हमारा यज्ञीय देश

December 1955

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(ले. श्री. नरदेवशास्त्री, वेदतीर्थ एम. एल. ए., ज्वालापुर)

किसी समय हमारे देश में इतने अधिक यज्ञ होते रहे कि हमारा देश ही “यज्ञीय देश” कहलाया गया। समय का फेर हैं, आज वही देश यज्ञ शून्य सा हो रहा है, इसी प्रकार संसार में उलट फेर होते रहते हैं-

तपः परं कृतयुगे। त्रेतायाँ ज्ञानमुच्यते।। द्वापरे यज्ञमित्याहुः। दानमेकं कलौयुगे।।

कृतयुग अर्थात् सतयुग तपः प्रधान रहता है। त्रेता में ज्ञान प्राधान्य होता है। द्वापर में यज्ञों की प्रधानता रहती हैं अर्थात् द्वापरं असली कर्म प्रधानयुग है। कलियुग में केवल दान की बात शेष रहती है।

इस प्रकार युग ह्रास की कहानी सर्वत्र रहती है।

हमारे पूर्वजों के अतिपूर्वज,

यज्ञेन या मयजन्त देवाः,

तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।।

ते हि नाकं महिमानं सचन्तः।

यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः।।

(यजुः)

यज्ञों से यज्ञ (परमात्म-पुरुष) को प्राप्त करते थे, यही उनका मुख्य धर्म था और चले जाते थे सीधे स्वर्लोक को जहाँ पहिले से साध्यदेव रहते हैं।

यजुः 18 अध्याय में यज्ञ की महिमा विस्तृत रूप में वर्णित है। ब्राह्मण ग्रन्थों में इनका व्याख्यान है उपनिषदें पराविद्या की बात को कहती हैं पर यज्ञों का निषेध नहीं करतीं।

यज्ञ क्या हैं?- जिनसे सभी प्रकार की इच्छाओं की पूर्ति हो सकती हो।

यो यदिच्छति तस्य तत्

गीता कहती है कि-

अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं, अन्न होता है, पर्जन्य से, पर्जन्य होता है यज्ञों से यज्ञ होता है कर्मकलाप से कर्मों का वर्णन हैं वेदों में, वेद बने हैं अक्षर ब्रह्म से प्रजापति ने यज्ञ चलाये और प्रजा से कहा इनको करते जाओ, तुम्हारे मनोरथ सिद्ध होंगे। तेतीस देवता अनेक प्रकार से हमको देते रहते हैं, उनको अन्यों तक न पहुँचाकर हम पापी बन जाते हैं इत्यादि। तभी से-

अग्नये स्वाहा। सोमाय स्वाहा। प्रजापतये स्वाह। सूर्याय स्वाहा। इत्यादि चल पड़ा है।

यज्ञ कई प्रकार के है। किन्तु साधारण जनोपयोगी हैं द्रव्यमययज्ञ श्रेयान् द्रव्यमयाद् यज्ञः ज्ञानयज्ञः परन्तप। द्रव्ययज्ञ के ऊपर है ज्ञानयज्ञ

ऐसे ही ऊपर के यज्ञ हैं। पर हम तो आज बात लिख रहे हैं”द्रव्यमय यज्ञ” की जिनके विधि विधान वैदिक काल से चले आते थे किन्तु विदेशी विधर्मी पद्धति के शासन काल में लुप्त हो गये। जब मूल वेद ही नहीं रहे तब उसके आश्रय से चलने वाले यज्ञ के विधि विधान कैसे रहते अथवा चलते। जब यज्ञियकाल था तभी हमारे देश की गो संपत्ति देखने योग्य थी। कोई घर यज्ञ शून्य नहीं था, कोई घर गो शून्य नहीं था। ऐसे ऐसे बड़े यज्ञ होते थे कि जो सौ सौ वर्ष में, सहस्र वर्षों में पूर्ण होते थे- आज साधारण बलिवैश्वदेव भी नहीं हो पाता।

इन यज्ञो द्वारा बड़ा लोक कल्याण होता था क्योंकि इन यज्ञों में परस्पर हित की भावना ओतप्रोत रहती थी-संसार की ऐसी कौन सी वस्तु थी जो यज्ञ द्वारा प्राप्त नहीं हो सकती थी।

आजकल पाश्चात्य देशों के विज्ञानी वर्षा कराने की चेष्टा कर रहे है-किन्तु सफल न हो सके! हमारे पुरातन पूर्वज “कारीरी नामक” यज्ञ से जब चाहे, जितनी चाहे वृष्टि करा लेते थे। घर में पुत्र नहीं तो “पुत्रेष्टि यज्ञ करा कर घर भर लेते थे, घर में अन्न नहीं, अन्न भर लेते थे, सोना चाँदी सब प्राप्त कर लेते थे। पर आज हम कैसे कहें कि ऐसा होता था क्योंकि वह यज्ञ परम्परा ही टूट गयी अथवा छूट गयी। इस हीन दशा में भी हमारे ग्रन्थों में यज्ञ-यागों की रूप-रेखाएं मिलती है। निःस्वार्थ होकर विद्वान् ब्राह्मण यत्न करें तो वे विधि-विधान जग सकते हैं।

मैं ऋग्वेदी ब्राह्मण हूँ। ऐतरेय मेरा ब्राह्मण है। जब मैंने उसको पढ़ा तो मैं दंग रह गया- कैसे मण्डप बनते थे, सोलह ऋत्विजों के क्या क्या काम होते थे, अग्नि प्रणयन कैसे होता था, इत्यादि सविस्तार वर्णन दें-पर उन विधि-विधानों को करे कौन यही प्रश्न है।

अब भी यदि पचास-सौ विद्वान् इन यज्ञपरक “ब्राह्मण ग्रन्थों” की खोज करके अनुसंधान करें तो बहुत कुछ मिल सकता है। साराँश यज्ञों से सभी प्रकार के “एषणाओं” की पूर्ति हो सकती है। केवल इहलोक की एषणाओं की नहीं अपितु पारलौकिक एषणाओं की भी ब्रह्मा, होता, अध्वर्यु अग्दाता और इनके तीन-तीन सहायकों का कर्तव्य ब्राह्मण ग्रन्थों में भली भाँति प्रतिपादित है-सूत्र रूप में अथवा मूल रूप में वेद भी बतलाता है,

जैसे-

ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्याँ यज्ञस्य मात्राँ विमिमीत उत्वः।।

इत्यादि मन्त्रों में गृह शुद्धिकरण के निमित्त यज्ञ-याग। महारोग दूरीकरण निमित्त यज्ञ याग। वृष्टि निमित्त यज्ञ याग। पुत्रेष्टियज्ञ। स्वर्ग प्राप्त्यर्थ यज्ञ। लोकलोकान्तरप्राप्त्यर्थ यज्ञ इस प्रकार छोटे से छोटे और बड़े से बड़े यज्ञ रहते थे। ईश्वर जाने कब इन यागों का उद्धार होगा और कैसे होगा। इन यज्ञों द्वारा वैज्ञानिक चमत्कार भी देखने को मिलते थे। ईश्वर करे हमारा यज्ञीय देश पुनः यज्ञ-यागों से समृद्ध हो-तथास्तु, एवमस्तु,


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