यज्ञ-ज्ञान-विषयक विचारधारा

December 1955

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(श्री पं. दीननाथ शर्मा शास्त्री सारस्वत, विद्यावागीश, देहली)

वैदिक काल सृष्टि का आरम्भिक काल माना जाता है। सृष्टि के आदि में हमें भगवान का ज्ञान वेद समाधि समाधिगततकीत्त्व वाले ऋषियों द्वारा प्राप्त हुआ। वेद हमारी जाति का प्राण हैं, हमारे धर्म का शिर है। उसका प्रभाव क्या देश हैं, क्या विदेश सब स्थान छा रहा है। उसी वेद का प्रादुर्भाव यज्ञ के लिए ही हुआ है।

वेदों का विषय यज्ञ

प्रसिद्ध ज्योतिष ग्रन्थ ‘सिद्धान्त शिरोमणि’ में कहा है- ‘वेदास्तावद् यज्ञ कर्मप्रवृत्ताः’ (गणिताध्याय मध्यमाधिकारस्थ काल मानाध्याय, 9 श्लोक) यहाँ पर वेदों की प्रवृत्ति यज्ञकर्मार्थ बताई गई है। यही बात ‘लगघ ज्योतिष’ में भी आई है- वेदाहि यज्ञार्थ ममिप्रवृत्ता’ (7 खण्ड)। वेद का ब्राह्मण भाग भी यही बताता हैं--चत्वारो वै वैदा;, तैर्यज्ञस्तायते’ गोपथया0 1-4-24)। केवल यही नहीं, अन्यत्र भी यही बताया है-‘यज्ञो वैदेषु प्रतिष्ठित;, (गो0 1-1-38)। प्रसिद्ध तार्किक दर्शन न्याय के वात्स्यायन भाष्य में भी यही सूचना मिलती हैं-‘यज्ञ मन्त्रः ब्राह्मणस्य (वेदस्य) विषयः, (4।1 62 प्रसिद्ध स्मृति ‘मनु स्मृति’ भी यही कहती हैं-‘दुदोह यज्ञसिध्यर्थमृग्यजुः सामलक्षणम् (1।23) प्रसिद्ध भगवद्गीता भी यही मानती है ‘एवं बहुविधायज्ञा वितता ब्रह्मणो (वेदस्य) मुखे’ (4।37)।

प्रसिद्ध इतिहास ग्रन्थ महाभारत में भी यही सूचित किया हैं-“देर्यज्ञा समुत्पन्ना’ (वनपर्व 150।28)। प्रसिद्ध ग्रन्थ निरुक्त में भी लिखा है-यज्ञस्य चत्वारि शंका इति वेदा वा एते उक्काः। विधा बद्धः मन्त्र-ब्राह्मणकल्पैः। (13।7।1)। प्रसिद्ध व्याकरण ग्रन्थ पाताँजलि महाभाष्य में कहा हैं-‘न सर्वैलिंगैर्नच सर्वाभिविंभक्तिभिर्वेदं मन्त्रा निगदिताः। ते चावश्यमेव यज्ञगतेन्न पुरुषेण यथायथं विपरिनमयितव्याः’ (पस्पर्शाह्निक) इन सब प्रमाणों से सिद्ध हो रहा है कि वेद का विषय यज्ञ है।

स्वयं वेद का मन्त्र भाग भी यही बनाता हैं-

‘एदमगन्य देवयजनं......... ऋक्सामाभ्याँ ओम संतरन्त यजुर्भिः’ (यजुः वा0 सं0 4।1) ‘ब्रह्म (वेदेः) यज्ञेन कल्ताम्’ (यजुः वा0 सं0 8।29)। अन्य उसकी बड़ी साक्षी यही हैं कि वेद के अधिकार के प्राप्यार्थ यज्ञोपवीत धारण करना पड़ता है, और वह यज्ञोपवीत यज्ञ के वस्त्र होने से ही उस नाम को धारण करता है। इससे स्पष्ट हुआ कि- वेदों का आविर्भाव ही यज्ञ करने कराने के लिए हुआ है। तब वेद की भाँति यज्ञ की भी महत्ता स्वतः सिद्ध हुई।

यज्ञ किसे कहते हैं?

‘यज्ञ शब्द ‘यज्ञयाच्यतविचउप्रच्छरक्षो नड्’ (3।3।90) इस पाणिनिसूत्र से नंड् प्रत्यय करने पर बनता है, और यज धातु का अर्थ ‘देवपूजा, संगतिकरण, दान’ ऐसा पाणिनीय धातुपाठ में आया है। सो देवताओं की पूजा, हवि द्वारा देवताओं की अर्चना का नाम ही यज्ञ हैं। जैसे इस जगत में प्रत्येक राष्ट्र को सुव्यवस्थित करने वाली राजशक्ति विविध रूप में हुआ करती हैं, उससे प्रजा पर आई व आने वाली आपत्ति को दूर किया जाता है, वैसे ही सम्पूर्ण भूमण्डल को आवश्यक पृष्टि आदि द्वारा सुव्यवस्थित करने वाली परमात्मा की विविध शक्तियों का नाम ही देवता हुआ करता है। उससे प्रजा पर आने वाले आपत्ति का दूर किया जाता है वैसे ही सम्पूर्ण भूमण्डल का आवश्यक वृष्टि आदि द्वारा सुव्यवस्थित करने वाली परमात्मा की विविध शक्यों का नाम ही देवता हुआ करता है। जैसे राज शक्ति को अनिवार्य कर टैक देते ठीक ठीक न मिलने से राजशक्ति का ठीक ठीक प्रयत्न न होने से चोरी डाका आदि घटनाओं से प्रजा यदा तदा संत्रस्त रहती हैं, वैसे ही देवशक्ति के समुपबृंहक यज्ञ यज्ञादि न होने से ‘यज्ञे’नष्ट देवनाशः, ततः सर्वे प्रणश्यति’ (60।6) इस वायुपुराण के कथनानुसार जल वायु आदि भूतों पर देवशक्ति के ठीक नियन्त्रण न रहने से अतिवृष्टि अनावृष्टि जलप्लावन आदि प्रजा को संतप्त करने वाली भीषण ईतिया हुआ करती है।

निरुक्त में ‘यज्ञः कस्मात्? प्रख्यातं यजति कर्म इति नैरुक्ता, यजुरन्नो भवतीति वा, यजूंषि एन नयन्तीति वा’ (3।19।6) यह कहकर यजन देवपूजन हवनादि का नाम ‘यज्ञ’ बताया गया हैं। इसमें देवों का संतर्पण होता है, जिससे वे जलशक्ति, वायुशक्ति अग्निशक्ति आदि को नियन्त्रण में रखते हैं-जिससे इनके कारण प्रजा नाश नहीं होती। पर आजकल शासन के धर्म निरपेक्ष होने से उसमें वेदों तथा यज्ञो का वह महत्व नहीं रहा-जिससे हमें आये दिन उक्त दैवी विपत्तियों का सामना करना पड़ रहा हैं। पर यज्ञ याग आदि दैवी कर्म करने से आधिदैविक विपत्तियाँ न आने से जगत् सुख का श्वास ले सकता है। तब दैवी कर्मों में लगा हुआ पुरुष ‘स्वाध्याय’ नित्ययुक्तः स्याद् दैवेचैवेच कर्मणि युक्तो हि विभर्तीद चराचरम् (3।75) मनु जी के इन शब्दों से सारे संसार का पालन कर रहा होता है-यह कथन केवल अर्थवाद नहीं, किन्तु युक्तियुक्त भी सिद्ध है।

यज्ञ से सम्पूर्ण जगत का पालन कैसे ?

बात यह है कि देवताओं को हमने उनका हव्य देना है। हम हैं स्थूल, पर देवता है सूक्ष्म। हम उन्हें स्थूल हव्य देंगे, तो उन्हें कैसे प्राप्त होगा ? उन्हें तो सूक्ष्म हव्य चाहिए, तभी वे प्रसन्न होंगे। इसका उपाय सोचा गया था ‘यज्ञ’। इसका दृष्टान्त भी समझ लेना चाहिए। हमने अपने आत्मा को भोजन देना है। हम भी स्थूल हैं, हमसे दिया हुआ भोजन भी स्थूल है, पर आत्मा हमारा सूक्ष्म है। उसे यह स्थूल भोजन कैसे मिल सकता है ? उसे चाहिए सूक्ष्म भोजन। उसका उपाय यह सोचा गया था कि-हम उस स्थूल भोजन को मुख के द्वारा अपनी जठराग्नि में होम करें। ऐसा करने से वह जठराग्नि उस स्थूल भोजन को सूक्ष्म कर देती है। वही सूक्ष्म अन्न हमारे आत्मा को प्राप्त हो जाने से वह हमारे शरीर को स्वस्थ रखता है। यदि आत्मा को वह स्थूल अन्न न पहुँचाया जायगा, तो हमारा शरीर, मन, इन्द्रियाँ आदि सभी अस्वस्थ हो जावेंगे। फिर हम न अपना कोई लाभ कर सकेंगे, न दूसरों का उपकार। न कुछ बुद्धि द्वारा दूसरों का न अपना कुछ हित सोच सकेंगे।

यह हुआ मनुष्य के आत्मा के तर्पण का प्रकार। मनुष्य से ऊंचे हैं पितर। वै पितर भूलोक में न रहकर पितृलोक चन्द्रलोक में रहते हैं। उन्हें भी तृप्त करना हमारे कर्तव्यों में आता है। वे भी सूक्ष्म होते हैं। हम स्थूल उन्हें सूक्ष्म अन्न कैसे पहुँचावें ? ऋषि−मुनियों ने उसका उपाय भी सोच लिया था। वह यह था कि-वेद-शास्त्र विद्वान् ब्राह्मण द्वारा उन्हें कव्य दिया जाय। ब्राह्मण को शास्त्रों में अग्निरूप माना गया है। ‘ब्राह्मणोस्य मुखमासीद्’ (यजुः 31/11) ‘मुखादग्निरजायत’ (31/12) ब्राह्मण और मुख दोनों की उत्पत्ति परमात्मा के मुख से बताई गई है। अतः यहाँ दानों की सहोदरता सिद्ध है। इसलिए मीमाँस दर्शन के 1/4/28 सूत्र के शावर भाष्य में ‘आग्नेयो वै ब्राह्मणः’ पर प्रकाश डालते हुए ब्राह्मण तथा अग्नि को प्रश्नोत्तर रूप से एकजातीय बताया गया है।’ (प्र0) अनाग्नेयेषु (ब्राह्मणेषु) आग्नेयदिशद्वाः केन प्रकारेण ? गुणवादेन। (प्र0) को गुणवादः ? (उ0) अग्निसम्बन्धः। (प्र0) कथन् ? (उ0) एकजातीय त्वाद् (अग्निब्राह्मणयेः)। (प्र0) किमेकजातीयत्वं तयः) ? (उ0) ‘प्रजापतिरकामयत-प्रजाः सृज्जेयमितियोः स मुख तस्त्रि वृंत निरमिमीत। तमग्निदेवता अन्वसृज्यत ब्राह्मणो मनुष्याणाँ’ यहाँ पर अग्नि और ब्राह्मण की एक जातीयता स्पष्ट शब्दों में कही है।

अन्यत्र की ब्राह्मण का अग्नि सम्बन्ध आया है-‘ब्राह्मणो ह वा इममग्नि वैश्वानरं वभार’ (गोपथब्राह्मण 1। ।10)। अथर्ववेद संहिता में भी कहा है-‘अग्नि ब्राह्मणविवेश-- (19/5912)। कठोपनिषद् में भी यही कहा है-वैश्वानरः प्रविषति अतिथिब्राह्मणो गृहान’ (1/17) यहाँ स्वामी शंकराचार्य ने स्पष्टता की है- ‘वैश्वानरोअग्निरेव साक्षात् प्रविशति अतिथिसन् ब्राह्मणो गृहान’। भविष्य पुराण में भी कहा है-‘ब्राह्मणा ह्यग्नि-देवास्तु’ ब्राह्म पर्व 13/36)। तब ब्राह्मणस्थ वैश्वानर अग्नि उस कव्य को सूक्ष्म करके, सूक्ष्म महानि के साथ मिलकर पितरों को पहुँचाता। वे सूक्ष्म कव्य से तृप्त हो जाते हैं।

मनुष्य की जठराग्नि द्वारा सूक्ष्मीकृत अन्न से मनुष्य की आत्मा के तृप्त होने से मनुष्य की आत्मा का वैयक्तिक लाभ होता है। मनुष्य से उच्च योनि के पितरों के, पूर्व सामान्याग्नि से उच्च ब्रह्मणाग्नि द्वारा सूक्ष्मीकृत अन्न से तृप्त होने से उनके वंश वाले पुत्र पौत्रादि सबका लाभ हुआ करता है। अब मनुष्य और पितरों में उच्च हैं देवता। देवता भी सूक्ष्म हुआ करते हैं। उन्हें भी हमें सूक्ष्म हवि देनी हैं। उन्हें भी सूक्ष्म हवि कैसे भेजी जावे?। उसके लिए भी ऋषि मुनियों ने उपाय सोच लिया था। वह यह था कि साक्षात् अग्नि देवता के द्वारा उन्हें हव्य दिया जाय। यह भी वही पूर्व जैसा उपाय था। जब हम अग्नि में हव्य डालते हैं तब स्थूल अग्नि उस हवि को जलाकर सूक्ष्म कर देती है और शाँत होकर स्वयं भी सूक्ष्म हो जाती हैं। तब वह सूक्ष्म अग्नि सूक्ष्म महाग्नि के साथ मिलकर उस सूक्ष्म हवि को लेकर अपने मित्र सूक्ष्म वायु की सहायता से आकाशाभिमुख जाती हुई द्युलोक में पहुँचकर देवों को समर्पण करती है। वे देवता उस सूक्ष्म हवि से तृप्त होकर प्रजा के हित के लिए और धान्य आदि की उत्पत्ति के लिए यथोचित वृष्टि कर देते हैं। जैसा कि मनुस्मृति में कहा-हैं “अग्नो प्रास्ताहुतिःसभ्यग् आदित्य-मुपतिष्ठते आदित्यार्ज्जायतेपृष्टिवैष्टरेन्नंततःप्रजा’ 3/76) इसी का बाज वेद में भी मिलता हैं-‘हविस्यान्तमजर’ स्वविदि दिविस्पृशि आहुतं जुष्टमग्नौ’ (ऋ0सं0 10।881) यहाँ भी दुर्गाचार्य ने लिखा हैं--‘हवि पान्तं-देवानाँ च पुरोडशिदि निर्दग्धस्थूल भावमग्निना क्रियते। स्व:-आदित्यः, तं वेत्ति, यथाअसौ वेदितव्य:- इति स्वविद् अग्निः। दिपिर्स्पश-द्यामसौ स्पृशति हविरुपनयन् आदित्यम्’ (निरुक्त 7।25।1)। इससे स्पष्ट सिद्ध हुआ कि जब हम देवताओं को प्रसन्न कर लेंगे, तो वह सम्पूर्ण चराचर स्थावर जंगम पालित रहेगा, क्योंकि सभी का निर्वाह वृष्टि एवं अन्न पर है। उन देवताओं को प्रसन्न करने का उपाय हैं-यज्ञ तो यज्ञ से देवपूजा सिद्ध हुई। अतः यज्ञ का महत्व सिद्ध हुई। अतः यज्ञ का महत्व सिद्ध हुआ, जिसके लिए हमें भगवद् गीता कहती हैं- ‘देवान् भावयतानेन ते देवाः भावयन्तु वः। परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ’ (3/11)।

यज्ञ द्वारा वायुशुद्धि तथा वर्षा का विज्ञान

यज्ञ करने से देवशक्ति की बलवत्ता के कारण पृथिवी भी सुरक्षित रहेगी। अग्निशक्ति भी यथा योग्य रहेगी। वायुमण्डल भी शुद्ध रहेगा। वृष्टि हो जाने से सूक्ष्म वायु मंडल में अग्निहोत्र के घृत की सूक्ष्म स्निग्धता आ जाने से उसके दोष दूर हो जावेंगे। जब इस प्रकार देवशक्ति व्यवस्थित हो गई तो पृथ्वी स्थिति जल जो सूर्य से खींचा गया हुआ गगनमंडल स्वरूप समुद्र में अवस्थिति हैं। देवता लोग उसका यथायोग्य वितरण करेंगे-इससे वृष्टि भी यथा योग्य होगी। तब न अनावृष्टि होगी न अति वृष्टि। न सूबा पड़ेगी न बाढ़ें आवेंगी ‘पर शास्त्रोक्त यज्ञ विधि में त्रुटि न चाहिये। यज्ञ वेदमन्त्रों से होते हैं। उसमें कर्म, कर्ता साधन इन तीनों की विगुणता इष्ट मनोरथ की पूर्ति में प्रतिबंधक बन जाती है। इष्टसम्बन्धी कर्म यथावत् होवे। उसमें दक्षिणा आदि की त्रुटि भी न होवे। कर्ता पवित्र आचरण वाला हो, वेदमन्त्रों के स्वर वर्ण आदि का यथावत् ज्ञाता हो, शास्त्रनिषिद्ध अनधिकारियों में न हो। इष्टि का साधन भी त्रुटियुक्त न हो, सामग्री पूर्ण हो और पवित्र हो। इससे जहाँ शुद्ध वातावरण बनेगा, वहाँ जल की वृष्टि तथा मनोरथों की वृष्टि भी यथायोग्य होगी। यज्ञ द्वारा वृष्टि विज्ञान विषय में हम पहले प्रकाश डाल ही चुके है। उससे वायु शुद्धि स्पष्ट ही हैं। इधर हवि के धूम के गन्ध से भी यद्यपि वायु शुद्धि सम्भव है, तदापि मन्त्र के द्वारा वैसे होने से महाभाष्य के कथनानुसार उसमें अभ्युदय हुआ करता है।

मन्त्र शक्ति का सूक्ष्म विज्ञान

यज्ञ में मन्त्र पढ़ना अनिवार्य अंग है यह पूर्व कहा ही जा चुका है अब मन्त्र में क्या शक्ति है— इस पर भी विचार करना आवश्यक होता है। योग दर्शन में कहा है-‘जन्मौषधि मन्त्र तपः समाधिजाः सिद्धयः’ (4।1) यहाँ पर मन्त्र, तप तथा समाधि द्वारा सिद्धि कही गई है। आजकल के व्यक्ति मन्त्र सिद्धि पर विश्वास नहीं करते। उसे वे प्रकृति नियम से विरुद्ध मानते हैं परन्तु मानुष ज्ञान अत्यन्त सीमित होता है। उसके पास प्रकृति नियमों की पूर्ण सूची नहीं है। लोहा पानी में डूबता हैं- यह प्राकृतिक नियम हैं, पर अन्य प्राकृतिक नियमों के आश्रय से लोहे का भारी जहाज पानी पर तैरता है। क्या साधारण लोग उन नियमों को जानते हैं, जिनके अनुसार वायुयान उड़ता है? बिना ही तार के देश विदेशों के साथ संवाद होता है। इस जगत् में निरन्तर शक्ति का संघर्ष हो रहा है। कभी एक शक्ति कभी दूसरी शक्ति दबी रहती हैं। जिसे जितनी शक्तियों का तथा उसके प्रचालन का जितना ज्ञान है, उसमें उतनी ही सिद्धि है। जब तक हम निश्चयपूर्वक न कह सके कि इस शक्ति के आगे किसी शक्ति का अस्तित्व नहीं है तब तक यह कहना कि अमुक सिद्धि असम्भव है यह ठीक नहीं।

दर्शन शास्त्र के अनुसार मनुष्य का प्रकृति संयुक्त आत्मा अनन्त शक्तियों का भंडार है। ज्यों ज्यों चित्त को अन्तर्मुख किया जाय, त्यों त्यों शक्तियों का उद्घाटन होता है। योगदर्शन के शब्दों में वह पुरुष पूर्ण योगी, सर्वज्ञ एवं सर्व शक्तिमान हो जाता है।

वैज्ञानिक के अनुसंधान से चित्त के चार स्तर जाने गये है। सबसे ऊपर तथा सबसे नीचे का स्तर वह हैं जिसका धर्म चेतना या विज्ञान है। यही संवेदनाओं का आलय है। इससे नीचे गम्भीर स्तर वह है जिसे ‘उपचेतन’ से कह सकते हैं। यह स्मृतियों का आलय है। तीसरा स्तर वह है जिसे ‘उपाऽचेतन’ से कहा जाता है। यह हमारे संस्कार, स्मृति, इच्छा और विचारों का आलय है। सबसे नीचे का स्तर ‘अचेतन’ शब्द से कहा जाता है। वह मनुष्य की सब शक्तियों का आश्रय है, और पूर्व जन्म के संस्कारों का आश्रय होता है। इस स्तर के अध्ययन से मनुष्य शक्तियों का वास्तविक ज्ञान होता है।

आज के मनोवेत्ता मानते हैं कि दो प्रकार के मनुष्य होते हैं पहले वे हैं जिनकी वृति बहिर्मुखी रहती हैं वे चित्त को व्यावहारिक जगत की ग्रन्थियों के उद्घाटन का साधन मानते हैं। दूसरे व्यक्ति व्यावहारिक जगत् से दूर रहते हैं। इनकी वृत्ति अन्तर्मुखी होती हैं। वैसे लोग प्रयत्न से चित्त के ‘अचेतन’ स्तर तक पहुँच सकते हैं। वे उसमें घुसकर जिस किसी भी विषय में अपनी आत्मा को जोड़ती हैं, चित्त की एकाग्रता से उसमें उनका अद्भुत भी ऐन्द्रियक अनुभवों को प्राप्त होता है अर्थात् अनीन्द्रिय ज्ञान को धारण करता है। इस प्रकार वह क्रमशः सिद्ध एवं महासिद्ध हो सकता है।

अब कर्म की सिद्धि के समत्व पर विचार करना चाहिए। जब कि ज्ञान होता है, तब कर्म भी उसके साथ होता है। जिन्हें किसी शक्ति विशेष का ज्ञान हैं,वे उसका उपयोग भी कर सकते हैं। शक्ति के उपयोग का नाम ही कर्म है। जिसे जितना अधिक ज्ञान है, वह उतने ही अल्प साधनों से अपना काम पूरा कर सकता है। उस काम में वह उद्विग्नता नहीं होती, जो एक अल्पज्ञ के कार्य में होती है। इस प्रकार जो सर्वज्ञ है वह सर्व कर्ता भी हो सकता है। उसे ही सिद्ध कहा जाता है।

क्रिश्चियन वैज्ञानिक रोगी की शैय्या के पास कुछ पाठ किया करते हैं। उससे वे बिना ही औषधि के प्रयोग के उसको स्वस्थ कर देते हैं। यह भी एक मान्त्रिक सिद्धि हुआ करती है। प्रत्येक मन्त्र की कई नियत ध्वनियों का समूह होता है। मन्त्र में अर्थ की आवश्यकता नहीं हुआ करती है।नहीं तो मन्त्र की शक्ति नष्ट हो जाती है, इसलिए उसमें शब्द को शुद्ध बोलने की आवश्यकता पड़ा करती है। इसीलिए ही महाभाष्य के पस्पशाह्निक में कहा हैं- ‘याज्ञे’ कर्मणि (प्रयोग) नियमः’ अर्थात् यज्ञ कर्म में अर्थ ज्ञान का नियम नहीं होता, किन्तु उस कर्म के प्रयोग का नियम मात्र होता है। विवाह संस्कार के मन्त्रों से कन्या संस्कृत होती हैं। परन्तु उसके अनुवाद से वह शक्ति कैसे हो सकती है।’

वेद, मन्त्रों के संग्रह है। मन्त्र निरुक्त में नियत आनुपूर्वी वाले तथा नियत पद प्रयोग परिपाटी कह गये हैं। इसीलिए काव्य प्रकाश में वेद को शब्द प्रधान माना गया हैं । कौत्स मुनि वेदमन्त्रों को अनर्थक मानते हैं। अनर्थक का यह भाव है कि मन्त्र का उच्चारण -विशेष में ही सामर्थ्य है। इस प्रकार प्रत्येक मन्त्र विशेष विषय में भी जानना चाहिये। बीज मन्त्र अर्थ हीन ही तो होते हैं । ऐं, ह्रीं, क्लीं आदि बीज मन्त्र कितना प्रभाव रखते हैं-यह जानना चाहते हों तो चिन्तामणिमन्त्र के उपासक श्री हर्ष का नैषधचरित तथा उसका 13वाँ सर्ग देखना चाहिये। अमेरिका के वैज्ञानिक भी बीजमन्त्रों की शक्ति मानते हैं-यह बात श्रीसातवलेकर प्रकाशित सूर्य नमस्कार पुस्तक में लिखी है ।

जब किसी वस्तु में किसी कारण से कम्पन होता है ; तब उस कम्पन के कारण हमारी कर्णेन्द्रिय में विशेष प्रभाव पड़ता है जिसे ध्वनि कहा जाता है। प्रत्येक वस्तु के लिए एक कम्पन की संख्या नियत होती है। यदि वह वस्तु कम्पन को प्राप्त होती है तो स्वर निकलता है। यदि उसके पास वह स्वर प्रतिध्वनित हो तो वह वस्तु भी कम्पित होगी। प्रयोगशालाओं में इनके अनेक प्रयोग होते हैं। इसलिए ध्वनिमापक यन्त्र बनाया जाता है।

एक शीशे का गिलास लिया जाता है; उसका नियत स्वर उसके पास बजाया जाया है उसके परिणाम में गति बद्धता से कम्पन के वेग से वह गिलास दूर जाता है। पर्याप्त गवेषणा से उपयुक्त ध्वनियों के प्रयोग से अर्थात् मन्त्र विशेष के द्वारा बड़े किले का पर्वत गिराये जा सकते। इंग्लैंड में स्टोनहैव्ज में टुइड धर्मों का जो अवशेष है; उसमें पत्थर एक-दूसरे पर इस प्रकार से तुले हुए हैं कि-उनके पास मध्यम स्वर के बजाने से वे काम्पते हैं। कुछ समय तक वैसा करने पर उनके गिरने की शंका भी हो सकती है। इस कारण वहाँ गाना निशिद्ध हैं। इस प्रकार वैज्ञानिक तथ्यों के आधार से कहा जा सकता है कि-ध्वनि समूह के द्वारा बहुत से विचित्र कार्य किये जा सकते हैं। पशुओं और मनुष्यों पर ध्वनिका जो प्रभाव पड़ता है उसे सब जानते हैं। ऋतु विशेष में और समय विशेष में जो ध्वनि समूह कार्य करते हैं वे ही हमारे राग-रागनियों के आधार हैं। रोगियों के ऊपर भी ध्वनियों का प्रभाव अनुभव-सिद्ध है। रोगियों के ऊपर भी ध्वनियों का प्रभाव अनुभव-सिद्ध है। उपयुक्त ध्वनि-राशि शरीर मस्तिष्क और नसों के क्षोभ को शांत करके उसमें पुनः साम्यावस्था ला सकता है जिसका पर्याय शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य हैं। इस प्रकार उपयोगी ध्वनियों की आवृत्ति में अर्थात् उपयोगी मन्त्रों के जपने से मस्तिष्क के उपयोगी केन्द्र प्रकम्पित किये जा सकते हैं। उनके द्वारा चित्त के चौथे स्तर अचेतन नाम के अंश जगाये जा सकते हैं जिनसे योगी सिद्धियों को प्राप्त कर सकता है।

जबकि आजकल निरर्थक भी मुसलमान आदियो के मन्त्र भी साँप-बिच्छू आदि के दमन में सफल होते हुए दीखते हैं सब जगद्गुरु भारतवर्ष के जगद्गुरु ब्राह्मणों से समाधि दृष्ट मन्त्र-तन्त्र शास्त्रों के मन्त्र भला कैसे असत्य हो सकते हैं? इसलिए महाभाष्य के स्पर्शान्हिक में ज्ञान-कर्मणोर्धर्माधिकरण में कहा है-यथा वेदशब्दा नियमपूर्वकमधीताः फलवन्तो भवन्ति इस से वेदमन्त्रों के नियमित जप से फल प्रदान शक्ति सिद्ध होती है। इसीलिए उनके प्रकम्पन का प्रभाव कारीरी यज्ञ में बादलों पर भी पड़ता है। जिससे वृष्टि आदि भी पड़ जाती है। पुत्रेष्टियज्ञ में स्त्री के गर्भाशय पर भी पड़ता है जिससे सन्तान भी हो जाती हैं। वेद के मन्त्र स्वयम्भू का वचन होने से साक्षात फलशाली होते हे।

कई मन्त्र वेद से भिन्न भी होते हैं। उनमें उन मन्त्रों के आविष्कर्त्ताओं की तपस्या का बल फलदायक होता है। पौराणिक मन्त्रों का आविष्कार श्री वेदव्यास मुनि द्वारा हुआ वहाँ उनकी अपनी तीव्र तपस्या प्रभाव जनक होती है। इस प्रकार तन्त्र व आगम ग्रन्थों के मन्त्र भी विविध देवों की कृपा से प्रसूत होने से फलदायक हुआ करते हैं। इस प्रकार आज के ईसा मुहम्मद गुरुनानक आदि के आविष्कृत मन्त्र भी जो उनके अनुयायियों में सफलता प्राप्ति करते हुए देखें जाते हैं वहाँ पर उनकी तपस्या तथा उनके अनुयायिओं का उन पर पूर्ण विश्वास फलदायक बनता है। वह उनकी तपस्या यावत्कालावस्थायिनी रहेगी उतने तक वे मन्त्र भी सफल होते रहेंगे उसके बाद वे निष्फल होते रहेंगे। पद वेद मन्त्र सदा ही सफल होते हैं। पर उसका पात्र शास्त्रोक्त अधिकारी तथा निष्ठावान होना चाहिये।

इस प्रकार याज्ञिक मन्त्रों द्वारा वशीकृत देवशक्ति हम पर अनुग्रह करती है उच्चयोनि तथा लोकोत्तर बलशालिनी होने से हमें अपने मनोरथ की पूर्ति में सुगम सुझाव देती हैं। उन मन्त्रों का प्रभाव हमारे शरीर पर होने से वे हमारे रोग आदि के परमाणुओं को भी बहिष्कृत करने में समर्थ हो जाते हैं। मानसिक व शारीरिक अस्वास्थ्य दूर हुआ तो लोक कल्याण स्वयं उपस्थित हो जाता है न मर्डिता विद्यते अनयराभ्योदेवेषुमे अधिकामा अयसत (ऋ. सं 10।64।2) यहाँ पर देवताओं को विविध कामना पूर्ण करने वाला कहा है। देव पूजन ही यज्ञ होता है-यह हम पूर्व बता ही चुके है। तब यज्ञ द्वारा विविध कामनाओं की पूर्ति भी सिद्ध हो गई। जब मन्त्र से सिद्धि भी प्राप्त हो जाती है तब यज्ञ द्वारा विविध शक्तियों की प्राप्ति भी हो गई।

यज्ञशाला में देवपीठों की स्थापना क्यों?

देवपूजा दो प्रकार की होती है-एक हवन तथा दूसरी मूर्ति पूजा। संस्कृत अग्नि मूर्ति द्वारा इन्द्राय स्वाहा वरुणाय स्वाहा इत्यादि रूप से उस-उस देवता को हवि देना यह हवन द्वारा देवपूजा होती है।दोनोँ ही यज्ञ कहे जाते हैं क्योंकि-देवपूजार्थक यज धातु का अर्थ दोनों स्थान देखा गया है। इसलिए शांखायनब्राह्मण में कहा गया है-सएवास्यै यज्ञं ददाति तद् यद् राजा देवता यजति।(412)अर्थात् देवताओं का पूजन ही यज्ञ होता है। यही बात श्रीमद्भागवत् पुराण (11।27।8-9)में भी सूचित की गई है। वही 11 27 15 में मूर्तिपूजा तथा अग्निहोत्र दोनों को ही यज्ञ कहा गया है । अग्नि उस हवि का स्थूल भाग भस्म करके उसका सूक्ष्म भाग देवताओं को देती है पर मंत्र संस्कृत मूर्ति तो मधुमक्षिका से पिए हुए पुरुष की तरह उसके सूक्ष्म अंश को देवताओं को समर्पित करती है। जब ऐसा है तब पाठशाला में देवपीठों की स्थापना भी यज्ञ का ही एक अंग है।

यज्ञों के भेद तथा यज्ञों की महिमा-

यज्ञ हिंदू धर्म का अनिवार्य अंग है। यज्ञो के कई भेदोपभेद होते हैं। कई तो सहस्रवार्षिक तथा शतवार्षिक यज्ञों का वर्णन भी आता है जिनका महा भाव स्पर्शान्हिक में संकेत आया है और मीमांसा दर्शन में जिनकी व्यवस्था आई है। जप भी यज्ञ माना जाता है। राजसूय वाजपेयम् अग्निष्टोमस्तदध्वरः। अर्काश्वमेधा उच्छिष्टे जीव बर्हिमिदिन्तमः11 9 7 अग्न्याधेयमथो दीक्षा कामगः छनदसा सह ।उत्सना यज्ञाः सत्राणि उच्छिष्टेअधि समातिहा। अग्निहोत्र च श्रद्धा च वष्टकारो व्रतं तप। दक्षिणा इष्ट पूर्त च उच्छिटोधिसमाहिताः एकरात्रो द्विरात्रः सद्यःक्री, प्रक्रीक्थ्यः। ओतं लिहितमुच्छिष्टो यज्ञस्वात्याण्नि विद्यग्रा चतृरात्रः पच्चरात्रः षडरात्रश्रोभयः सह। षोडषी सप्तरावष्च उच्छाष्टाज्जज्ञि सर्वे ये यज्ञा अमृते हिताः प्रतीहारो निधन विश्वजिच्च अभिजिच्च यः साहृातिरात्रौ उच्छिष्टे द्वादषाहोषि तन्मणि अथर्ववेद के इन मन्त्रों में तथा द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तवापरे स्वाथ्यःयज्ञानयज्ञाश्र यतयः संषितव्रताः यज्ञानाँ जपयज्ञोस्मि भगवद्गीता के इन पद्यों में विविध यज्ञों का वर्णन आया हैं। वेद के ब्राह्मण भाग में यज्ञों की स्पष्टता की गई है।

नायं लोकेअस्तययज्ञस्य कुतोन्यः कुरुसतम। भगवद्गीता के इस पद्य में यज्ञहीन पुरुष की इस लोक तथा परलोक से भ्रष्टता कही गई है। एथ वोअत्विवष्ट कामधुक इस पद्य यज्ञ को प्रजा के मनोरथों की पूर्ति करने वाला कहा है। यज्ञार्थात कर्मणोंअन्यत्र लोकोअयं कर्मबन्धन इस पद्य तथा यज्ञायाचरतः कर्म सम्भ्राग प्रविलीयते इस पद्य में याज्ञिक कर्म को बन्धन से दूर रखने वाला माना हैं कर्म की अकर्मता होने पर ही मुक्ति मिलती है-यह नहीं भूलना चाहिये। यह श्रेय यज्ञ को प्राप्त है-यह यहाँ सूचित किया गया हैं। इष्टान भोगान कि वा देवा दास्यन्ते यज्ञीविताः इससे यज्ञ करने पर देवताओं द्वारा इष्ट भोगों की वृष्टि करना बताया है। तैदेत्तान अप्रदायैभ्यो यो भुडके स्तेन एव सः। यहाँ पर विना यज्ञ किये अनादि पदार्थों का उपभोग करना चोरी मानी गई है। तस्मात सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठिम्।यहाँ पर यज्ञ में ब्रह्म की स्थिति मानी गई है। अहंक्रतुरहंयज्ञः स्वधाहभमोषधम।मन्त्रोहमहमेवा-ज्यमहमग्निरहं कृडम्। यहाँ पर यज्ञ तथा यज्ञ को सामग्री-साधनादि को भगवान का रूप कहा है। ‘यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यं कार्य मेवतत्’ (18।5) यहाँ पर यज्ञ कर्म का त्याग निषिद्ध किया गया है। यज्ञोदानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणामः यहाँ पर यज्ञ को पवित्र करने वाला बताया गया है। ‘यज्ञ शिष्टामृतुयजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्’ (4।31) यहाँ पर यज्ञ के शेष अमृत कहा गया है - और यज्ञ शेष का उपयोग करने वाले को सद्गति की प्राप्ति ही गई है। यज्ञों की अखण्ड ज्योति से ही वेदों की रक्षा होगी-हमारे हिंदू धर्म की रक्षा होगी अतः इसका यथायोग्य उपभोग रखना ही चाहिये।


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