यज्ञ की रोग निवारक शक्ति

December 1955

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(लेखक-श्री रामनाथ वेदालंकार, एम.ए. कागड़ी विश्वविद्यालय)

यज्ञ भारतीय संस्कृति के तिधारभूत तत्वों में से एक है, अथवा यह कहना अधिक ठीक है कि यज्ञ भारतीय संस्कृति का प्राण है। आर्य मानव जब माता के गर्भ में होता है तभी वह यज्ञ द्वारा संस्कृत होना प्रारम्भ हो जाता है, यज्ञ के वातावरण में ही वह जन्म लेता है, यज्ञ द्वारा ही पालित-पोषित होता है, यज्ञ में ही अपना समग्र जीवन व्यतीत करता है और अन्त में यज्ञ द्वारा ही अपनी इहलोक लीला को समाप्त करता है। जीवन में उसे दैनिक, अग्निहोत्र, पंचयज्ञ, षोडश संस्कार तथा अन्य कई श्रोत यज्ञ तो करने होते हैं, पर शास्त्रकारों ने यहाँ तक कहा है कि वह अपने सम्पूर्ण जीवन को ही यज्ञ रूप समझे। छांदोग्य उपनिषद् में लिखा है-“पुरुषों वाव यज्ञः।3।16।।”-मनुष्य का जीवन एक यज्ञ हैं। उसकी आयु के जो प्रथम चौबीस वर्ष है व मानों प्रातः सवन हैं, अगले चौबीस वर्ष माध्यन्दिन सवन है, अगले अड़तालीस वर्ष तृतीय सवन हैं इस प्रकार वह 116 वर्ष चलने वाला यज्ञ है। मनुष्य को चाहिए कि इसे मध्य में ही अधिक-आधि व्याधियों से खण्डित न होने दे।

भारतीय विचार धारा के रोम रोम में ओतप्रोत यह यज्ञ दो दृष्टियों से अपनी महत्ता रखता है एक तो भावना की दृष्टि से दूसरे बाह्य लाभों की दृष्टि से। भावना की दृष्टि से यज्ञ मनुष्य के अन्दर, त्याग, समर्पण, परोपकार, ऊर्ध्वगामिता, आन्तरिक शत्रुओं का दमन, तेजस्विता, देवपूजा, शान्ति, संगठन आदि भावनाओं को उद्वुद्ध करता है। वाह्य लाभों की दृष्टि से यह वायुमंडल को शुद्ध करता है और रोगों तथा महामारियों को दूर करता है। हमारे प्राचीन ऋषि−मुनियों ने यज्ञ को ऐसा वैज्ञानिक सूक्ष्म अध्ययन किया था कि वे प्राकृतिक रूप से वर्षा न होने पर दृष्टि यज्ञ द्वारा वर्षा करा लिया करते थे। वे खेतों में खड़ी हुई फसल से कीड़े लग जाने पर उनके विनाश के लिये भी यज्ञ का प्रयोग करते थे, और यज्ञीय धूम दाग पौधों को खाद भी देते थे। किसी स्त्री के सन्तान न होने पर पुत्रेष्टियज्ञ द्वारा वे उसे सन्तान प्राप्त करा सकते थे। ये सब यज्ञ के वाह्य लाभ कहे जा सकते हैं। प्रस्तुत लेख में हम इनमें से केवल एक लाभ ‘यज्ञ द्वारा रोग निवारण’ पर मुख्यतः वैदिक दृष्टि से विचार करेंगे।

रोगोत्पादक कृमियों का विनाश

अथर्ववेद 1 2/31, 32, 4.37, 5/23, 29 में अनेक प्रकार के रोगोत्पादक कृमियों का वर्णन आता है। वहाँ इन्हें यातुधान, क्रब्यात, पिशाच, रक्षः आदि नामों से स्मरण किया गया है। ये श्वासवायु, भोजन, जल आदि द्वारा मनुष्य के शरीर में प्रविष्ट होकर या मनुष्य को काट कर उसके शरीर में रोग उत्पन्न करके उसे यातना पहुँचाते हैं, अतः ये ‘यातुधान’ है। शरीर के माँस को खा जाने के कारण ये ‘क्रव्यात्’ या ‘पिशाच’ कहलाते हैं। इनमें मनुष्य को अपनी रक्षा करना आवश्यक होता है इसलिए ये ‘रक्षः’ या ‘राक्षस’ है। यज्ञ द्वारा अग्नि में कृमि विनाशक औषधियों की आहुति देकर इन रोगकृमियों को विनष्ट कर रोगों से बचाया जा सकता है अथर्व 118 में कहा है-

इदं हविर्यातुधानान् नदी फेनमिवावाहत्।

य इदं स्त्री पुमानकः इह स म्तुवताँ जनः ।।1।।

यत्रैषामग्ने जनिमानि वेत्थ गृहा सतामन्त्रिणाँ जातवेदः।

ताँस्त्व ब्राह्मणा वावधानों जह्येषाँ शततर्हमग्ने ।।4।।

“अग्नि में डाली हुई यह हवि रोगकृमियों को उसी प्रकार दूर बहा ले जाती है जिस प्रकार नदी पानी के झागों को। जो कोई स्त्री या पुरुष इस यज्ञ को करे उसे चाहिए कि वह हवि डालने के साथ मन्त्रोच्चारण द्वारा अग्नि का स्तवग्न भी करे। हे प्रकाशक अग्नि! गुप्त से गुप्त स्थानों छिपे बैठे हुये भक्षक रोग कृमियों के जन्मों को तू जानता है। वेदमन्त्रों के साथ बढ़ता हुआ तू उन रोगकृमियों को सैकड़ों वधों का पात्र बना।”

इस वर्णन से स्पष्ट है कि मकान के अन्धकारपूर्ण कोनों में, सन्दूक पीपे आदि सामान के पीछे, दीवार की दरारों में एक गुप्त से गुप्त स्थानों में जो रोगकृमि छिपे बैठे रहते हैं वे कृमिहर औषधियों के यज्ञीय धूम से विनष्ट हो जाते हैं।

अथर्व- 5।29 से इस विषय पर और भी अच्छा प्रकाश पढ़ता है।

अक्ष्यौ निविध्य हृदयं निविध्य जिह्वा वितृन्द्धि प्रदशातो मृणीहि। पिसाचो अस्य यतमो जघास -अग्ने यविष्ठ प्रति तं शृणीहि !!4!!

“हे यज्ञाने! जिस माँस भक्षक रोगकृमि ने इस मनुष्य को अपना ग्रास बनाया है उसे तू विनष्ट करे दे। उसकी आंखें फोड़ दे, हृदय चीर दे, जीभ काट दे, दाँत तोड़ दे।”

आमे सुपक्ते शक्ले विपक्वे यो मा पिशाचो अशने ददम्भ। तदात्मना प्रज्यः पिशाचा, वियातयन्तामगदो ऽ यमस्तु!! क्षीरे मा मन्थे यतमो वदम्भ- अकृष्टपच्ये अशने धान्ये यः0 ।। अपाँ मा पाने यतमो वदम्भ- कृव्याद् यातूनां शवने शयानम्! दिवा मा नक्तं यतमो ददम्भ, कव्याद् यातूनाँ शयने शयानम्! तदात्मना प्रजया पिशाचा, वियातयन्तामगदोऽयमस्तु।। अथर्व. 5।29।6-9

“कच्चे, पक्के, अधपके या तले हुए भोजन में प्रविष्ट होकर जिस माँस भक्षक रोगकृमियों ने इस मनुष्य को हानि पहुँचायी है वे सब रोगकृमि हे यज्ञाग्ने! तेरे द्वारा सन्तति सहित विनष्ट हो जायें, जिससे कि यह नीरोग हो। दूध में, मठे में, बिना खेती के पैदा हुए जंगली धान्य में, कृषिजन्य धान्य में, पानी में, बिस्तर पर सोते हुए दिन में या रात में जिन रोगकृमियों ने इसे हानि पहुंचायी है वे सब है यज्ञाग्ने! तेरे द्वारा सन्तति सहित विनष्ट हो जायें, जिससे कि यह हमारा साथी नीरोग हो।”

इन मन्त्रों से ज्ञात होता है कि जिस प्रकार बाहर गुप्त स्थानों में छिपे हुए रोगकृमि यज्ञ द्वारा विनष्ट हो सकते हैं उसी प्रकार दूध, पानी, अन्न, वायु आदि को माध्यम से शरीर के अन्दर पहुंचे हुए रोग कृमि भी नष्ट हो सकते हैं और शरीर स्वस्थ हो सकता है।

ज्वर चिकित्सा।

यज्ञाग्नि द्वारा ज्वर तथा ज्वर के सहकारी फास, शिर पीड़ा अंगों का टूटना आदि भी दूर हो सकते हैं यह अथर्व0 1/12 तथा 5.22 सूत्रों से ज्ञात होता है।

अंगे अंगे शोचिषा शिश्रियाराम्, नमस्यन्तस्त्वा हविषा विधेम। अंकान्त्समंकान् हविषा विधेम, यो अग्रभीत् पर्वास्या ग्रभीता।।

अथर्व0 1/12/2

“हे ज्वर! अंग अंग में ताप के साथ व्याप्त हुए तेरा हम हवि के द्वारा प्रतिकार करते हैं। अंगों को जकड़ने वाले जिस ज्वर ने इस रोगी के अंगों को जकड़ लिया है उसके लिए हवि के द्वारा हम पाशों को तैयार करते हैं।

मुँच शीर्षक्त्या उत कास एवं,

परुष्परुराविवेषा यो अस्य।

यो अग्रजा वातज्ञा यश्च शुष्मो,

वनस्पतीन्त्सवताँ पर्वताँश्च।।

अथर्व0 1/12/3

“हे सूर्य! हवि के साथ मिलकर तू इस रोगी की शिरः पीड़ा से मुक्त कर, जो इसे खाँसी ने सताया हुआ है उससे इसे छुड़ा। जो श्लेष्मजन्य, वातजन्य या पित्तजन्य ज्वर इसके अंग अंग में व्याप्त हो गया है वह शरीर से निकलकर वृक्षों और पर्वतों से टक्कर खाता फिरे।”

अग्निस्तक्मानमपबाधतामितः

सोमो ग्रावा वरुणः पूतदक्षाः।

वेदिर्वहिः समिघः शोशुचाना

अपद्वेषासयमुया भवन्तु।।

अयं यो विश्वान् हरितान्,

अधाहि कक्मन्नरसो हि भूँया,

अघान्यडन्डधराँग वा परेहि।।

अथर्व0 ।22।12

“ यज्ञाग्नि यहाँ से ज्वर को दूर भगा दें। सोमरस यज्ञीय सिल-बट्टे, पवित्र बल को देने वाला सूर्य, वेदि, कुशा, प्रज्ज्वलित समिधाएं ये समस्त यज्ञाँग ज्वर निवारण में सहायक हो। इस विधि से द्वेषकारी सब ज्वरजन्य उपद्रव दूर हो जायें। हे ज्वर! जो तू अपने ताप से तप्त करता हुआ, पीड़ित करता हुआ सबके पीले शरीर वाला कर देता है वह तू यज्ञाग्नि द्वारा निर्वीर्य हो जा, शरीर से बाहर निकल जा।”

यत् त्वं शातोऽथो रुरः सह कासाऽवेपयः।

भीमास्ते तक्मन् हेतयस्ताभिः स्म परिवृडग्घि नः।।

तृतीयकं वितृताँयं सदन्दिमुत शारदन्।

तक्मानं शीतं रुरं ग्रीष्मं नाशय वार्षिकम्।।

अथर्व 5/22/10, 13।

“हे ज्वर! जो तू शीत रूप है या उष्ण रूप है, खाँसी से प्रकम्पित करता है, तेरे ये सब हथियार बड़े भयानक है उनसे तू हमें बचाये रख। हे यज्ञाग्ने! जो तीसरे दिन चढ़ने वाला, चौथे दिन चढ़ने वाला प्रतिदिन चढ़ने वाला, प्रतिदिन चढ़ने वाला, ग्रीष्म में होने वाला, वर्षा में होने वाला शीत या उष्ण ज्वर है उसे तू नष्ट कर”

उन्माद चिकित्सा

अथर्व0 6/111 में यज्ञाग्नि द्वारा उन्माद रोग की चिकित्सा का वर्णन मिलता है।

इगं में अग्ने पुरुषं मुमग्धि- भयं यो बद्वः सुमतो लालपीति। अतोऽधि ते कृरावद् भागधेयं, यदा ऽ नुन्मदितो ऽ सति।।1।।

“हे यज्ञाग्ने! यह जो उन्माद रोग से ग्रस्त पुरुष कर कर वेधा हुआ असंबद्ध प्रलाप कर रहा है उसे तू इस रोग से मुक्त करे दे। जब वह तेरी कृपा से इस रोग से छूट जाये तब भी वह तुझे तेरा हविर्भाग प्रदान करता रहे, जिसके कि फिर कभी उन्मत्त न हो।”

अग्निष्ट निशमयत यदि ते मन उद्युतम्। कृणोमि विद्वान भेषजं यथानुन्यदितोऽसति।।2।।

“ हे मनुष्य! यदि उन्माद के कारण तेरा मन उद्दीप्त हो गया है, तो यज्ञ चिकित्सा को जानने वाला मैं तेरा इलाज करता हूँ, जिससे कि तू उन्माद रहित हो जाये।”

इन मन्त्रों से यह ज्ञात होता है कि यदि कोई मनुष्य उन्मत्त हो जाये उसकी अवस्था ऐसी बिगड़ जाये कि वह असंबद्ध बातें बोलता रहे, काटने-मारने को दौड़ता हो, यहाँ तक कि उसे रस्सी से बाँध कर रखने की आवश्यकता पड़े, तो उस हालत ये’ भी वह यज्ञ चिकित्सा से स्वस्थ हो सकता है, यज्ञाग्नि में डाली हुई औषधियों की सुगन्ध उसके विकृत मस्तिष्क और उत्तेजित मन को ठीक कर सकती है। जो एकबार उन्माद रोग से ग्रस्त हो चुका होता है। उसके लिए आगे भी यह भय रहता है कि कहीं फिर उन्मत्त न हो जायें। पर यहाँ वेद ने यह उपाय बताया है कि ठीक होने के पश्चात यदि वह इस रोग के लिए हितकर औषधियों से नियमपूर्वक यज्ञ करता रहे तो भविष्य में फिर कमी इस रोग से ग्रस्त नहीं होगा।

गण्डमाला चिकित्सा

अथर्व 6/83 में गण्डमाला की चिकित्सा का वर्णन है। वहाँ सूर्य और चन्द्रमा की किरणों के सेवन तथा यज्ञाग्नि की आहुति द्वारा यह रोग दूर हो सकता है ऐसा कहा गया है।

अपचितः म पतत सुपर्णो वसतेरिव। सूर्यः कणोंत भेषजं चन्द्रमा वो ऽ पोच्छतु।। एन्येका श्येनयेका कष्णौका रोहणी द्वे। सर्वासमग्म नाम-भवीरघ्ननीरपेतन।। असूतिका रामायशी अपचित् प्र पतिष्यति। गलैरितः प्र पतिष्यति स गलुन्तो निशिष्यति।। बीहि स्वामाहुस्ति जुबाराणो मनसा स्वाहा मनसा यदिदं जुहोमि।।1-4।।

“हे गण्डमाला की ग्रन्थियों! तुम इस रोगी के शरीर से निकल कर उड़ जाओ, जैसे बाज पक्षी अपने घोंसले से उड़ता है। सूर्य तुम्हारी चिकित्सा करे, चन्द्रमा तुम्हें दूर भगा दे। तुममें से एक कुछ कुछ लाल श्वेत वर्ण वाली है, एक काली है, दो लाल है। एक-एक करके तुम सबका मैं नाम लेता हूँ। इस वीर पुरुष का संहार न करती हुई तुम इसके शरीर से दूर हो जाओ। हे रोगी! तू विश्वास रख, जिससे अभी पूर्णासूख होना आरम्भ नहीं हुआ हे ऐसी तेरी यह गण्डमाला ग्रन्थि निश्चय ही गिर जायेगी। हे रोगी ! तू मनोयोग के साथ इस आहुति का सेवन कर, जिसे में मनोयोग पूर्वक यज्ञाग्नि में डाल रहा हूँ।

इस वर्णन से स्पष्ट है कि गण्डमाला का रोगी यदि गण्डमाला ग्रंथियों पर विशेष औषधियों का यज्ञ धूप ले- तो वे ग्रन्थियाँ नष्ट हो सकती हैं। साथ में सूर्य किरणों और चन्द्र किरणों का सेवन भी सहायक चिकित्सा के रूप में करना चाहिए ।

अथर्व 7/74 में भी गण्डमाला की चिकित्सा का वर्णन करते हुए अन्तिम मन्त्र में यज्ञाग्नि को स्मरण किया है।

व्रतेन त्वं व्रतपते समक्तो, विश्वाहा सुमना दीदिहीह। तं त्वा वयं जातवेदः समिद्वं, प्रआवन्त उपसदेम सर्वे ।।4।।

“हे व्रतपते जात वेदः यज्ञाग्ने! रोगनिवारण आदि व्रतों से युक्त तू प्रति दिन हमारे घरों में प्रज्वलित होता रहा। हम समिधाओं से प्रज्वलित तेरे समीप सब परिजनों सहित बैठा करें।”

क्षयरोग या राजयक्ष्मा की चिकित्सा

अन्य रोगों की तो गणना ही क्या, यज्ञ द्वारा राजयक्ष्मा की भी चिकित्सा हो सकती है, यह वैदिक संदर्भों से प्रकट होता है। सर्वप्रथम हम अथर्व 7/76 का प्रसंग लेते हैं।

यः कीकसाः प्रशणाति तलीद्यमवतिष्ठति। निर्हास्तं सर्व जायान्यं यः कश्च ककुदि श्रितः।।3।। पक्षी जायान्यः पतित स आविशति पूरुषम्। तदक्षितस्य भेषजमुभयोः सुक्षितस्य च।।4।। विगृह वै ते जायन्य जानं यतो जायान्य जाय से। कथं ह तत्र त्वं हनो यस्य कृन्मो हविर्गृहे।।5।।

जो क्षयरोग पसलियों को तोड़ डालता है, फेफड़ों में जाकर बैठ जाता है, पृष्ठ वंश के उपरि भाग में स्थित हो जाता है उस अतिस्त्रीप्रसंग से उत्पन्न होने वाले क्षयरोग को हे यज्ञीय हवि! तू शरीर से बाहर निकाल दें। पक्षी की भाँति उड़ने वाला अर्थात् छूत द्वारा फैलने वाला यह रोग एक से दूसरे पुरुष में प्रविष्ट हो जाता है। चाहे उसने जड़ जमा ली हो, चाहे जड़ न जमायी हो, हवि चिकित्सा दोनों की ही उत्तम चिकित्सा है। हे अतिस्त्रीप्रसंग से उत्पन्न होने वाले क्षय रोग! हम तेरे उत्पादक कारणों को जानते हैं पर जिस पुरुष के घर में हवन करते हैं उसे तू कैसे मार सकता है।

इन मन्त्रों से क्षयरोग के निवारण में यज्ञ-हवन की महत्ता स्पष्ट है। इस विषय पर अथर्ववेद (3/11,20/96) तथा ऋग्वेद (10/161) के कुछ अन्य मन्त्र और भी अच्छा प्रकाश डालते हैं। यज्ञ चिकित्सा करने वाला वैद्य कहता है-

मुंचामित्वा हविषा जीवनाय कम् अज्ञाततक्ष्मादुत राजयक्ष्मात्। ग्राहिर्जग्राह यदि व तैदेनं तस्या इन्द्राग्नी प्रमुमुक्तमेनम्।।

“हे रोगी! चाहे तेरे शरीर में क्षयरोग अज्ञात अवस्था में है, चाहे प्रकट अवस्था में है, हवि द्वारा मैं तुझे उसे रोग से मुक्त कर दूँगा जिससे कि तू चिरकाल तक जीवित रहे। हे! वायु और अग्नि! यदि वह रोगी पूरी तरह से क्षयरोग की पकड़ में आ गया है तो भी तुम इसे उससे छुड़ा दो।”

यदि क्षितायुर्यदि वा परेतो यदि मृत्योरन्तिकं नीत एव। तमाहरामि निऋतेरुपस्थाद् अस्पार्षमनं शतशारदाय।।

“यदि इसकी आयु क्षीण हो चुकी है, यदि यह निराश हो चुका है, यदि यह मृत्यु की गोद से लौटा लाता हूँ। मैंने इसे सौ वर्ष जीने के लिए बल प्रदान कर दिया है।”

सहस्राक्षेण शनशारदेन शतायुषा हविषाऽऽहार्षमेनम्। शत यथेमं शरदो नयाति इन्द्रो विश्वस्य दुरितस्य पारम्।।

“इन्द्रियों को सहस्रगुणित शक्ति देने वाली, सौ शरद् ऋतुएं निर्विघ्न पार कराने वाली सौ वर्ष की आयु देने वाली हवि के द्वारा मैं इस पुरुष को क्षयरोग के चंगुल से छुड़ा लाया हूँ, जिससे कि आगे भी (हर्विगन्ध से युक्त) वायु सौ वर्षों तक इसे सब रोग कष्टों से पार करता रहे।”

शत जीव शरदो वर्धमान शतं हेमन्तान्छतमुवसन्तान्। शतमिन्दाग्नि सविता वृहस्पतिः्र शयायुषा हविषेमं पुनर्दः।।

“ हे हवि चिकित्सा द्वारा क्षय रोग से आरोग्य लाभ किये हुए मनुष्य! तू दिनोंदिन बढ़ता हुआ सौ शरदों तक, सौ हेमन्तों तक और सौ बसन्तों तक जीवित रहा। वायु, अग्नि सूर्य और बृहस्पति पर्जन्य ने सौ वर्ष की आयु देने वाली हवि की सहायता से पुनः तुझे सौ वर्ष की आयु प्राप्त करा दी है।”

इन मन्त्रों से स्पष्ट है कि क्षयरोग चाहे प्रारम्भिक अवस्था में हो चाहे बहुत बढ़ गया हो, यहाँ तक कि उसके कारण रोगी बिल्कुल मरणासन्न हो गया हो, तो भी हवि चिकित्सा के द्वारा वह ठीक हो सकता है, और रोगी स्वस्थ होकर सौ वर्ष तक जीने योग्य हो सकता है। परन्तु हवि चिकित्सा के साथ साथ शुद्ध वायु सेवन सूर्यकिरणस्नान, शुद्ध जल का प्रयोग आदि हो तभी हवि चिकित्सा लाभदायक होती है यह भी प्रकट है।

गर्भ दोष-निवारण

ऋग्वेद में अगले ही सूक्त (10/162) में यज्ञाग्नि द्वारा गर्भदोषों के निवारण का उल्लेख किया गया है, यह प्रकरण अथर्ववेद (20/96) में भी है।

ब्रह्मणाग्निः संविदानो रक्षोहा बाधतामितः।

अमीवा यस्ते गर्भ दुरार्णामा योनिमाशयं।।

“ हे नारी! जो तेरे गर्भ या योनि के अन्दर बुरे नाम वाला रोग या रोगकृमि प्रविष्ट हो गया हे उसे वेदमन्त्रों से युक्त कृमि विनाशक यज्ञाग्नि वहाँ से निकाल देवे।”

यस्ते गर्भ ममीवा दुर्णामा योनिमाशये। अग्निष्ट ब्रह्मणा सह निष्कव्यादमनीनशत्

“जो तेरे गर्भ या योनि में बुरे नाम वाला रोगकृमि प्रविष्ट हो गया है उस माँस भक्षक कृमि को वेदमन्त्रों के साथ प्रयुक्त यज्ञाग्नि नष्ट कर देवें।”

यस्ते वस्ते जिघाँसति निषत्म्नुँ यः सरीसृपम्। जातं यस्ते जिघाँसति तनित्तों नाशयामसि।।

“जो रोग या रोगकृमि तेरे गर्भाशय में जाते हुए वीर्य की उत्पादक-शक्ति को नष्ट करता है, जो अन्दर स्थित हुए गर्भ की हत्या करता है, जो गर्भाशय से बाहर आते हुए चंचल गर्भ की हत्या करता है, जो पैदा हुए शिशु की हत्या करता है उसे हम यज्ञाग्नि द्वारा विनष्ट कर देते हैं।

इन मन्त्रों से यह द्योतित होता है कि यज्ञ-हवन द्वारा अनेक प्रकार के गर्भदोष भी दूर हो सकते हैं। जिन स्त्रियों में गर्भ ठहरने ही नहीं पाता, या ठहरने के वाद दो -चार महीनों में गिर जाता है, या पूरे नौ-दस महीने की अवधि तक स्थिर रह कर भी प्रसव ठीक नहीं हो पाता, या प्रसव हो भी जाये तो शिशु ऐसा रोगक्रान्त पैदा होता है कि शीघ्र ही मर जाता है, ऐसी स्त्रियाँ हवि चिकित्सा से लाभ प्राप्त कर सकती है ऐसा वेद का आशय है।

प्रसूतकर्म आसानी से हो जाने के लिए भी किन्हीं विशेष औषधियों की यज्ञीय सुगन्ध उपयोगी हो सकती है। यह अथर्व 1/111 के निम्न मन्त्र से प्रकट होता है-

वषट् ते पूषन्नस्मिन्त्सूतौ-अर्यमा होता कृणेतु वेधाः। सिसुताँ नारी-ऋतप्रजात, वि पर्वाणि जिहताँ सूतवाउ।।

‘हे पोषक गृहपते! इस प्रसव के समय रोग-शत्रुओं का नियमन करने वाला अर्यमा, (अरीन् नियच्छति। निरुक्त 11।33) यज्ञ का विधाता (वेधाः होमनिष्पादक होता तेरे लिए अग्नि में हवि डालता हुआ वषट्कार करे। नारी बाहर की ओर किनछे और अपने अंगों को ढीला छोड़ दे, जिससे कि आसानी से प्रसूति हो जाये।”

अन्य रोगों का निवारण

अब तक हमने ऐसे मन्त्र प्रस्तुत किये है जिनमें यज्ञ द्वारा किन्हीं विशेष रोगों के विनाश होने का वर्णन है। अब कुछ ऐसे मंत्र उद्धृत करेंगे जिनमें किसी विशेष रोग का नाम न लेकर सामान्य रूप से यह कहा गया है कि यज्ञाग्नि से रोग दूर होते हैं।

यथा वृत्र इमा आपस्तस्तम्भ विश्वधा यतीः।

एवा ते अग्निना यक्ष्मं वंश्वानरेण नारये।।

अथर्व0 6।85।3

जिस प्रकार वृत्र मेघत्र चारों ओर जाने वाले जलों की गति को रोक देता है, उसी प्रकार हे रोगी! सर्व जन हितकारी यज्ञाग्नि के द्वारा मैं तेरे रोग को निवारण कर देता हूँ।”

आ ते प्राणं सुवामसि परा यक्ष्म सुवामि ते।

आयुनो विश्वतो दधदयमग्निर्वरेण्य।।

अथर्व 7।53।6

“हे रोगी! तेरे अन्दर हम प्राण को प्रेरित करते हैं, तेरे रोग को दूर कर देते हैं। यह वरणीय और श्रेष्ठ यज्ञाग्नि हम सबको सर्वत्र दीर्घायुष्य प्रदान करें।”

अनाधृष्यो जातवेदा अमर्त्यो

विगडग्ने क्षत्रभृद दीदिहीह।

विश्वा अमीवाः प्रमुंचन् माुनषीभिः

शिवाभिरद्य परिपाहि नो गयम्।।

अथर्व 784।1

“हे यज्ञाग्ने! तू अनाघृष्य अर्थात् रोगादि शत्रुओं से अपराजेय है, तू उत्पन्न पदार्थों का प्रकाशक है, तू अमर, तेजस्वी और बलधारक होता हुआ हमारे घरों में प्रज्वलित हो। सकल रोगों को छुड़ाता हुआ मनुष्य का कल्याण करने वाली रक्षा से हमारे घर की भली प्रकार रक्षा कर।”

कविमग्निमुपस्तुहि सत्यधर्माणमध्वरे।

देवममीवचातनम्।।

ऋग्वेद 1।12।7

“हे मनुष्य! जो यज्ञाग्नि मेधावी के तुल्य सत्य धर्मों वाला, देदीप्यमान और रोगों को नष्ट करने वाला है उसका तू यज्ञ में स्तवन कर।”

घृतस्य जूतिः समना सदेवा

संवत्सरं हविषा वर्धयन्ता।

श्रोत्र चक्षुः प्राणोऽच्छिन्नो नो अस्तु-

अच्छिन्ना वयमायुषो वर्चम।।

अथर्व0 19।58।1

“मनोयोग के साथ और चक्षु, वाक् आदि इन्द्रिय देवों के व्यापार के साथ अग्नि में डाली हुई घृत की धारा अन्य औषधियों की हवि के साथ वर्ष भर हमें बढ़ाती रहे। हमारे श्रोत्र, चक्षु, प्राण रोगादि से छिन्न न होवें, हम आयु और तेज से छिन्न न होवें।”

स घा यस्ते ददाशति समिधा जातवेद से। सो अग्ने धत्ते सुवीर्यं स पुष्यति।। ऋग्0 3।10।3

हे यज्ञाग्ने! जो मनुष्य तुझपे विभिन्न औषधियों की समिधाओं का आधान करता है उसे बल प्राप्त होता है, वह परिपुष्ट होता है।”

इन तथा इसी प्रकार के अन्य अनेक मन्त्रों से यह स्पष्ट है कि विभिन्न औषधि-वनस्पतियों के समित् पत्र पुष्प-फल-मूल निर्यास आदि की हवि से मनुष्य बल, पोषण, रोग निरोधक शक्ति प्राप्त कर सकता है और प्राप्त तथा अप्राप्त विविध रोगों से बच कर दीर्घायुष्य पा सकता है।

यज्ञ द्वारा रोग निवारण की प्रक्रिया

अब हम यह देखेंगे कि यज्ञ द्वारा राग निवारण कैसे होता है। जब हम यज्ञाग्नि में घृत, अन्न, औषधियों आदि की आहुति देते हैं तब उनकी रोग निवारक गन्ध वायुमण्डल में फैल जाती है। उस वायु को श्वास द्वारा हम अपने फेफड़ों में भरते हैं। वहाँ उस वायु का रक्त से सीधा संपर्क होता है। वह वायु अपने विद्यमान रोग निवारक परमाणुओं को रक्त में पहुँचा देती है। उससे रक्त में जो रोगकृमि होते हैं वे मर जाते हैं। रक्त के अनेक दोष वायु में आ जाते हैं और जब हम वायु को बाहर निकालते हैं तब उसके साथ वे दोष भी हमारे शरीर से बाहर निकल जाते हैं। इस प्रकार यज्ञ द्वारा संस्कृत वायु में बार-बार श्वास लेने से शनैः शनैः रोगी स्वस्थ हो जाता है। इसी प्रक्रिया को वेद में निम्न शब्दों में दर्शाया गया है-

द्वाविमौ वातौ वात आ सिन्धोरा परावतः।

दक्षं ते अन्य आ वातु परान्यो वातुँ यद्रपः।।

आ वात वाहि भेषजं वि बात वाहि यद् रपः।

त्वं हि विश्वभेषजो देवानाँ दूत ईयसे।।

-ऋग्0 10।137।2,3 अथर्व0 4।13।2,3

“ ये श्वास-निःश्वास रूपी दो वायु चलती हैं, एक बाहर के वायुमण्डल से फेफड़ों के रक्त समुद्र तक, और दूसरी फेफड़ों से बाहर के वायुमण्डल तक। इनमें से पहली हे रोगी! तुझे रोग निवारक बल प्राप्त कराये, दूसरी रक्त में जो दोष है उसे अपने साथ बाहर ले जाये। हे वायु! तू अपने साथ औषध को ला। हे वायु! तू रक्त में जो मल है उसे बाहर निकाल। तू सब रोगों की दवा है, तू देवों का दूत होकर विचरता है। ”

वात आ वातु भेषजं शंभु मयोभु नो हृदे। प्रण आयूषि तारिषत्।। उत वात पितासि न उत भ्रातोत नः सखा। स नो जीवातवे कृधि।। यददो वात ते गृहेऽमृतस्य निधिर्हितः। ततो नो देहि जीवसे।। ऋग्वेद 10।186।1-3

“वायु हमारे शरीर के अन्दर औषध को ले जाये, जो कि हमारे हृदय के लिए शान्तिकर और सुखकर हो। हमारी आयु को बढ़ाये। हे वायु! तू हमारा पितृतुल्य, भ्रातृतुल्य और मित्रतुल्य है, वह तू हमें जीवन प्रदान कर। हे वायु! जो तेरे घर में अमृतमय औषध का भण्डार निहित है, उसमें से कुछ अंश हमें भी प्रदान कर, जिसमें कि हम चिरंजीवी हो।”

आयुर्वेदिक ग्रन्थों का प्रमाण

यज्ञों द्वारा रोग निवारण का वर्णन आयुर्वेद के ग्रन्थों में भी मिलता है। महर्षि चरक क्षयरोग की चिकित्सा के प्रकरण में कहते है-

यया प्रयुक्तया चेष्टया राजयक्ष्मा पुराजितः।

तं वेदविहितामिष्मारठोग्यार्थी प्रयोजयेत्।।

-चरक। चिकित्सास्थान ।8।122

अर्थात् प्राचीन काल में जिन यज्ञों के प्रयोग से राजयक्ष्मा को जीता जाता था, आरोग्य चाहने वाले मनुष्य को चाहिए कि उन वेद विहित यज्ञों का अनुष्ठान करलें।

आयुर्वेद में विभिन्न ग्रंथों में ऐसे अनेक प्रयोग लिखे है जिनमें अग्नि में औषधियाँ डालकर उनकी धूनी लेने से रोगों को दूर करने का वर्णन है। इन्हें भी यज्ञ चिकित्सा का ही रूप समझा जा सकता है। उदाहरण के लिए हम कुछ प्रयोग नीचे देते हैं।

अगुरुघनसारसल्लककररुहनतनीरचनदनैर्युक्तः।

सर्जरसेन समेतो धूपों रुग्दाहकं हन्ति।।

(बृह्मत्रिघण्टु 0)

अगर, कपूर, लोबान, नखी, तगर, सुगन्धबाला, चन्दन और राल इनकी धूप देने से दाह शान्त होता है।

अश्वगन्धोऽय निर्गुन्डी वृहती पिप्पलीफलम्।

धूपोऽयं स्पर्शमात्रेण ह्यर्शसाँ शमने ह्यलम्।।

(वृ0नि0र0)

असगन्ध निर्गुन्डी, बड़ी कटेली, पीपल-इनकी धूप से बवासीर की पीड़ा शान्त होती है।

शिग्रुपल्लवनिर्यासःसुपिष्टस्ताम्रसम्पुटे।

घृतेन धूपितों हन्ति शोथघर्षाश्रु वेदनः।। (वंगसेन)

सहंजने के पत्तों के रस को ताम्रपत्र में डालकर ताँबे की मूसली से घोटे और उसे घी में मिला लें। इसकी धूप देने से आँखों की पीड़ा, अश्रु स्राव, किरकिराहट और शोथ का नाश होता है।

काकुभकुसुमविडंग लाडंगलिभंल्लातक तथोशीरम्। श्रीवेष्टकसर्जरसं चन्दनमथ कुष्ठमष्टमं दद्यात्।। एष सुगन्धो धूपः सकृत् कृमीणा विनाशकः प्रोक्तः। शय्यासु मष्कुणानाँ शिरसि च गात्रेसु यूकानाम्।। (योगरत्नाकर)

अर्जुन के फूल, वायडिग, कलियारी की जड़ मिलावा, खस, धूप सरल, राल, चन्दन और कूठ समान भाग लेकर बारीक कूट लें। इसकी धूप से कृमि नष्ट हो जाते हैं। यदि खाट को इसकी धूप दी जाये तो खटमलों का और शिर तथा अंगों को दी जाये तो जुओं का विनाश होता है।

कामका चीफलैकेन घृतयुक्तेन बुद्धिमान।

धूपयेत् पिल्लरोगार्ते पतन्ति कृमयोऽनिरात्।।

-गदनिग्रह)

मकोय के एक फल को घृत लगाकर उसे आग पर डालकर आँख में उसकी धूनी देने से तुरन्त आँख से कृमि निकल कर पिल्ल रोग नष्ट हो जाता है।

निम्बपत्रं वचा कुष्ठं पथ्या सिद्धार्थकं घृतम्।

विषयज्वरनाशाय गुग्गुलुश्चेति घूपनम्।।

(वृ0नि0 र0)

नीम के पत्ते, बच कूठ, हर्र, सफेद सरसों और गूगल के चूर्ण को घी में मिलाकर उसकी धूप देने से विषम ज्वर नष्ट होता है।

निम्बपत्रवचाहिडंगूसपिर्लवण्सासर्पपैः।

धूपन कृमिरक्षोध्नं ब्रणकण्डुरुजापहम्।।

(वृ0नि0र0)

नीम के पत्ते, बच, हींग, सेंधा नमक और सरसों के संभाग मिश्रित चूर्ण को घी में मिलाकर उसकी धूप देने व्रण के कृमि, खाज और पीव नष्ट होती है।

इस प्रकार के अनेक प्रयोग आयुर्वेद के ग्रन्थों में है। प्राचीन आयुर्वेदिक आचार्यों ने ये परीक्षण किये थे। अनुसन्धान और परीक्षण से हम अन्य भी अनेक प्रयोगों का आविष्कार कर सकते हैं। परन्तु अग्नि में औषधियों के मिश्रण को डालने मात्र से जितना फल सम्भव है उससे शतगुणित फल यज्ञ द्वारा उस विधान को करने से प्राप्त हो सकता है। रोगी श्रद्धा के साथ मन, में पवित्र विचारों को लेकर यज्ञ में बैठता है वह मन से इस विश्वास को धारण किये हाता है कि इस यज्ञीय हवि से मेरा रोग अवश्य दूर होगा। चिकित्सक की भावना और उत्साह रोगी के हृदय में और आशा संचार कर देते हैं। मंत्र पाठ पूर्वक यज्ञ प्रारम्भ होता है। एक एक मंत्र के साथ स्वाहाकार पूर्वक अग्नि में हवि पड़ती है। मन्त्र का एक एक शब्द रोगी के हृदय पर असर करता है। थोड़े थोड़े अन्तर के पश्चात् प्रत्येक स्वाहाकार के साथ अग्नि से हवि र्घूम उठता है और श्वास वायु के साथ रोगी के अन्तस्तल को स्पर्श करता हुआ रोग को दूर भगाता है। यज्ञीय वातावरण की शान्ति और पवित्रता रोग कल्मष को दूर करने में सोने में सुगन्ध का काम करती है। यह सब लाभ यज्ञ विहीन शुष्क क्रिया द्वारा भला कहाँ सम्भव है।

उपसंहार

अस्तु शास्त्रीय प्रमाणों में यह प्रतिपादित करने या यत्न किया है कि यज्ञ द्वारा समस्त रोगों का निवारण सम्भव है। किस रोग में किन पदार्थों की हवि हितकर होगी इसका वैद्यविद्वन्मंडली को अधिकाधिक अनुसन्धान करना चाहिए। अथर्ववेद में गूगल, कुष्ठ, पिप्पली, पृश्निपर्णी, सहदेवी, लाक्षा, अजशृंगी आदि कतिपय औषधियों का माहात्म्य वर्णन मिला है। हवन सामग्री में गूगल का प्रयोग प्रायः किया जाता है। उसके विषय में अथर्व0 19।38 में कहा है-

न तं यक्ष्मा अरुन्धते नैनं शपथो अश्नुते। यं भेषजस्य गुग्गुलोः सुरभिर्गन्धो अश्नुते।।

अर्थात् जिस मनुष्य को गूगल औषध की उत्तम गन्ध प्राप्त होती है उसे रोग पीड़ित नहीं करते और अभिशाप या आक्रोश उसे नहीं घेरता।

यज्ञ द्वारा रोग निवारण शास्त्रकारों की कोरी कल्पना या उड़ान मात्र नहीं है। प्राचीनकाल में रोग फैलने के समयों में बड़े-बड़े यज्ञ किए जाते थे और जनता उनसे आरोग्य लाभ करती थी। इन्हें भैषज्य यज्ञ कहते थे। गोपथ ब्राह्मण में लिखा है-

भैषज्ययज्ञा वा एते यच्चातुर्मास्यानि।

तस्ताद् ऋतुसन्धिषु प्रयुजयन्ते।

ऋतुसन्धिषु वै व्याधिर्जायते।

गो0ब्रा0।उ01।19।

अर्थात् जो चातुर्मास्य यज्ञ है वे भैषज्य यज्ञ कहलाते हैं, क्योंकि रोगों को दूर करने के लिए होते हैं ये ऋतु सन्धियों में किये जाते हैं, क्योंकि ऋतु


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118