अपेक्षित हैं। किंतु वह तो डरपोक हैं, गुहा (प्राणियों की बुद्धि) में छिपा रहता है, अतः उसके वध का उपाय यही हैं कि उसके मूल ऋषियों की हिंसा की जाय-

’मूलं हि विष्णुर्देवानाँ यत्र धर्मः सनातनः। तस्य च ब्रह्मगोविप्रास्तपोयज्ञाः सदक्षिणाः।।39।। तत्मात् सर्वात्मना राजन् ब्राह्मणान् ब्रह्मवादिनः। तपस्विनो यज्ञशीलान गाश्च हन्तों हविदुघाः।।48।। विग्रा गावश्च वेदाश्च तपः सत्यं दमः शमः। श्रद्धा, या, तितिक्षा च क्रतवश्च हरेस्तनूः।।4।। स हि सव्सुराध्यक्षों ह्मसरद्विडे गुहाशयः। तन्मूला देवताःसर्वाध्सेश्वराःसचतुर्मुखाः।। अयं वैतद्वधोपयों यदृषीणाँ विहिंसंनम्।।42।।

(भाग॰ 10।4)।

राजा वेन ने भी अपने राज्य में यह ढिंढोरा पिटवा दिया था कि मेरे राज्य में कहीं कोई यज्ञ न करे, दान न दे और होम न करे-

‘न यष्टव्यं न दातव्यं न होतव्यं द्विजाः कचित्। इति न्यवारयुर्द्धम भेरीघोषेण सर्वशः” (भाग॰ 4।13।6)

मुनियों ने उसके पास जाकर बहुत रीति से समझाया कि राजन्। राजा का कर्तव्य प्रजाओं की दुर्जन राज-कर्मचारियों तथा चोर आदि से रक्षा करना है किसी के धर्म में हस्तक्षेप करना नहीं। महाभाग! जिस राजा के राष्ट्र, पुर में वर्णा श्रमस्थित जनता अपने अपने धर्म कर्म से भगवान यज्ञपुरुष का यजन करती हैं, उसे अपनी आज्ञा में स्थित समझकर भूतभावन, विश्वात्मा भगवान उस पर प्रसन्न होते हैं। जगदीश्वरेश्वर भगवान के सन्तुष्ट होने पर भला फिर क्या प्राप्य है। समस्त लोकपाल आदरपूर्वक उस राजा को उपहार अर्पित करते हैं। राजन्! अपने कल्याणार्थ आप अपने देशवासी जनों को यज्ञों द्वारा यज्ञपुरुष भगवान को यजन करने की अनुमति प्रदान कर दें। आपके राज्य में जो यज्ञ होंगे, उनसे भगवान और उनके अंशभूत देवता प्रसन्न होंगे और आपके सब मनोरथ पूर्ण करेंगे। इसलिए आप इस प्रार्थना की अवहेलना न करें-

राजन्नसाध्वमात्येभ्य श्रोरादिभ्यः प्रजानृपः। रक्षन् यथा बलिं गुण्हन् इह प्रेत्यच मोदते।।17।। यस्य राष्ट्रे पुर चैव भगवान रेज्ञपुरुषः। इज्यते स्वेन धर्मेण जनैर्वर्णाश्रमान्वितैः।।18।। तस्य राज्ञों महाभाग भगवान भूतभावनः। परितुष्यति विश्वात्मा तिष्ठतो निजशासने।।19।। तस्मिरतुष्टे किप्राप्यं जगतामीश्रेश्रे। लोकाः सपाला ह्मे तस्मै हरन्ति पलिगादृताः।।20।। तं सर्वलोकामरयज्ञसंग्रहं त्रयीमयं द्रव्यमयं तपोमयम्। यज्ञैर्विचिचैर्यजतों भयाय ते राजन् स्वदेशाननुरोधमर्हसि।।21।। यज्ञेन युष्मद्विषये द्विजातिभ्ज्ञिव्रितसायमानेन सुराः कला हरेः। स्विष्टाः सुतुष्टाः प्रदिशान्ति वाच्छितं तद्धेलनं नार्हसि वीर चेष्टितुम।।22।।” (भाग॰ 4।14)।

परन्तु वेन ने महर्षियों के अनुरोध को ठुकरा दिया। फलतः कंस तथा वेन आदि यज्ञ विरोधियों की क्या स्थिति हुई, वह इतिहास के पृष्ठों पर अंकित है।

साराँश ‘नारायणोपनिषद्’ के शब्दों में यह है कि

“यज्ञेन हि देवा दिवंगता, यज्ञेनासुरानपानुदन्त, यज्ञेन द्विपन्तो मित्रा भवन्ति, यज्ञेन सर्व प्रतिष्ठितं, तस्माद्याज्ञं परमं वदन्ति” (79)।

खेद हैं कि आज ऐसी लोकोपकारिणी यज्ञ योजना की प्रायः उपेक्षा हो रही हैं। कोई आस्तिक श्रद्धावान् कुछ करना भी चाहता है, तो उसके मार्ग में अनेक प्रकार से बाधाएं उपस्थित की जा रही है।

पुराणों में एक कथा आती हैं, जिसका साराँश यह हैं कि सृष्ट्यारम्भ में ब्रह्माजी ने पृथिवी का निर्माण किया। उस पर अन्यान्य वस्तुओं की रचना का क्रम चल ही रहा था कि महासागर संबंधी जल की उत्ताल तरंगों से स्रावित होकर सागर तल में विलीन हो गयी। अपने प्राथमिक महाप्रयास पर पानी फिरते देखकर ब्रह्मदेव बड़े दुःखी हुए और सोच में पड़ गये कि अब पृथिवी को किस तरह महासागर में से निकाला जाय। कुछ उपाय न देख कर उन्होंने भगवान का स्मरण किया। इतने ही में ब्रह्मदेव के नासिका छिद्र से एक छोटा सा वराह सहसा प्रादुर्भूत हुआ। देखते ही देखते उस वराह ने विशाल शरीर धारण कर लिया। मरीचि आदि महर्षि, सनत्कुमारादि तथा मनु सहित ब्रह्मदेव उस विचित्र वराह को देखकर विस्मित हो गये और सोचने लगे कि यह कौन हैं। इतने में ही वराह रूप धारी भगवान यज्ञपुरुष ने गम्भीर गर्जना की और उस महार्णव में पृथिवी का उद्धार करने के लिए गोता लगाया। भगवान वराह अपनी दंष्ट्रा से पृथिवी को उठाकर ज्यों ही जल से बाहर निकलने लगे, त्यों−ही हिरण्याक्ष नामक एक महादैत्य ने उन्हें आ घेरा। दोनों में भीषण युद्ध हुआ। हिरण्याक्ष ने बड़ी भयानक माया फैलायी। भगवान ने सुदर्शनास्त्र से सब मायाओं का विनाश कर दिया। अन्त में एक मुष्टिप्रहार से हिरण्याक्ष दैत्य का संहार हुआ। इस कथा द्वारा जो तथ्य व्यक्त किया गया हैं वह बड़ा हृदयग्राही है। पहली बात तो यह बतलायी गयी हैं कि यज्ञ के बिना पृथिवी का आधार न होने से वह रसातल में चली गयी और उसके निर्माता ब्रह्मदेव भी अन्य महर्षियों के साथ उसका उद्धार न कर सके और किंकर्तव्यविमूढ़ बन गये। भगवान का स्मरण किए जाने पर वे श्वास-प्रश्वास की तरह बिना किसी प्रयास के ब्रह्मदेव की नासिका से यज्ञ रूप में प्रादुर्भूत हुए। जब यज्ञ भगवान पृथिवी का उद्धार करने का उपक्रम करते हैं, तब हिरण्याक्ष (हिरण्य-सुवर्ण-द्रव्य तथा सुवर्णवत् प्रिय लगने वाला काम ही हैं इन्द्रियों का विषय अक्ष जिसके अर्थात् अर्थ-काम परायण) दैत्य (‘दो अवखण्डने’-सबका खंडन-विनाश करने की भावना ही दिति हैं, उससे उत्पन्न-सबका अहितकर शत्रु) उस यज्ञपुरुष का विरोध करने अग्रसर होता है। ऐसा ही सृस्ट्चारम्भ में हुआ था, अन्य युगों में वेन, रावण, कंस आदि द्वारा भी यही हुआ और आज भी हो रहा हैं। यज्ञ भगवान् का नाश करने के लिए हिरण्याक्ष दैत्य द्वारा अनेक मायाओं का प्रयोग किया जाता है। परन्तु दैत्य के सभी प्रयास विफल होते हैं और यज्ञपुरुष द्वारा एक ही कराघात से दैत्य का संहार हो जाता है। इस तरह अन्त में यज्ञपुरुष द्वारा पृथिवी का उद्धार होकर ही रहता है। इस आख्यायिका से आस्तिक पुरुषों को आश्वासन दिया गया है कि अर्थ काम परायण आसुरी वृत्ति वाले, वेद, शास्त्र, धर्मादि सबका खण्डन करने वाले चाहे कितना ही माया जाल क्यों न फैलायें विवेकशील आस्तिकों को इससे उद्विग्न एवं निराश नहीं हो जाना चाहिए। धैर्य पूर्वक उन्हीं यज्ञ पुरुष भगवान का यथा संभव, यथा शक्ति अवलंबन किये रहना चाहिए। एक दिन शीघ्र ही ऐसा अवश्य आयेगा, जबकि हिरण्याक्ष की सारी मायाएं विलीन हो जायगी और अन्त में दैत्य का भी ठिकाना लग जायगा और फिर यज्ञ भगवान की ही कृपा से पृथ्वी का उद्धार होकर उस पर सुख शान्ति समृद्धि का साम्राज्य पुनः फैल जायगा।

जिस यज्ञ का ऊपर इतना महत्व बखाना गया, उसके असंख्य भेद अर्थात् प्रकार शास्त्रों में वर्णित हैं। उन सबका केवल नामोल्लेख भी इस छोटे से लेख में नहीं किया जा सकता, तब उनके स्वरूप का वर्णन उसके अनुष्ठान के प्रकार एवं अवान्तर अंग उपाँग आदि का संक्षेपतः भी वर्णन यहाँ किस तरह किया जा सकता है। कई यज्ञ तो ऐसे हैं, जिनके अनुष्ठान का न तो आज कोई योग्य अधिकारी ही हैं न अनेक जैसे भगवान् अनन्त, अपार हैं, वैसे ही उनके स्वरूप भूत वेद तथा तत्प्रतिपाद्य यज्ञ की महिमा भी अनन्त अपार है। फिर भी साधारणतया यज्ञों के दो विभाग कहे जा सकते हैं- एक श्रौत और दूसरा स्मार्त। श्रुति में वैदिक कर्मों के पाँच विभाग बतलाये गये हैं- 1 अग्निहोत्र, 2 दर्श-पूर्णमास, 3 चातुर्मास, 4 पशु और 5 सोम। स्मृति में यज्ञों का विभाग निम्न प्रकार से किया गया है।- 7 पाकयज्ञ संस्था, 7 हविर्यज्ञ संस्था, 7 सोम संस्था। पाकयज्ञ संस्था में 1 औपासन होम, 2 वैश्वदेव, 3 पार्वण, 4 अष्टका, 5 मासिश्राद्ध, 6 श्रावणा और शूलगव ये 7 कर्म आते हैं। हविर्यज्ञ संस्था में 1 अग्निहोत्र, 2 दर्श-पूर्णमास, 3 आग्रयण, 4 चातुर्मास्य, 5 निरुढ़ पशु बन्ध, 6 सौत्रायणि और 7 पिण्डपितृयज्ञ हैं। सोम संस्था में 1 अग्निष्टोम, 2 अत्यग्निष्टोम, 3 उक्थ्य, 4 षोडशी, 5 वाजपेय, 6 अतिरात्र और 7 अप्तोर्याम का समावेश होता है। इस तरह ‘गौतम धर्मसूत्र’ वे श्रौत स्मार्त कर्मों की संख्या मिलाकर 21 यज्ञ बतलाये है। इनमें पाकयज्ञ संस्थाओं का निरूपण गृह्यसूत्रों एवं स्मृतियों में किया गया हैं और बाकी दोनों संस्थाओं हविर्यज्ञ संस्था तथा सोमयज्ञ संस्था का वितरण श्रौतसूत्रों एवं ब्राह्मणात्मक वेद भाग में किया गया है।

शाखा भेद से उक्त संस्थाओं में कही कही कुछ अन्तर हैं। पहली दो संस्थाओं में से पहली एकवेद से और दूसरी दो वेदों-ऋक् तथा यजुर्वेद से सम्पन्न होती हैं। तीसरी संस्था में ऋक्, यजुः तथा साम तीनों वेदों के ऋत्विक् अपेक्षित होते हैं। सोमयज्ञ संस्था के अवान्तर अनेक भेद हैं, जिनमें से कुछ का उल्लेख इस प्रकार हैं-सत्र तथा अहीनसंज्ञक द्वादशाह यज्ञ, गवामयनसत्र, राजसूय,चयन, अश्वमेध, पुरुषमेध, सर्वमेध, पितृमेध, एकाह आदि। इनके भी व्यूढ़ द्वादशाह, ज्योति, गौर, आयु, अभिजित्, विश्वजित्, सर्वजित्, सर्वज्योति, विश्वज्योति, साद्यस्क्र, अनुक्री, विश्वजिच्छित्म, श्येन, एकत्रित, ब्रात्स, अग्निष्टुन्, त्रिवृत्स्तोम, वृहस्पतिसब, ईषु, सर्वस्वार, द्विद्विव, त्रिरात्र, उपहव्य, ऋतपेय, वैश्यस्तोम, तीव्रसुत्, पवित्र, अभिषेचनीय, दशपेय, केशवपनीय, व्युष्टिद्विरात्र, राट्विराट् औपशद, पुन;स्तोम,चतुष्टोम, उद्वित्, बलभिद्, अपचिति, पक्षी, ऋषभ, गोसव, मरुत्स्तोम, कुलाय, इन्द्रस्तोम इन्द्राग्निस्तोम, विघन, सर्वस्तोम, नवसप्तदश, विषुवदतिरात्र, गोष्टोट, आयुष्टोम, अभिजिदतिरात्र, विश्वजिदतिरात्र, त्रिवृदतिरात्र, चैत्ररथ, कापिवन, गर्गत्रिरात्र, वैद, छन्दोमपवमान, अर्न्तबसु, पराक, चतुर्वीर, जामदग्न्य, वाशिष्ठ, विश्रामित्रसज्जय, अभ्यासंग्य, पंचशारदीय, अर्न्तमहाव्रत, त्रिकद्रुक, जनकसप्तरात्र, त्रिककुप्, कौसुरुविन्द, देवपुर, पौण्डरीक, दार्षद्धत, तुरायण सर्पसत्र, प्रजापतिसहस्रसंवत्सर, विश्वसृजामयन आदि अनेक भेद है। इनमें एक दिन से लेकर सहस्रसंवत्सर पर्यन्त चलने वाले यज्ञ आते हैं।ये सभी यज्ञ श्रौतग्निसाध्य होने के कारण इनमें आहिताग्नि पुरुष का ही अधिकार है। इनमें कतिपय में ब्राह्मणादि तीनों वर्ण वालों का कई में केवल एक ही वर्ण वाले का अधिकार है। विभिन्न फल कामना वाले के लिए इनका विधान किया गया है। इन यज्ञों के अलावा श्रौतग्रन्थों में विभिन्न फल प्राप्ति के उद्देश्य से अनेक इष्टियों का विधान किया गया है, उदाहरणार्थ-मृगारेष्टि, पथिकृत्, व्रातपति, व्रतभूत, तन्तुमती, विवेची, संवर्ग शुचेष्टि, सुमतीष्टि, रौद्रेष्टि, पवित्रेष्टि, नक्षत्रोष्टि, कारीरि आदि। अग्निहोत्री के मृत्युकाल में अन्त्येष्टि का विधान किया गया है।

इस तरह श्रोत स्मार्त यज्ञों में से कुछ का नाम निर्देशमात्र ऊपर किया गया है। इसका संक्षिप्त विवरण लिखने में एक बृहत् ग्रन्थ लिखना पड़ जायगा। इन यज्ञों के अतिरिक्त बहुत से पौराण, तांत्रिक एवं आगमोक्त यक्ष हैं, जैसे कि विष्णुयाग, रुद्रयाग, महारुद्र, अतिरुद्र, गणेशयाग, चण्डीयाग, गायत्री-याग, सूर्ययाग, विनायकशान्ति, ग्रहशान्ति, अद्भुतशान्ति, महाशान्ति, ऐन्द्रीशान्ति, लक्षहोम, कोटिहोम, वैष्णवेष्टि, वैभवीष्टि, पाद्मी इष्टि, नारायणी, वासुदेवी, गारुड़ी, वैवूही, पावमानी, आनन्ती, वैष्बक्सेनी सौदर्शनी, पवित्रेष्टि आदि अनेक यज्ञों का विधान पाया जाता है।

विभिन्न कामना की पूर्ति के लिए विभिन्न देवताओं के यजन की विधि पायी जाती है। ब्रह्मवर्चस की कामना वाला ब्रह्मणस्पति का, इन्द्रियपुष्टिकाम इन्द्र का, सन्ततिकाम प्रजापति का, श्रीकामदेवी माया का, तेजस्काम सूर्य का, धनकाम वस्तुओं का, पराक्रमसकाम रुद्रों का, अन्नादिकाम अदिति का, स्वर्ग काम आदित्यों का, राज्यकाम विश्वदेवों का, प्रजा काम साध्यगणों का, आयुष्काम अश्विनीकुमारों का, पुष्टिकाम पृथ्वी का, प्रतिष्ठाकाम द्यावापृथिवी का, रूपकाम गंधर्वों का, स्त्रीकाम उर्वशी का, सब पर आधिपत्य की कामना वाला परमेष्ठी (ब्रह्मदेव) का, यशस्काम यज्ञ पुरुष का, कोशकाम वरुण का, विद्या काम शंकर का, दाम्पत्यसुख की कामना वाला सती उमा (पार्वती का धर्मकाम विष्णुका, अविच्छिन्न स ततिकाम पितरों का, रक्षामाक पुण्यजनाहें का, ओजस्काम मण्रुदणों का, शत्रुनाश की इच्छा वाला निऋति का और विषयकाम चन्द्रमा का यजन करें। जिसे सब वस्तु की कामना हो या जो निष्काम हो अथवा जिसे मुक्ति की अभिलाषा हो, उसे तीव्र भक्तियोग से परमपुरुष भगवान का यजन करना चाहिए-

“अकामःसर्वकामो वा भोक्षकाम उदारधीः। तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषंपरम्”

(भाग॰ 2।3।10)

यदि कोई मनोरथ लेकर भक्तिपूर्वक भगवान् का यजन करता है, तो उसे उस अभिलाषित पदार्थ की प्राप्ति होती है। यदि निष्काम होकर भगवान् की आज्ञा पालन करने के ही लिए उनका यज्ञों द्वारा यजन किया जाय, तो अन्तःकरण शुद्ध होकर वह मनुष्य मोक्षमार्ग का अधिकारी बन जाता है। यदि भगवच्चरणपंकजसमर्पण बुद्धि से स्ववर्णाश्रमानुसार धर्म कर्म रूप यज्ञ का अनुष्ठान श्रद्धा भक्ति से किया जाता है, तो इससे भगवान् की प्रसन्नता प्राप्त होती हैं, जिससे फिर कुछ भी असाध्य नहीं रह जाता।

इनके अतिरिक्त जिज्ञासु एवं ज्ञानी साधकों के लिए शास्त्रों में ब्रह्मयज्ञ, संयमयज्ञ, इन्द्रिययज्ञ, ज्ञान यज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ, प्राणयज्ञ, जपय


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