यज्ञ द्वारा वायु-शुद्धि

December 1955

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(पं. रामप्रसाद मिश्र, बरेली)

वैज्ञानिकों का कथन है कि वायु के तीन भाग होते हैं। प्रथम ओषजन द्वितीय नत्रजन तथा तृतीय कार्बनद्विओषद। इनमें ओषजन जीवनदायिनी है। ओषजन के अभाव में जीव सृष्टि नहीं रह सकती उससे हमें प्राणशक्ति प्राप्त होती है अग्नि तीव्र होती तथा रक्त शुद्ध होता है। नत्रजन थोड़ी मात्रा में ओषजन से मिलकर उसे और भी लाभप्रद बना देती है।जिस वायु में कार्बनद्विओषद की मात्रा अधिक होती है वह वायु मनुष्यों को अस्वास्थ्यप्रद हो जाती है हमारे प्रश्वास द्वारा जो वायु बाहर निकलती है वह कार्बन द्विओषद है जिसमें कार्बन तत्व की पर्याप्त मात्रा होती है। यदि हम किसी मैदान वाटिका या पर्वतादिक अधिक जनशून्य स्थानों में रहे तो प्रश्वास द्वारा निकाली कार्बन द्विओषद वायु को अशुद्ध न कर सकेगी क्योंकि उसकी मात्रा कम होगी। परन्तु जब बहुत से मनुष्य एक स्थान पर एकत्रित होते तथा संकुचित मकानों में रहते हैं। तो वहाँ की वायु अशुद्ध हो जाती है तथा स्वास्थ्य को हानि पहुँचाती है। इस वायु शुद्धि के लिये हवन-यज्ञ एक ऐसा अमोघ साधन है जिसका कोई अन्य साधन समता नहीं कर सकता।

हवन-यज्ञ में घृत, शर्करा मेवा तथा सुगन्धित औषधियाँ इत्यादि जो पदार्थ हवन में डाले जाते हैं। उनके वैज्ञानिक परीक्षण वैज्ञानिकों ने किये है। उनसे ज्ञात हुआ है कि शकर लौंग जायफल केसर आदि के जलाने से जो गैस उत्पन्न होती है उसमें वायुशुद्धि करने तथा रोगों के कीटाणुओं को नष्ट करने की अद्भुत शक्ति होती है। हमारे ही नगर में राजयक्ष्मा चिकित्सा के प्रसिद्ध डाक्टर महोदय रहते हैं जो क्षय टी.बी. जैसे कठिन रोगों की सफल चिकित्सा यज्ञ द्वारा करते हैं। अन्य कठिन रोगों में भी जहाँ औषधि सेवन काम नहीं करता वहाँ वह यज्ञ से ही सफलता प्राप्त करते हैं तथा जब वे सरकारी सेनीटोरियम में अध्यक्ष थे तब भी इसी यज्ञ हवन चिकित्सा विधि से कार्य करते थे जिसका परिणाम 80 प्रतिशत से ऊपर रहा हैं इस विषय पर उन्होंने यज्ञ चिकित्सा नामक पुस्तक लिखी जिसे सेनीटोरियम ने अपने व्यय से प्रकाशित कराया तथा सरकार से उन्हें उस पर पारितोषिक भी मिला। उनके रोगियों ने यवन होते हुये भी इस चिकित्सा -पद्धति को अपनाकर लाभ उठाया। अग्नि जलने से कार्बन गैस भी उत्पन्न होती है। कुछ व्यक्ति इसी आधार पर हवन को हानिकारक बताते हैं पर यह उनका भ्रम मात्र है। हवन से निकली हुई कार्बन वायु से किस प्रकार जगत को लाभ पहुँचता है वह निम्न प्रकार हैं।

पदार्थ विद्या से ज्ञात होता है कि कतिपय पदार्थों में से प्रकाश गुजर सकता है परंतु धर्म नहीं गुजर सकता।बहुत से बगीचों में ऊष्णागृह को पाठकों ने देखा होगा। उनमें ऐसे पौधे लगाये जाते हैं जिन्हें अधिक उष्णता की आवश्यकता है अतः वे वातावरण में से अपेक्षाकृत अधिक ताप ले लेते हैं और उस स्थान पर अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक ठण्ड रहती है। अब शीशा सूर्य की रश्मियों को अपने में से गुजरने देता है परंतु भीतर के धर्म को उससे बाहर नहीं गुजरने देता उसी कारण शीश महलों में गर्मी अधिक रहती है। ज्ञात किया गया है कि कार्बन भी इस विषय में शीशा जैसा पदार्थ है। उसमें सूर्य की रश्मियां प्रवेश कर जाती हैं परन्तु धरती से टकराकर बाहर नहीं जा सकतीं। वायु मंडल के 1000 परिणाम में 3 परिणाम कार्बन है इसका फैलाव भूमि पर एक प्रकार का आवरण बना देता है। क्योंकि यह साधारण वायु से डेढ़ गुना भारी है अतः भूमितल के निकट कार्बनद्विओषद का ही स्तर रहता है। भूमि तथा इस आवरण के मध्य धर्म कैद रहता है। ज्यों ज्यों यह आवरण अधिक त्यों त्यों थोड़ा धर्म निकलकर वायु मंडल में बिखर जायेगा। आक्सीजन तथा नत्रजन में इस प्रकार धर्म रोकने की शक्ति नहीं हैं। इस कारण यदि कार्बनद्विओषद वायुमंडल में कम हो जावे तो धर्म निकल कर इतना सर्दी पड़ने लगेगी कि भूमि किसी जीव को धारण करने के कारण कार्बनद्विओषद वायु पर बड़ा प्रभाव डालती है। उसकी मात्रा में किंचित मात्र भी अन्तर होने से बड़े बड़े परिवर्तन हो जावेंगे ।यदि इस मात्रा का दुगुना कर दिया जावे अर्थात् 1000 परिमाण वायु में 3 के स्थान पर 6 परिमाण कार्बन वायु के कर दिये जावें तो भूमि की सब बर्फ पिघल कर ध्रुवों में भी आद्र (मोतदिल) जलवायु हो जावेगी और कार्बन वायु की मात्रा आधी कर दी जावे ता समस्त पृथ्वी हिमाच्छादित हो जावेंगी।

इसी प्रकार प्रसिद्ध रसायनशास्त्री मोएडालीफ लिखते हैं वायु में कार्बन की मात्रा पर भूमि का ताप आधारित है। भिन्न भिन्न कालों में ताप की भिन्नता का प्रधान कारण कार्बन वायु की मात्रा की भिन्नता थी ।

पाठकों को अब पता लग गया होगा कि यदि कहीं कृत्रिम ढंग से कार्बन गैस उत्पन्न कर वायु मण्डल में छोड़ी जाये ता वहाँ की उष्णता बढ़ जावेगी । यह नियम है कि जहाँ अधिक गर्मी होगी यदि वहाँ जल हो तो वनस्पति की उपज अधिक होगी ।

हवन से कार्बन गैस उत्पन्न कर हम धर्म बढ़ाते हैं। जिससे अन्न फल आदि की अधिक उत्पत्ति होती है। इसके प्रत्यक्ष उदाहरण विद्यमान हैं। ज्वालामुखी पर्वतों से यह वायु निकलती है । उनके आसपास वृक्ष तथा वनस्पति अधिक होती हैं। फ्राँस में युबरीन में एक चश्मे से वह वायु निकली है अतः वृक्ष आदि की वहाँ बहुतायत है । इसके अतिरिक्त यज्ञ-कुण्ड की वेदी के चारों ओर एक नाली सी बनी रहती है जिसमें जल भर दिया जाता है कि कार्बन से उत्पन्न होने वाले शिकार जो कि पृथ्वी पर हो सकते हैं अपने भीतर समष्टि कर लेता है

वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है कि हवन से जो वायु बनती है उसमें अधिक भाग ओषजन होती है इसका प्रमाण यह है कि हवन की वायु में सुगन्धित वायु अधिक मात्रा में होती है और ओषजन युक्त वायु का ही दूसरा नाम प्राण पद वायु है।

प्रातः उषाकाल में जो वायु चलती है वह सबसे अधिक प्राणप्रद मानी जाती है उसमें भी ओषजन ही अधिक होता है अतः इससे सिद्ध होता है कि हवन यज्ञ वायु को शुद्ध करता है और प्राणप्रद वर्षा भी करता है।


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