यज्ञ द्वारा लोक कल्याण

December 1955

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(ले0-श्री डा0 सूर्यदेव शर्मा, शास्त्री, साहित्यालंकार, अजमेर)

“यज्” धातु से यज्ञ शब्द बनता है। “यज् देव पूजा संगतिकरण दानेषु” में यज्ञ की समीचीन व्याख्या आ जाती है। यज्ञ (1) देवपूजा को कहते हैं (2) संगतिकरण को कहते हैं (3) दान को कहते हैं। यदि इन तीनों अर्थों को सम्यक् रूपेण समझ लिया जाय तो यह स्वतः सिद्ध हो जायेगा कि यज्ञ द्वारा लोक कल्याण किस प्रकार संभव है। किस प्रकार यज्ञ मानवहित-सम्पादन का प्रमुख साधन है।

लोक कल्याण में प्रमुखतया कौन सी उन्नति समभिप्रेत है? यह प्रथम जान लेना आवश्यक है।

(1) मुख्यतः संसार के मानवगण तथा प्राणि मात्र का स्वास्थ्य सम्पादन लोक कल्याण का प्रथम अंग हैं अर्थात् मानवों के शारीरिक विकास तथा उन्नति का साधन यज्ञ है वा नहीं? यह हमें देखना है। इसके लिये हमें शास्त्रों के प्रमाण की आवश्यकता नहीं। हम सब जानते हैं कि होम करने में जो शुद्ध घृत और अनेक औषधि गुणकारी पदार्थ प्रयोग में लाये जाते हे वे किस प्रकार सूक्ष्म रूप धारण करके अग्नि तथा वायु के सहयोग से आकाश में विन्यस्त होते हैं। ऑक्सीजन के साथ मिलकर हमारे लिये श्वास प्रक्रिया के प्राणप्रद बनते हैं। यज्ञ से सुगन्धि समुद्भूत होती है और वह वायु मण्डल को शुद्ध करके अनेक रोग कीटाणुओं का विनाश करती हुई मानवों का स्वास्थ्य सम्पादन करने में बहुविध उपयोगी सिद्ध होती हैं।

(2) लोक कल्याण का द्वितीय अंग मानसिक स्वास्थ्य तथा हार्दिक प्रसन्नता को माना जाता है। या करने वाले महानुभावों को तो यह अनुभव होगा ही-अन्य लोग भी कर सकते हैं कि यज्ञ करते समय-होम करते अथवा परोपकार का कोई कार्य करते हुये मन को कितनी प्रसन्नता अनुभव होती है-हम नहीं जानते क्योंकि? लेकिन मनोविज्ञान वेत्ता यह जानते हैं कि बहूनुमोदित कार्य सम्पादन मानसिक प्रसन्नता वर्धन का कारण होता है और जब यज्ञकर्ता पढ़े-पढ़े उच्चारण करता जाता है ‘इदं देवाय इदंन मन, इदं भूताय इदंन मम।। तब उसकी अन्तरात्मा भी बोल उठती है कि यह यज्ञ मेरे लिये नहीं, लोक कल्याण के लिए है। इस प्रकार मानसिक स्वास्थ्य का सम्पादन यज्ञ का अनिवार्य फल है।

(3) लोक कल्याण का तृतीय अंग भौतिक उन्नति है। लोग कहते हैं कि विज्ञान के आविष्कारों से ही भौतिक उन्नति हुई है। वे भूल जाते हैं कि विज्ञान के आविष्कार जहाँ “निर्माणात्मक पक्ष” में भौतिक उन्नति के साधन हैं, वहाँ वे अपने “विनाशात्मक पक्ष” में परमाणु बम और हाइड्रोजन बम के रूप में कितने प्रलयंकारी सिद्ध होते है-6 अगस्त 1945 में जापान के मुख्य नगर हिरोशिमा पर गिरने वाले बम से आहत वही के निवासियों से पूछिये तब पता लगेगा। दूसरी ओर यज्ञ को लीजिये। आविष्कार क्या है? वे मानों एक प्रकार के यज्ञ ही हैं जिन्हें लैबोरेटरी रूपी यज्ञशाला में बैठे हुये वैज्ञानिक रूपी यजमान होता अपने यन्त्ररूपी कुँड में प्रतिदिन किया करते हैं, लेकिन यह हमारे यज्ञ ‘संगतिकरण” के रूप में-एक पदार्थ को दूसरे से मिलाने के अर्थ में विनाशात्मक और संहारात्मक न होकर कल्याणकारी ही होते हैं क्योंकि यज्ञ का अर्थ ही “दान”, परोपकार, लोक कल्याण ही है। यदि हम यज्ञशद्व का ‘संजतिकरण” के रूप में व्यापक अर्थ लेते हैं तो कलकत्ता विश्वविद्यालय में तथा अमेरिका को म्यूजरानी ओर न्यूयार्क की यूनीवर्सिटियों में हुये कृत्रिम वर्षा के आधुनिक परीक्षण भी तो एक प्रकार के यज्ञ ही है जिनमें (Silver Dioxide) को बर्फ के कणों के साथ “संगतिकरण” करके लोक कल्याण के लिए वर्षा की जाती हैं आज सब इस प्रकार की कृत्रिम वर्षा के आविष्कार ने हमारे सामने प्रत्यक्ष उदाहरण रख दिये है तब तो हमें भगवद्गीता में वर्णित यज्ञ की महिमा में विश्वास करना ही पड़ेगा। इसीलिये तो भगवान कृष्ण ने गीता के तीसरे अध्याय में कहा था:-

यन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः।

अज्ञादी भवतिपर्जन्यो यज्ञःकर्म समुदद्भव।। (गीता)

अर्थात् अन्न से सब प्राणी वर्ग जीवित रहते हैं (अन्नं वै प्राणिनो प्राणः) ओर अन्न बादल की वर्षा से उत्पन्न होता है और बादल यज्ञ से बनता है तथा यह यज्ञ कर्म (Experiments) से सम्पन्न होता है। इस प्रकार विज्ञान के परीक्षण रूपी कर्म से वर्षा और अन्न की उत्पत्ति प्रत्यक्ष है। इसी बात को मनु महाराज ने दूसरे शब्दों में कहा है:-

अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्वगादित्यमुपतिष्ठते।

आदित्याज्जायतेवृष्टिः बृष्टेरन्नंरुतः प्रजा।। (मनुस्मृति)

अर्थात् अग्नि में (जिसे ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र में ही “यज्ञस्यदेव” कहा गया है) डाली हुई आहुति आदित्य”सूर्य” की किरणों को प्राप्त होती है और फिर उसका रासायनिक प्रभाव समुद्र की जलतरंगों पर होता है। तब वाष्पीकरण क्रिया द्वारा वृष्टि होती है। वृष्टि से अन्न होता है और अन्न से प्रजा सुख सम्पन्न होती है। इस प्रकार यज्ञ हमारी भौतिक समृद्धि का कारण होता है।

(4) लोक कल्याण का चौथा अंग में प्रजावर्द्धन है। गीता में कहा भी है:-

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्य पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यध्वम् एव वोऽस्त्विष्टकामधुक्।। (गीता)

3-10) इससे सिद्ध है कि प्रजापतिः परमात्मा ने यज्ञों के साथ ही प्रजा को उत्पन्न किया और फिर उसी को सब मनः कामना की पूर्ति करने वाला बतलाया

“इष्टान् भोगान् वो देबाः दास्यन्ते यज्ञभाविताः।” यज्ञ से प्रसन्न हुये देवता (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र आदि देवता) तुम को मनोवाँछित फल और इष्ट भोग प्रदान करेंगे। किस प्रकार? यह ऊपर सिद्ध किया जा चुका हैं पद्य पुराण में भी कहा गया है:-“अग्निहोत्रात्परं न्यत्पवित्रमिह विद्यते”। अतः हमें यही कहना चाहिये कि लोक में सबसे बड़ा कल्याणकारी यज्ञ है।

स्वास्थ्य सुखं सम्पत्ति दाता दुःखहारी यज्ञ है।।

भूलोक से ले “सूर्य” तक शुभ परम पावन यज्ञ है।

सर्वभूतो के सभी विध दुखनसावन यज्ञ है।।


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