यज्ञ करने वाले इन बातों का ध्यान रखें।

December 1955

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(श्री आनन्द जी, टीकापट्टी)

यज्ञ की सफलता के लिये यह आवश्यक है कि उसके सब कार्य व्यवस्था पूर्ण हों आग तापने या होली जलाने जैसा कौतूहल करने के लिये हवन करना व्यर्थ ही नहीं हानिकारक भी है। कहा भी है-“नास्ति यज्ञ समं रिपु” अविधि पूर्वक किया हुआ हवन शत्रु के समान हानिकारक भी होता है, जबकि विधिपूर्वक किया हुआ हवन कामधेनु गौ एवं कल्पवृक्ष के समान हमारे सभी अभावों को दूर करने वाला सिद्ध हो सकता है।

यज्ञ एक प्रकार की वैज्ञानिक प्रक्रिया है। जो वैज्ञानिक प्रक्रिया जितनी शक्तिशाली होती है, उसमें उतनी ही सावधानी बरतनी पड़ती है। बढ़िया बारूद बनाने के कारखाने में यदि रासायनिक पदार्थों के सम्मिश्रण में लापरवाही होने लगे तो वहाँ रद्दी बारूद बनेगी, और जब उसका बन्दूक में उपयोग किया जायेगा तो लक्ष्य वेद में सफलता न मिलेगी इसलिए उस बारूद के कारखाने के व्यवस्थापक पूरी सावधानी से यह देख भाल करते रहते हैं कि कारखाने पर हर कार्य पूर्ण रूपेण नियम पूर्वक हो। यदि बारूद पीसने वाले या कारतूस भरने वाले कर्मचारी ढील पोल की नीति से काम करें लापरवाही बरतें बीड़ी पीकर चिनगारी बखेर दें तो सारे कारखाने का ही स्वाहा कर सकते हैं। घटिया कार्यों में लापरवाही चल सकती है पर जो कार्य जिम्मेदारी के हैं उनमें पूर्ण जागरुकता एवं पूर्ण व्यवस्था की ही आवश्यकता रहती है। यज्ञ में ऐसी ही विधि व्यवस्था बरती जानी चाहिये।

ब्रह्मा, अध्वर्यु, उद्गाता, ऋत्विक्, आचार्य आदि कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ पहले से ही बाँट दी गई है कि वे अपने विभाग की सुव्यवस्था रखें और करवायें। यों हवन का काम मामूली सा है। एक सुपरवाइजर बड़े-बड़े मिलों का इंतजाम कर सकता है तो छोटे से हवन के लिए भी एक मैनेजर काफी होना चाहिए। पर वस्तुतः, यज्ञ बहुत गंभीर बात है, उनकी प्रत्येक गतिविधि परपूर्ण मनोयोग के साथ ध्यान रखना सामान्य मस्तिष्क के एक आदमी का काम नहीं है, इसलिए यज्ञ के प्रत्येक कार्य में पूरी सावधानी रखने के लिए कई कार्यकर्ता विभागाध्यक्ष नियुक्त करते हैं। आचार्यादिवरण की यही प्रक्रिया है। यह लोग पूरे जिम्मेदार, पूर्ण श्रद्धालु और अपनी जिम्मेदारी को निबाहने के लिये भरपूर परिश्रम करने वाले होने चाहिए। देखा जाता है कि दक्षिण लोभी किन्तु भीतर से श्रद्धालु पंडित, आचार्यादि तो वन जाते हैं पर समय काटने और बला टालने की नीति बरतते हुये अपनी जिम्मेदारी की उपेक्षा करते रहते हैं, कार्य अविधि पूर्वक होता रहता है, यह अनुचित है। उपयुक्त कार्यकर्ताओं की व्यवस्था पहले होनी चाहिए। हवन कुण्ड या ठेखे की रचनायें निर्धारित नाप तोल का, यथोचित आहुति बढ़ाने का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए। गोला वारा करने से जो महत्व तोप या बन्दूक की नाल का वही महत्व हवन कुण्ड की रचना का है। हवन कुण्ड रूपी तोप में आहुति रूप कारतूस डाल कर अन्तरिक्ष में अवस्थित, रोग, अनिष्ट, आलाप, पाप, असुर आदि शत्रुओं पर गोलाबारी की जाती है, इसलिये नाल का सुख ठीक प्रकार से ही बना हुआ होना चाहिए। कम दूर, चक्कर से घूमती हुई गोलियाँ छोड़ने के लिए अलग-अलग विधान से बन्दूकों की नालें बनाई जाती हैं, हवन कुण्डों का निर्माण का आधार भी वही है। चाहे जैसे मनमाना गड्ढा खोदकर हवन सामग्री की भट्टी जलाते रहना बुद्धिमत्ता नहीं है।

आवश्यक समान पहले से ही संग्रह कर लेना चाहिए ताकि आवश्यकता पड़ने पर बीच बीच में काम बन्द न करना पड़े पूजा के सभी उपकरण एकत्रित हो गये हैं नहीं वह एक दृष्टि से पहले ही देख लेना उचित है। सभी वस्तुओं की शुद्धता पर पूरा ध्यान रखा जाए।

सड़ी गली, नकली, गन्दी, सस्ती चीजें प्रायः पंसारी लोग हवन पूजा आदि के लिए सुरक्षित रख लेते हैं। खरीदने वाले भी सोचते हैं, यह चीजें हमें कोई खानी थोड़े ही है, सस्ती चीजें लेकर काम क्यों नहीं चला लें। यह उपेक्षा बुरी है। जब हम अपने साधारण मित्र, अतिथि या रिश्तेदार को अपने उपयोग की अपेक्षा कुछ अच्छी चीजें प्रस्तुत करते हैं तो देवताओं को, पितरों को यज्ञ भगवान को, सड़ी गली चीजें भेंट करना किस प्रकार उचित हो सकता है?

दवात कलम, कागज, स्याही आदि ठीक न हों तो अच्छा लेख लिख सकना इसी प्रकार यज्ञीय उपकरणों को ठीक होना आवश्यक है। स्रुवा, स्रुचि, प्रणीता, प्रोक्षणी, स्थल, चरुस्थाली, आज्यस्थाली आदि यज्ञ पात्र, निर्धारित वृक्षों की लकड़ियों से निर्धारित नाप तोल से बने होने चाहिए। इस पात्र रचना में वैज्ञानिक तथ्य भरे हुए है। ताँबे के बर्तन में रखा हुआ दूध थोड़े ही समय में विषैला हो जाता है दूध पीने के लिए मिट्टी या चाँदी का पात्र उपर्युक्त माना गया है, गीली खटाई भी किसी धातु के वर्तन में बहुत जल्दी खराब हो जाती है किन्तु अमुक प्रकार के पात्रों में नहीं बिगड़ती। इसी प्रकार यज्ञ सामग्री, हवि, चरु, आज्य, जल आदि के लिए जिन काष्ठों के जिस आकार के पात्रों का निर्धारण किया गया है वह परम्परा सूक्ष्म विद्वान पर अवलंबित है। उसकी उपेक्षा न की जानी चाहिए।

समिधायें सब वृक्षों की काम में नहीं ली जा सकती है। जिनमें काष्ठों में उपयोगी सूक्ष्म शक्ति मिली है उनको यज्ञ में ग्राह्य माना गया है। बड़, पीपल, गूलर, आम, शमी, ढाक, छोंकर आदि की समिधाएं प्रयोजनीय है। इमली, नीम, बबूल आदि निषिद्ध ठहराये गये हैं। समिधाएं उस वृक्ष की लेनी चाहिए जो मरघट, कसाई खाना, पखाना आदि परिणत स्थानों पर अवस्थित न होकर पूजा उपासना के क्षेत्र से समीप हो। दक्षिण दिशा की और झुकी हुई गिद्ध चील आदि की विष्टा से सनी हुई शाखाएं हवन के लिए उपर्युक्त नहीं। सड़ी, धुनी, नीली, आधार से अधिक मोटी या पतली समिधाएं ठीक नहीं। समिधाओं को धोकर धूप में सुखा देना चाहिए, शुद्ध समिधाएं ही प्रयोजनीय हैं।

हवन सामग्री का विषय अत्यन्त ही महत्वपूर्ण सूक्ष्म विचारणीय एवं सावधानी रखने योग्य है। हवन में जौ, चावल, तिल आदि हविष्यान्न प्रयुक्त होते हैं। खीर, हलुवा, मोदक आदि का चरु बनाया जाता है, किशमिश, मुनक्का, छुहारा, शकर, मधु आदि मिष्ट पदार्थ होमे जाते हैं, चन्दन, देवदारु-अगर, तगर, छारछवीला, गूगल आदि सुगन्धि फैलाने वाले पदार्थ काम में लाये जाते हैं। दालचीनी बच, ब्राह्मी, शतावर, जावित्री आदि औषधियाँ हवन की जाती है। घृत इन सब का अनुपान है। घृत इनमें से प्रत्येक वर्ग के साथ रहता है। ताँत्रिक उपचारों में जहाँ गोल मिर्च, अपामार्ग, आक, नख, लाम आदि का हवन करते हैं वहाँ भेड़, गधी, ऊँट आदि के दूध का धी या सरसों सत्यानाशी आदि का तेल प्रयुक्त होता है।

किस संकल्प के साथ, किस उद्देश्य से, किस सामर्थ्य का मनुष्य, कैसा हवन कर रहा है, उसे भली प्रकार समझ लेने के बाद ही हवन सामग्रियों का निर्धारण करना उचित है। आयुर्वेद शास्त्र के निघण्टु भाग में प्रत्येक औषधि के गुणों का वर्णन है। यदि अरोग्य के लिए हवन किया गया है तो सामने उपस्थित बीमारी के उपयुक्त हवन सामग्रियों का चुनाव होना चाहिए। यों साधारण हवन में-सभी सामग्रियां लगभग समान भाग से मिला लेने से काम चल जाता है पर विशेष परिस्थिति में उनकी मात्रा में न्यूनाधिकता करनी ही पड़ेगी। रोगी के शरीर में बात, पित्त, कफ किस की प्रधानता है। कौनसा दोष मंद और कौन-सा रोग प्रबल है। ज्वर, खाँसी, अतिसार आदि कई रोगों का संमिश्रण हो तो उनमें से कौन अधिक और कौन मंद हैं इसका अनुपात देखते हुए उन रोगों की औषधियों के नाम तथा मात्रा निर्धारित करनी होगी। पुत्रेष्टि यज्ञ करना हो तो देखना होगा कि कि पुरुष में क्या और स्त्री में क्या दोष हैं, एवं अभाव है। उसके उपयुक्त चिकित्सा का हव नहीं सफलता प्रदान करेगा। अरोग्य वर्धक हवनों के आचार्य को आयुर्वेद का गम्भीर ज्ञान होना आवश्यक है।

मानसिक संस्कार के लिए किये गये हवनों की सामग्री का चयन करके समय अमुक पदार्थों के अन्दर छिपे हुए चेतना तत्वों का ज्ञान होना चाहिए। जैसे तुलसी और करंज में आयुर्वेद की दृष्टि से कृमि नाशक गुण लगभग समान है। फिर भी “चेतना विज्ञान” की दृष्टि से तुलसी में सात्विकता और करंज में तमोगुण की प्रधानता स्पष्ट अनुभव की जा सकती है। प्याज और लहसुन में अरोग्य की दृष्टि से कोई बुराई नहीं है पर “चेतना-विज्ञान” उनमें तमोगुण की प्रधानता बताता है। इस के सेवन से स्वास्थ्य चाहे सुधरें पर सेवन करने वाले के मनन क्षेत्र में तमोगुण अवश्य बढ़ेगा। इसी प्रकार प्रत्येक हविष्यान्न, चरु, हवि, आज्य, औषधि में कुछ विशेष चेतना तत्व छिपे होते हैं, वे अपना प्रभाव बौद्धिक जगत में उत्पन्न करते हैं। व्यक्तिगत रूप से काम, क्रोध, लोभ, आवेश, चिन्ता, शोक, भय, उन्माद आदि की निवृत्ति के लिए तथा समष्टि रूप में व्यापक वायुमण्डल में फैले हुए पदार्थ परता, युद्धोन्माद आदि को शांत करने के लिए ऐसी हवियों को चुनना पड़ेगा जिनकी सूक्ष्म चेतना शक्ति अभीष्ट प्रयोजन के लिए उपर्युक्त हो। धन प्राप्ति, अरोग्य लाभ, शत्रुता निवारण, अरोग्य बुद्धि, सुसंतति, बुद्धि वृद्धि अनिष्ट शांति आदि काम्य प्रयोजनों के लिए जिस प्रकार आहुतियों के मंत्र अलग अलग हैं, उसी प्रकार हवनीय सामग्रियां और उनकी मात्रा भी अलग अलग होती है। उनका चुनाव करना आवश्यक है। पदार्थों की सूक्ष्म शक्ति को जानना आयुर्वेद शास्त्र के ऊपर की विद्या है। प्राचीन काल में इस विद्या को, अध्यात्म तत्व ज्ञान के आचार्य भली प्रकार जानते थे। अब इस विद्या के ज्ञाता दृष्टिगोचर नहीं होते फिर भी प्रयत्न करने पर उस विज्ञान को ढूंढ़ निकालना कठिन नहीं।

प्राचीन काल में हवनीय सम्पूर्ण पदार्थों का संस्कार करके उनमें वह सूक्ष्म शक्तियाँ पैदा की जाती थीं जो अभीष्ट उद्देश्य के लिए आवश्यक होती थी। हवन में काम आने वाली औषधियाँ अमुक प्रकार के क्षेत्र में, अमुक नक्षत्र में, अमुक मंत्रों के साथ बोई जाती थीं उन्हें अमुक प्रकार के जल से सींचा जाता था और उनमें अमुक खाद दिये जाते थे। अमुक मुहूर्त में उन्हें तोड़ा जाता था और अमुक मन्त्रों से संस्कार करके उन्हें हवन के योग्य बनाया जाता था। जिन गौओं का घृत उपयोग में लेना होता था उन्हें अमुक प्रकार की घास, अमुक अन्न, अमुक प्रकार का जल दिया जाता था, उनके अमुक मन्त्रों से अभिषिक्त और पूजित किया जाता है। उनका दूध अमुक प्रकार के पात्र में दुह कर अमुक लकड़ी की रई से बिलोकर घृत निकाला जाता था। उसी प्रकार समिधाएं, चरु, राज्य, आदि को संस्कारित करते थे। यज्ञ के आचार्य आदि को तथा यजमान को अमुक प्रकार के रहन सहन एवं नियमों का पालन करना होता था, इस प्रकार संस्कार करने से उन सब में अमुक प्रकार की सूक्ष्म चेतना उत्पन्न होती थी और उस चेतनामय वातावरण को हवन द्वारा उत्तेजित करके, आकाश को अभीष्ट तत्वों से परिपूर्ण कर दिया जाता था। यह परिपूर्णता ही भौतिक या आध्यात्मिक मनोकामनाओं को पूर्ण करने का हेतु बनती थीं।


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