यज्ञ पिता के लिए अब यह किया जाना चाहिए

December 1955

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‘यज्ञ’ भारतीय विज्ञानवाद का प्रधान आधार है उसमें अपार आत्मोन्नति, स्वर्ग मुक्ति आदि परमार्थिक लक्षों की प्राप्ति, अनेक ऋद्धि सिद्धियों का करतल गत होना, बल-वृद्धि, रोग-निवारण, श्री समृद्धि और सम्पत्ति, सुसंतति, अभीष्ट वर्षा, जीवनीशक्ति, पूर्ण अन्न तथा वनस्पतियों की उत्पत्ति, आत्म-शुद्धि, कुविचारों और दुर्गुणों की निवृत्ति, शाप-वरदान की शक्ति, दीर्घ जीवन मन्त्र चलित अभिचारात्मक दिव्य अस्त्र-शस्त्र, आत्मा-बल की प्रचंडता, व्यापक जन-मन में अभीष्ट परिवर्तन, अदृश्य जगत पर आधिपत्य आदि नाना प्रकार की सुविधाएं और शक्तियाँ प्राचीन काल में हमारे पूर्वजों ने यज्ञ विज्ञान के माध्यम से प्राप्त की थी। आत्म-कल्याण के अनन्य लाभों से लेकर भौतिक सुविधाओं की अभिवृद्धि तक में यज्ञ एक सच्चे मित्र की तरह सहायक होता था।

आज यह यज्ञ विद्या लुप्त प्रायः हो रही है। जहाँ तहाँ उसके ध्वंसावशेष मात्र परिलक्षित होते हैं, इनसे प्राचीन काल की स्मृति तो संजीव हो जाती है पर पूर्वजों जैसे लाभ प्राप्त नहीं होते। कारण एक ही है कि उस महाविज्ञान का वह विधान अव्यवस्थित हो गया है, जिसे सुव्यवस्थित रूप से जान कर किसी समय हमारे पूर्वज ‘बहुत कुछ’ ही नहीं ‘सब कुछ’ के अधिपति थे। संसार के विभिन्न प्रकार की शोधों के लिए बहुत कुछ प्रयत्न हो रहा है, हमें भी पूर्वजों के इस महान रत्न भण्डार की शोध के लिए कुछ करना ही चाहिए।

गत 30 वर्षों से गायत्री विद्या के अध्ययन, अन्वेषण, साधन, प्रयोग और परीक्षण के लिए हम प्राचीन हजारों ग्रन्थों का अनुशीलन विचलित कर देने वाली कष्टसाध्य साधनाएं, गायत्री तत्वज्ञों की खोज में यात्राएँ आदि जो कुछ बन पड़ा है सो एकाग्र निष्ठा के साथ करते रहे। ‘कुछ’ सफलता भी मिली है। अब गायत्री माता की तरह यज्ञ पिता की भी कुछ उपासना आवश्यक प्रतीत होती है सो उस कार्य को विशद् गायत्री महायज्ञ के साथ आरम्भ किया गया है। चैत्र में होने वाली पूर्णाहुति उस शोध कार्य का श्रीगणेश शिलान्यास एवं उद्घाटन मात्र है। यहाँ से उस कार्य की पूर्ण तत्परता पूर्वक शोध आरम्भ करने का विचार है ताकि ऋषियों के इस रत्न भण्डार का कुछ पता चल सके।

(1) अनेक यज्ञों के विधानों की पद्धतियों को व्यवस्थित करना (2) प्रयोग करके यज्ञों के लाभों को प्रत्यक्ष करने की स्थिति तक पहुँचाना (3) यज्ञों के सभी अभीष्ट उपकरण जुटाना (4) यज्ञ सामग्रियों की कृषि कराके उपयुक्त गुण वाली वनस्पतियाँ उत्पन्न करना। (5) यज्ञ संबंधी व्यापक साहित्य का एक विशद् पुस्तकालय स्थापित करना, जिससे इस विषय की ‘रिसर्च’ में सहायता मिले, (6) यज्ञ विद्याओं के ज्ञाताओं का सम्मेलन बुलाते रहना तथा उनके परस्पर विचार विनिमय की व्यवस्था बनाना (7) यज्ञ चिकित्सालय खोलकर रोग निवारण के सर्वोत्तम उपाय खोजना। (8) ऐसे अन्वेषकों को तैयार करना जो यज्ञ विद्या की शोध के लिए अपना जीवन खपाने को तैयार हों। (9) केन्द्रीय प्रयोगशाला में नानाप्रकार के यज्ञों का परीक्षण करना और उसके परिणाम दूसरों को बताना। (10) यज्ञ विद्या का एक सुव्यवस्थित विद्यालय स्थापित करना।

दूसरा प्रचारात्मक कार्यक्रम-जनता को यज्ञ विज्ञान की महत्ता को बताने के लिए भी चलाना आवश्यक है, (1) आचार्य बिनोवा की भूदान यात्रा की तरह यज्ञ प्रचार के लिये भी प्रचार टोलियों की यात्रायें देश भर में भ्रमण करें, (2) यज्ञ परिचय का सस्ता साहित्य प्रचारित किया जाय, (3) यज्ञ सभाएं संगठित हों जा अपने-अपने क्षेत्रों में यज्ञों का आयोजन करती रहे, (4) यज्ञ सम्मेलन करके साँस्कृतिक शिक्षा के कार्यक्रम रखे जाएं, (5) यज्ञ की त्याग भावना को जन साधारण के हृदयों में अंकित कराके उनका मानसिक स्तर ऊँचा उठाया जाए।

प्रयोगात्मक और प्रचारात्मक इन दोनों ही कार्यक्रमों को चलाने और आगे बढ़ाने की आज भारी आवश्यकता है। सो इन्हें आरम्भ कर रहे है। जिनके मन में हमारी ही भाँति अन्तः प्रेरणा उठे उन्हें इन कार्यों को आगे बढ़ाने में सहयोग करने के लिए हम सादर आमन्त्रित करते हैं।


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