विज्ञान का आदि पिता यज्ञ

December 1955

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(श्री वाचस्पति शास्त्री विद्याभास्कर, लखनऊ)

मानव के आदिपूर्वजों ने जब कार्यक्षेत्र में पदार्पण किया तो उन्होंने अपने से भी अधिक शक्तिशाली बलवान और तेजस्वी कुछ अन्य प्राणियों को देखा और यह भी देखा कि इन प्राणियों की हिंसक वृत्ति के आगे अपना जीवन भी सुरक्षित नहीं है। इसलिए उन्होंने एक चित्त होकर सबसे पूर्व उस ज्ञान का संकलन किया जो रचना परम्पराओं से सदा से चला आ रहा है जो सज सनातन है जिसे सबने एक दूसरे से कहा और सुना ही है इसीलिए वह श्रुति कहलाता है। जो सृष्टिकर्ता व्यापक चैतन्य का भोक्त चैतन्य के लिये सबसे बड़ा वरदान है। उस श्रुति संकलन से आदि मानवों में संगतिकरण की प्रवृत्ति जागृत हुई। संगतिकरण के शुभ परिणाम ऋचाओं के रूप में प्रकट हुये ऋचा ने मानवों का ध्यान एक ऐसे पदार्थ की और आकृष्टि किया जिससे प्रकृति एक ऐसे रूप में प्रकट हुये ऋचा ने मानवों का ध्यान एक ऐसे पदार्थ की और आकृष्टि किया जिससे प्रकृति के अनन्त भण्डार की कुंजी ही मनुष्य को मिल गई रचना विज्ञान का रहस्य हाथ लग गया और प्रकृति में मन चाहे परिवर्तन करने का साधन प्राप्त हो गया। वह पदार्थ है अग्नि।

जिस दिन से ऋग्वेद की प्रथम ऋचा की कृपा से मनुष्य ने अग्नि प्रज्वलित करना सीख लिया उसी दिन से यह संसार का सबसे प्रभावशाली सत्य बन गया । उसी दिन से बड़े से बड़े हिंसक जीव भी इससे भयभीत होने लगे। जिसके हाथ में प्रकाश और ताप का स्वेच्छा नियंत्रण आ गया उसकी शक्ति का सामना अन्य प्राणी कर भी कैसे सकते थे। संगति करण से उत्पन्न हुये अग्नि को संगतिकरण में ही लगा दिया तब उससे सहस्र गुणित से संवृद्धि प्राप्त होने लगी। जिसे हम संगतिकरण कह रहे है इसी का वैदिक नाम ‘यज्ञ’ है अतः यज्ञ से उत्पन्न हुआ अग्नि यज्ञ के ही कार्यों में नियोजित किया गया। यज्ञाग्नि ने थोड़े ही समय में प्रकृति की मुख्य शक्तियों को जिनको वैदिक भाषा में हम देवता कहते हैं। अपने वश में करके यजमान को सौंप दिया। यजमान अग्नि के माध्यम से समस्त देवताओं की पूजा करके उनको वश में कर सकने में समर्थ हो गया। अग्नि की कृपा से भौतिक विज्ञान का मार्ग खुल गया इससे कोई आधुनिक विज्ञान वेत्ता भी इनकार नहीं कर सकता है।

इस प्रभावशाली अग्नि को प्रारम्भ में कृत्रिम रूप से ऋग्वेद की प्रथम ऋचा की प्रेरणा से ही उत्पन्न किया गया था और उसे उत्पन्न करने में जो प्रयत्न किया गया था उसी का नाम यज्ञ है। ऋग्वेद की ऋचा में अग्नि की स्तुति में पाँच विशेषण दिये है वे पांचों यज्ञ के ही विभिन्न व्यक्तियों से सम्बन्धित है आप उनकी संज्ञा मात्र से ही उनको पहिचान सकते हैं वे इस प्रकार है 1 पुरोहित 2 यज्ञ का देव 3 ऋत्विज् 4 होता 5 रत्नधातम। इन पांचों विशेषणों से पता चलता है कि अग्नि के प्रथम उत्पादकों के सामने अग्नि उत्पन्न करने का लक्ष्य यज्ञ करना ही था और यज्ञ ही के द्वारा संपूर्ण समृद्धियों का पाना था। हमारे आदि पूर्वजों ने यज्ञ के द्वारा ही अनेक विज्ञानों का आविष्कार किया और उससे मानव समाज तथा सभ्यता का विकास हुआ सामूहिक रूप से विश्वात्मा की तृप्ति के लिये प्रयत्न करना अर्थात् विश्व कल्याण के स्तर पर संवृद्धि के लिये प्रयत्न करने का ही नाम यज्ञ है और अग्नि ही ऐसे यज्ञ का देव है। संसार की रचना अनेक तत्वों के मिश्रण से हुई है इस मिश्रण क्रिया को यज्ञ कहते हैं और उन प्राकृतिक शक्तियों को देव कहते हैं। जो इस मिश्रण में उपादान हैं अतः विश्व की उत्पत्ति देवताओं के यज्ञ का ही परिणाम है। अतः जब कभी हम यज्ञ के लिए अग्नि स्थापित करते हैं तो मन्त्र बोलते हैं (तस्यास्ते पृथिवी देव यजनी) अर्थात् देवयजनी पृथ्वी पर यज्ञ के लिये हम अग्नि स्थापन करते हैं। इस प्रकार विश्वात्मा के यज्ञ के अनुसार हम यज्ञ करते हुए संसार में समृद्धि चाहते हैं।

कालविज्ञान

यज्ञ के लिये सर्व प्रथम समय निर्धारण की आवश्यकता हुई अतः यज्ञ करने के लिये अहोरात्र से लेकर सहस्र वर्ष और कल्प पर्यन्त काल का ज्ञान किया गया काल परिचय के यथार्थ साधनों के रूप में ग्रह−नक्षत्रों की गति का ज्ञान संवत्सर ऋतु मास पक्ष तिथि नक्षत्र योग मुहूर्त आदि की गणना से ज्योतिष विद्या का आविष्कार हुआ। दैनिक पाक्षिक मासिक आर्तव सांवसरिक आदि यज्ञों के काल निर्णय के लिये ही ज्योतिष की रचना हुई।

कृषि विज्ञान

विभिन्न समय पर यज्ञ करने के लिए आवश्यकता हुई भिन्न-भिन्न अन्नों की अतः पहिले तो ये अन्यत्र तत्र से एकत्रित किये गये किंतु एकत्रीकरण में कठिनाई देखकर कृषि द्वारा इनको उपजाने की चेष्टा की गई ओर इस प्रकार यज्ञ के लिये ही आदि मानवों ने कृषि विज्ञान को जन्म दिया। यजुर्वेद अ, 18 मन्त्र 12 घ्रीहयश्चमे यवाश्यमे मापाश्चमे विलाश्चमे मुद्गाश्चमे खल्वाश्चने प्रियगंवश्चमे अणवश्चमे श्यामाकाश्चमे नीबाराश्चमे गोधूमाश्चमे मसूराश्चमे यज्ञेनकल्पन्ताम्) इस मन्त्र में 12 अन्न जो भिन्न 2 ऋतुओं में पैदा होने वाले भिन्न प्रकार के अन्न है धान, जौ, उड़द, तिल, मूँग, खल्व, प्रियंग, अणु, समा, नीवार, गेहूं, मसूर। इन सबको यज्ञ के लिए तथा यज्ञ के द्वारा प्राप्त करने के लिए कहा गया है इससे सिद्ध होता है कि कन्दमूल फल आदि से निर्वाह करने वाले आदि मानवों ने यज्ञ ही के लिये कृषि से पकने वाली तथा स्वयं पकने वाली औषधियाँ यज्ञ से प्राप्त हो (ओषध्यः फलपाकान्ता) अर्थात् फल पक जाने पर जिनके पौधे समाप्त हो जावे उनको औषधि कहते हैं।

यज्ञ वेदियों के निर्माण के लिये विभिन्न मिट्टियों का अनुसंधान किया गया और अनुभव हुआ कि अनेक मृत्तिकायें भूगर्भ में बड़ी ही विलक्षण है इन विलक्षण मिट्टियों की वेदी बना कर यज्ञ करने से यज्ञाग्नि के ताप से पिघलकर मानव को धातुओं ने दर्शन दिये।

यजुर्वेद अ. 18 मन्त्र 13 में- अश्माचमे मृत्तिका श्चमे गिरयश्चमे पर्वताश्चमे सिकताश्चमे वनस्पतयश्चमे हिरण्यंश्चमे अयश्चमे श्यामंचमे लोहश्चमे सीसंश्चमे त्रवुचमे यज्ञेनकल्पन्ताम्। यहाँ 6 धातुओं का वर्णन है हिरण्य अयः श्यामलोह शीशा और त्रपु। इनमें सर्व प्रथम हिरण्य अर्थात् सौना ही का नाम है’ है भी स्वाभाविक क्योंकि सर्वप्रथम अधिक चमकीला होने के कारण सोना ही दिखाई दिया होगा फिर अन्य धातुएं भी मिली होंगी पर इनका प्रारम्भ निश्चय ही यज्ञ वेदी से ही हुआ है।

यज्ञ वेदिओं को विभिन्न रूप की बनाने के लिये नाना प्रकार के डिजाइन बनाने पड़े इसलिये रेखा और रेखाओं के गणित का आविष्कार हुआ वेदिध्य को केन्द्र मानकर भाँति भाँति की रेखाओं द्वारा अनेक कोणों से रचनायें की गई। अयं यज्ञोभुवनस्य नाभिः) यह यज्ञ भुवन की नाभि है (अयंवेदिपरो अन्त पृथिव्या) यह वेदी विस्तार का अन्तिम छोर है। इन वेद वाक्यों से यही प्रगट होता है कि नापने की विद्या रेखा गणित यज्ञ वेदी से ही प्रारम्भ हुआ।

यजुर्वेद अ॰ 18 मं0 24 (एकाचमे तिस्रश्चमे) आदि विषम संख्या तथा मं0 25 (चतस्रश्चमेऽष्टौचमे) आदि सम संख्याओं की गणना को यज्ञ के लिये बता रहे है इससे ज्ञात होता है कि गणित शास्त्र का आविष्कार भी यज्ञ ही के लिये हुआ।

पशुशास्त्र

यज्ञ के लिये दूध देने वाले पशुओं की आवश्यकता पड़ी इसीलिये उनका पालन प्रारम्भ हुआ दूधा रूप पशुओं में गौ को सर्वाधिक दूध देने के कारण अधिक महत्ता प्राप्त हुई यजुर्वेद का प्रथम मंत्र स्पष्ट कहता है कि श्रेष्ठतमायकर्मणे यज्ञ करने के लिये (अघ्न्या) गौयें बढ़े। भार ढोने के लिये बैल और सवारी के लिये घोड़ा भी आवश्यक हुआ अतः स्थान स्थान पर वेद मंत्रों में (यजमानस्य पषून पाहि) यजमान के पशुओं की रक्षा पालना कर ह कहा है घृतकानम वेद में ‘आज्ञ’ यज्ञ का साधन है क्योंकि धृत का जन्म यज्ञ के ही लिये हुआ है। यज्ञ के उपभोग में भिन्न भिन्न प्राणियों का आलंबन होता है इसमें विद्वानों के दो मत हैं एक तो यह मानते हैं कि विभिन्न प्राणियों की आहुति यज्ञ में दी जाती है और दूसरे यह मानते हैं कि यज्ञ एक सामूहिक उन्नति का कार्य है उसमें भिन्न भिन्न अवसरों पर सम प्राणियों की उपयोगिता प्रदर्शित की जाती है इसका ही नाम आलम्भन है। क्योंकि यज्ञ तो अध्वर हैं अर्थात् किसी की हिंसा न करने वाला है। अतः आहुति देने वाला पक्ष उचित नहीं दोनों ही मतों से यह तो स्पष्ट ही है कि यज्ञ में विभिन्न प्राणियों का प्रयोग होता है इसीलिये अनेक पशु और पक्षियों की जानकारी प्राप्त करना और उनका पालन यज्ञ की पूर्णता के लिये प्रारम्भ हुआ।

पंच महायज्ञों में बलि वैश्वदेव भी एक यज्ञ है इसमें कृमिकीटों को भी अन्न देने का विधान है अतः बड़े से बड़े सर्पों से लेकर छोटे से छोटे कीटों तक का परिचय और उनके स्वभाव का ज्ञान इस यज्ञ के द्वारा प्राप्त हुआ है। सर्प जैसे घातक सरीसृप को भी अन्न देना दूध पिलाना और इस भाँति उसके रहस्यों को जानकार अपने वश में कर लेना यह एक कौशल की बात है किन्तु यह कौशल बलिवैश्व देव यज्ञ की ही देन है।

सर्व प्रथम यज्ञों में ही अन्नों का उपयोग हुआ या में अन्न कच्चे और साबुत दाने ही डाले गये अग्नि पर पड़ते ही उनमें से एक सोंधी सोंधी गंध उठी जिससे भूनकर अन्न खाने की प्रवृत्ति चली। भुने हुए अन्न की रुक्षता के कारण कुछ समय पश्चात दानों को पीसकर चूर्ण बनाकर उस जल दुग्ध आदि से सानकर घृत लगाकर अग्नि पर पत्थर के टुकड़े रखकर सेक के “पुरोडाश” खाया गया तो बड़ा ही स्वादिष्ट लगा अतः मनुष्यों ने अपने भोजन के लिये भी अन्न सिद्ध करने की इसी प्रक्रिया को अपनाया। आज तो मानव का पाक विज्ञान इतना बढ़ा हुआ है कि एक ही अन्न में से अनेक प्रकार के भोज्य तैयार किये जाते हैं किन्तु दानों को भूनकर उपयोग करना दलकर ‘यवगू’ बनाना पीस कर पुरोडाश बनाना यही क्रम पाक विज्ञान के विकास का है। आज भी यह क्रम यज्ञों में ज्यों का त्यों वर्तमान है। यज्ञ में अन्न सिद्ध करने के साधन सूर्य (सूप या छाज) तितऊ (चलनी) दषद् उपल (सिलबट्टा) उलूखल मुसल (ओखली मूसल आदि का आज भी पूर्ण महत्व है।

यह ध्यान देने योग्य बात है कि ऋषि प्रणाली के अनुसार यज्ञ में बिना आहुति दिये अग्नि का बिना जिमाये स्वयं भोजन पाना वर्जित है। बिना यज्ञ किये भोजन पाने वाले को केवलाघोभवतिकेवलाही। अकेला खाने वाला केवल पाप का ही भोजन करता है, ऐसा कहा गया है।

मानव की समाज रचना पर यज्ञ का पूरा प्रभाव है अतः परिवार से लेकर चक्रवर्ती राज्य स्थापन तक संपूर्ण प्रगति विभिन्न यज्ञों में बंधी हुई है पुत्रेष्टि राजसूय अश्वमेध राष्ट्रभृत आदि यज्ञ इस बात के प्रमाण है।

सभा की भावना भी यज्ञ ही से उत्पन्न हुई है क्योंकि सबसे पूर्वजन समुदाय का एकीकरण यज्ञ ही के लिये हुआ।

पंचायत का प्रयोग भी यज्ञ के लिये हुआ है पंचायत में चारों वर्ण ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र का एक एक प्रतिनिधि और एक जंगल वासी इस प्रकार पाँच प्रतिनिधियों की पंचायत होती है। पंचायत का सर्व प्रथम प्रयोग यज्ञ में निमन्त्रण के लिये ही ऋग्वेद में किया गया है (पंचजना मम होत्रं जुषध्वम्) पाँच जने मेरे हवन में आवें। यज्ञ में व्यक्तियों को यथा स्थान बिठाना अपने अपने विभक्त कार्यों को करना आदि सभा के नियमों का सर्वाधिक ध्यान रक्खा जाता है। यज्ञ में व्यवस्था (विधि) का सबसे अधिक महत्व है विधि हीन यज्ञ निष्फल कहा गया है।

संगीत नृत्य वादित्र और नाट्य कला का भी विकास यज्ञ ही से है यज्ञ में एक विशेष ऋत्विज् का नाम उद्गाता है जो उच्च स्वर से गा सके। भिन्न भिन्न समय पर गायन वह परिपाटी यज्ञ में सामगायन की है इसे उद्गाता करता है। नाट्य शास्त्र की उत्पत्ति यज्ञ से ही है जो व्यक्ति नाट्य कला को पारसियों की देन मानते हैं वह ठीक नहीं है क्योंकि नाटक की भावना यज्ञ से ही उत्पन्न हुई है उसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि नाटक के अभिनेताओं को पात्र करते हैं यह पात्र शब्द यज्ञ पात्रों से ही तो लिया गया है अधिक क्या लिखे मनुष्य की समस्त प्रगतियों का मूल इतिहास आज भी आर्य संस्कृति में यज्ञ के रूप में सुरक्षित हैं अतः यज्ञ कर्म में श्रद्धावान होना जहाँ पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकाशन है वहाँ चतुर्मुखी उन्नति का बीज मन्. सिद्ध करना भी है।

यज्ञ शिष्टाशिनः सन्तोमुच्यन्तेसर्वकिल्विषैः।

मुंजते ते त्वधं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ।। 3।13।।

अर्थ यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से छूटते हैं और जो पापी लोग अपने ही शरीर पोषण के लिये पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं।

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्न सम्भवः।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्म समुद्भवः।।3।14।।

अर्थ-सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं और अन्न की उत्पत्ति पर्जन्य से होती है और वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ तो कर्म से ही उत्पन्न होने वाला है।

यज्ञशिष्टामृत भुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।

नायंलोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम 4।31।।

अर्थ- हे कुरुश्रेष्ठ! यज्ञों के परिणाम रूप अमृत को भोगने वाले योगी गण सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। यज्ञ से रहित जो पुरुष हैं, उन्हें तो यह (मनुष्य) लोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक की तो बात ही क्या ?

त्रैविद्या माँ सोमपाः पूत पापा, यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते। ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देव भोगान् ।।9।2।।

अर्थ- त्रैविद्याः (तीनों वेदों में विधान किये हुये कर्मों को करने वाले) एवं सोमरस पीने वाले, पापों से पवित्र हुये पुरुष मुझे यज्ञों द्वारा पूज कर स्वर्ग को चाहते हैं, वे पुण्य इन्द्रलोक को प्राप्त कर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं।


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