यज्ञ की वैज्ञानिक शक्ति

December 1955

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(श्री राजबहादुर सिंह “सुमन्त”-प्रयाग)

श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार सभी प्रकार के शुभ कर्म जिससे, ज्ञान, विज्ञान, तपस्या, संयम अन्न, सुख, सम्पत्ति आदि की बुद्धि हो वह सब भिन्न-भिन्न प्रकार के यज्ञ कहलाते हैं। उनमें से हम केवल अग्निहोत्र यज्ञों पर ही विचार करेंगे। सभी प्रकार के यज्ञों की उत्पत्ति ब्रह्म से हुई है। अतः अग्निहोत्र भी सृष्टि के आदि ही से विद्यमान था तथा इसी के द्वारा प्रजा की वृद्धि हुई।

भारतीय दर्शन के अनुसार सबसे सूक्ष्म तथा चरमतत्व जो अनन्त देशकाल में सम्यक् रूप से व्यापक तथा धारक है उसे ब्रह्म कहते हैं। सृष्टि की प्रलपित तथा कल्पित दोनों दशाओं में एक रस, समान भाव से विद्यमान रहता है। जैसे सारे विश्व का संस्थान अनन्त व अखण्ड देशकाल अथात् अनन्त शून्य आकाश, व कल्प, कल्पान्तर, युग युगादि हैं, उसी प्रकार इस अनन्त व अखण्ड देशकाल का भी संस्थान ब्रह्म है।

सारे विश्व का सूक्ष्मातिसूक्ष्म कारण ब्रह्म है, ब्रह्म से यज्ञ की उत्पत्ति हुई तथा फिर यज्ञों द्वारालोक वृद्धि हुई अतः लोक वृद्धि के सूक्ष्म कारण सृष्टि के आदि में यज्ञ ही में विद्यमान थे।

ब्रह्म द्वारा सृष्टि का क्रम इस प्रकार है कि पहले सूक्ष्मतत्व हुये फिर क्रमशः स्थूलतत्व बनते चले आये। यथा ब्रह्म से सर्व प्रथम ॐ शब्द प्रकट हुआ। यह एक ही अक्षर समस्त स्वर व्यंजनों का एक अद्वितीय प्रतिनिधि तथा जनक है। इस ॐ शब्द ने अपना विकास व प्रसार कर सर्व प्रथम आकाश को जन्म दिया यह आकाश सूक्ष्मतम तत्व है तथा इसका गुण शब्द है आकाश में ॐ का घोर गर्जन होता रहा। जिससे शब्द होने के कारण गति प्रकट हुई, उससे वायु बल। वह आकाश की अपेक्षा कम सूक्ष्म हैं, वायु का गुण हुआ शब्द करना तथा स्पर्श करना।

स्पर्श गुण के कारण वायु की धाराओं में घर्षण हुआ जिससे तेज विद्युत अथवा अग्नि प्रकट हुआ शब्द व स्पर्श के साथ इसमें रूप भी प्रकट हुआ अतः यह देखा जाने के कारण स्थूलतत्व माना गया। अग्नि में पिघलाने की शक्ति होने के कारण फिर उससे जल बना। इसमें शब्द स्पर्श, रूप तथा एक नया गुण रस अथवा स्वाद का बनाई। जल में वायु तथा अग्नि की अपेक्षा अधिक स्थिरता होने के कारण। तथा धीरे-2 गाढ़ा पड़ जाने के कारण पृथ्वीतत्व बना। पृथ्वीतत्व में शब्द, स्पर्श, रूप, रस के साथ-साथ एक नया गुण गन्ध का बना। धीरे-2 पृथ्वी के ठोस बन जाने पर इस पर करोड़ों जाति की काई, सेवार, कुकुरमुत्ता, भुइछत्ता, जलचर, कीड़े, मकोड़े, पशु, पक्षी,छुप, पारिजात, लता, गुल्म, झाड़ियाँ छोटे बड़े वृक्ष बहुत प्रकार की धातुएं, गौ, मनुष्यादि प्रकट हुये। इससे यह सिद्ध हुआ कि सृष्टि का क्रम सूक्ष्म से स्थूल की ओर क्रमशः हैं। नवीन विज्ञान में भी पृथ्वियों, लोक-लोकान्तरों, ग्रह नक्षत्रों आदि की उत्पत्ति तेजोमय वाष्पपुंजों रूपी निहारिकाओं से माना गया हैं। द्रव्यों के तीन रूप वाष्प (Gas) द्रव (Liquid) तथा ठोस (Solid) होते हैं। आदिम काल में सभी ठोस तथा द्रव वाष्प रूप में थे। सेर भर तौल का लोह पिण्ड यदि विद्युत की भट्टी में डालकर गलाया जाय, तो पहिले पानी जैसा पतला होकर फिर वाष्प बनकर उड़ जाता है तथा पुनः प्रक्रिया द्वारा ठोस लोह पिण्ड में परिवर्तित किया जा सकता है पाश्चात्य जगत पृथ्वी की उत्पत्ति ऐसे मानता है कि पूर्व में यह सूर्य से टूटकर अलग हुये तथा दहकते हुये द्रव का एक गोला था जो क्रमशः ठण्डा होकर ठोस हो गया फिर इस पर धीरे-2 वनस्पति तथा जीव जन्तुओं का आविर्भाव हुआ। इस प्रकार पाश्चात्य दृष्टिकोण से भी सृष्टिक्रम सूक्ष्म से स्थूल की ओर ही है।

यज्ञ ही सृष्टि की वृद्धि का सूक्ष्म कारण था जो वायुमण्डल में अनेकों प्रकार की सिद्धि, समृद्धि सुख, सम्पत्ति, ज्ञान, जिज्ञासा, संयम, सदाचार आदि क प्राण रूप में विद्यमान था। यही यज्ञ रूपी सूक्ष्म प्राण, अग्नि में होकर जल व पृथ्वी तत्व का रूप धारण करके अभीष्ट फलों में बदल जाता है। इसी प्रकार वह शुद्ध तथा उचित स्थूल द्रव्य जिनमें जल व पृथ्वी के अंश अधिक हैं, उनको अग्नि में पुनः डाल कर वायु, वाष्प या धुयें के रूप में परिवर्तित व विशद करके वायुमण्डल में सुख समृद्धि तथा नाना प्रकार के अभीष्टों के प्राण पुनः बनाए जा सकते हैं।

सृष्टि के आदि में सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्राणियों की सृष्टि हुई जो जन्मना प्रत्येक सिद्धियों से सम्पन्न थे, प्रकट व लोप हो सकते थे, आकाशचारी थे तथा संकल्प मात्र से लोक लोकान्तरों में जा सकते थे। यह ऋषिगण थे इनको श्रुति सिद्धि थी इन को ब्रह्मशब्दों द्वारा अनेकों प्रकार की यज्ञ की विधियाँ ज्ञात थीं। ऋषिसर्ग के पश्चात देवसर्ग, पितृसर्ग, मनुष्यसर्ग तथा अनेकों अन्य सर्ग हुए जो ऋषियों के प्रति ब्रह्म द्वारा कथित यज्ञों का पालन करके अपना नया लोक कल्याण करते चले आए।

सृष्टि के प्रारम्भ में ऋषि सर्ग व देवसर्ग के प्राणी सिद्धि सम्पन्न होने के कारण केवल संकल्प मात्र से अभीष्ट फलों की प्राप्ति कर लेते थे-अर्थात् सूक्ष्म सृष्टि होने के कारण यज्ञों की स्थूल प्रक्रिया न होकर केवल कल्प व संकल्पों द्वारा ही वर्ता जाता था। अर्थात् उनको अग्नि में हवन द्वारा स्थूल द्रव्यों को वाष्प, वायु, अथवा धुयें में परिवर्तित करके वायु मण्डल में अभीष्ट फलों के प्राण, कारण व बीज बनाने की आवश्यकता न थी। परन्तु सतयुग के अन्तिम तथा त्रेतायुग के प्रारम्भ काल में जब कि मनुष्यादि सर्गों का आविर्भाव तथा वृद्धि हो चुकी थी तथा साथ ही साथ, मनुष्यों में इच्छा, आवश्यकता तथा रजोगुण की उत्तरोत्तर वृद्धि हो चली थी तो विविध संकल्पों के साथ उचित तथा शुद्ध व अभीष्ट फल सिद्धि कारक स्थूल द्रव्यों को अग्नि में हवन कर धुयें के रूप में विशद बनाकर वायुमण्डल में अभीष्ट फलों के कारण रूप प्राण बनाकर प्राप्ति व वृद्धि करने लगे। त्रेतायुग के विद्वान व वैज्ञानिक ऋषियों ने इस विद्या में बड़ी उन्नति की। व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र की कोई भी आवश्यकता हो उसके लिए तत्काल ही एक यज्ञ की व्यवस्था कर देते थे। संकल्पों के साथ उचित द्रव्यों को अग्नि में हवन करके अभीष्ट फल की प्राप्ति करने लगे। यहाँ तक उन्नति हुई कि इन्हीं यज्ञों द्वारा विशिष्ट शक्ति सम्पन्न देवता, असुर गंधर्व, राक्षस आदि प्राणियों को प्रकट करना, रथ, विमान, खीर अनेकों प्रकार की औषधियाँ, राजमहल घोड़ा, वृक्ष, गौ, नदी आदि मनचाही वस्तुओं को सद्यः प्राप्त करने के अनेकों उदाहरण हैं जो पुराणों व उपनिषदों में वर्णित है।

त्रेतायुग के ऋषियों ने उन भिन्न-भिन्न द्रव्यों का पता लगाया जिनको संकल्प के साथ अग्नि में हवन करने से भिन्न-भिन्न अभीष्टों की सिद्धि होती है उन्होंने गौ के लिये सर्वथा उपयुक्त पाया। गौ को यज्ञ की जननी कहते हैं, बिना गौ घृत के किसी भी यज्ञ की सिद्धि नहीं होती। यज्ञ के लिये ग्रहीत गौ घृत पूर्ण शुद्ध होना चाहिये इसका सतर्कता से विशेष ध्यान रखना चाहिये कि गोघृत के बदले जमाया हुआ तेल चर्बी आदि का हवन द्वारा सभी प्रकार के बल बुद्धि, आविष्कार शक्ति, ज्ञान दर्शन आदि प्राप्त हो सकते हैं। प्रत्यक्ष में भी तो हम देखते हे कि केवल माँस या शराब पीने वाले देश जैसे टुन्ड्रा, ग्रीनलेन्ड, एलास्का तथा ध्रुव निवासी लोग, आस्ट्रेलिया व अफ्रीका के आखेट जीवी जंगली मनुष्यों में वैज्ञानिक तथा आविष्कारक बुद्धि का अभाव है। इनकी अपेक्षा पाश्चात्य जगत के योरोप व अमेरिका निवासी लोग, माँसादि के साथ कितना मक्खन मलाई खाते हैं जिससे उनके शरीर व मस्तिष्क दोनों पुष्ट होते हैं।

जितने भी हवनीय द्रव्य हैं उनमें गोघृत के हवन द्वारा बने हुए सुगन्धित वायुमंडल का आय-तन सबसे आधिक है, यह प्रत्यक्ष देखा गया हैं। गोघृत के पश्चात् सुगंधित आयतन बनाने का नम्बर शक्कर का है। कपूर, गुग्गुल, पान, सुपारी, नारियल, खजूर, जटामाँसी, गोरेचन, केशर, कस्तूरी, सुगंध वाला, लौंग, इलायची, तेजबल, कपूरकचरी, मखाना, छुहारा, किशमिश, अंगूर सेवादि फल, जौ, तिल, धान्य, आदि को में भी हवन द्वारा वायुमंडल में अधिकाधिक सुगंधित आयतन बनाने का गुण है परन्तु गोघृत इन रूप में मुख्य है। गोघृत के योग-वाही तथा विशद् होने के कारण अन्य द्रव्य भी इसके संयोग से हवन द्वारा प्राण रूप होकर वायुमंडल में विशद् या वृहद् आयतन धारण कर लेते हैं।

इस विषय का एक क्रमबद्ध शास्त्र था कि गोघृत के साथ किन-किन द्रव्यों को कितनी-कितनी मात्राओं में किन-किन संकल्पों द्वारा हवन करने से किन-किन अभीष्ट फलों के वायुमंडल में कारण व बीजरूप प्राण बन जाते हैं, जो समय के फेर से व्यवहार भ्रष्ट हो जाने के कारण अधिकाँश नष्ट हो गया है। थोड़ा बहुत प्राप्य भी हैं तथा खोज द्वारा पुनः बहुत कुछ प्राप्त किया जा सकता है।

यहाँ तक तो सृष्टिक्रम, ब्रह्मा का यज्ञ से सम्बन्ध, त्रेतायुग के ऋषियों द्वारा उनका प्रचार व विस्तार, यज्ञ द्वारा अभीष्ट फलों की प्राप्ति का वैज्ञानिक व व्यवहारिक आधार व प्रमाण, गोघृत का महत्व आदि के विषय में वर्णन हुआ, अय हम यह दर्शाते हैं कि हवन किये हुये द्रव्यों से वायुमंडल में बना हुआ अभीष्ट फलों का कारण व बीज रूप प्राण द्वारा अंकुरित फल, अन्य देशों में न होकर विशेषता उसी देश में कैसे होता है जहाँ कि यज्ञ किया जाता है:-

नव्य विज्ञान में एक सिद्धांत प्रतिक्रियावाद का है। शक्ति का प्रयोग चाहे जिस द्रव्य या पदार्थ पर किया जाय, वह द्रव्य या पदार्थ भी उतने ही वेग के साथ शक्ति को उसके पूर्व स्थानों का लौटा देता है। अब तक यह प्रतिक्रियावाद सैकड़ों उदाहरणों द्वारा सिद्ध किया गया है। इसकी मान्यता के अनुसार यज्ञ द्वारा अभीष्ट फलों की प्राप्ति भी उसी व्यक्ति, समाज, राष्ट्र अथवा देश को होती है जिसके द्वारा यज्ञ का संकल्प, संयोजन,वर्तन तथा पूर्ण किया जाता है।

एक बात और यह है कि पृथ्वी का विषय गन्ध है। पृथ्वी सदा वायु से गन्धों का शोषण करके वायु का निर्गन्ध किया जाता है। पृथ्वी के विकार रूप पशु, मनुष्य, वृक्षादि स्थिर अथवा चंचल वायु की गन्ध सदा खीचते रहते हैं। सगंध वायु कुछ मीलों तक चलने पर स्वयं निर्गन्ध हो जाती है। गंध से भार होने के कारण यह सदा पृथ्वी के धरातल पर ही बहता है। ऊपर आकाश का सूक्ष्म वायु निर्गन्ध होता है। इस प्रकार यज्ञ में हवन द्वारा बने (अभीष्ट फलों के कारण व बीज रूप वाष्प धुंआ व गंध को यज्ञ प्रदेश वाली पृथ्वी शोषण कर लेती है पुनः अभीष्ट अन्न, फल, दुग्ध, सुख, प्रसाद आदि उत्पन्न कर उस प्रदेश का अर्पण करती है।

मान लिया कि किसी देश में लोक कल्याण के निमित्त एक बड़ा यज्ञ किया गया। यज्ञ का प्राणस्वरूप बहुत बड़ा धुंआ उठा वायुमंडल के एक विशाल आयतन को घेर लिया। इतने में जोरों कि आँधी आई और वह पवित्र धुंआ आँधी के झकोरों के साथ एक पड़ोसी शत्रु देश में पहुंच गया तो इसका फल भी बड़ा उत्तम होता है। वह पड़ौसी शत्रु देश धीरे-धीरे आपके देश का मित्र बन जायेगा। आपके देश के सहानुभूति रखने लगेगा। वह आपके देश के साथ भलाई करने लगेगा। उस शत्रु देश के निवासी भी आप ही के से विचार वाले हो जायेंगे तथा प्रति उपकार द्वारा इस पुण्य का फल आपको प्राप्त होगा। इस प्रकार शत्रु मित्र दोनों प्रकार के देशों का इससे कल्याण ही होगा।

हम श्रीमद्भागवत पुराणों के में नगर वर्णन में द्वारिका, मथुरा, अयोध्या, काशी आदि नगरों के विषय में ऐसा पढ़ते हैं कि नगरों पर सदा यज्ञ का धुंआ मंडराया करता था। गलियाँ अगर, कस्तूरी, चन्दन, आदि सुगंधित द्रव्यों की सुगंध से सुवासित रहती थी। शुद्ध, सुगन्धमय प्रसन्नता व प्रीतिदायक वातावरण बना रहता था जो समाधिवर्धक, मन को एकाग्र व भावमय बनाने में सहायक होता था, जन- समुदाय की बुद्धि,स्मृति, बल, प्रसन्नता आदि का कारण होता है। दैहिक, दैविक तथा भौतिक परमाणुओं का शमन होता था।

यज्ञ के महत्व के विषय में हमने अपने जीवन में भी इसे शुद्ध गोघृत द्वारा सम्पन्न करने से इसके सुन्दर फलों की प्रत्यक्षता अनेकों बार देखी है।

प्राचीन काल से भारत के वेदज्ञान, अध्यात्म धर्म, संस्कृति का यज्ञ ही प्रधान कारण रहा है। इसी भारतीय प्राचीन संस्कृति ने अनेक अवतारों, संत महात्माओं, विद्वानों, वैज्ञानिकों, ऋषि, मुनियों तथा धार्मिक राजाओं का जन्म दिया जो इतिहास प्रसिद्ध है तथा इस समय भी संसार में मान है—


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