यज्ञ की सफलता मंत्र पर निर्भर है।

December 1955

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(श्री सी. रामचन्द्राचार्य विद्यानिधि-मैसूर)

अति प्राचीन काल में नैमिषारण्य क्षेत्र में बैठकर शौनक आदि ऋषियों ने यज्ञ तथा उसके अंग, उपाँग की चर्चा का एक दीर्घ कालीन आयोजन किया। कई ऋषियों ने वैराग्य और कर्म त्याग का प्रतिपादन किया- पर गम्भीर चिंतन और मन्थन के बाद ही निर्धारित हुआ कि यदि यज्ञादि करणीय कर्मों की उपेक्षा की जायेगी तो यज्ञपुरुष विष्णु भगवान् के विधान की अपार हानि होगी और संसार में महाअनिष्ट, अन्धता, जड़ता तथा तमसाच्छन्न अव्यवस्था फैल जायेगी।

यज्ञों में जो शक्ति सन्निहित है उसका प्रमुख आधार मंत्र शक्ति है। मन्त्रों में चार प्रकार की शक्ति होती है। 1-प्रामाण्य शक्ति 2-फल प्रदान शक्ति 3-बहुली करण शक्ति 3-अध्यात्म शक्ति।

महर्षि जैमिनी के पूर्ण मीमाँसा के अनुसार मंत्रों में जो अर्थ, शिक्षा, संबोधन, आदेश सन्निहित है, जिसके आधार पर मनुष्यों को अपने कर्तव्य का ज्ञान होता है और कर्तव्य की प्रेरणा मिलती है वह उनकी प्रामाण्य शक्ति है।

कुशा, हवि, चरु, आज्य, कुण्ड, समिध, पात्र पीठ आदि को अभिमंत्रित करके उनको सूक्ष्म प्राण से प्राणवान करने का विधान, मंत्रोच्चार, ऋत्विजों को न्यसदि से मन्त्रावधारित करना एवं अमुक क्रिया पद्धतियों द्वारा अमुक आयोजन का विधि विधान-मंत्र की फलप्रदायिनी शक्ति से संबंधित है। सकाम यज्ञों में यही प्रक्रिया प्रधान रहती है। विष परिहार, रोग निवारण, शत्रु-नाश, श्रीलाभ, युद्ध जय, दिव्य अस्त्रास्त्र, संतान लाभ आदि नाना प्रकार के काम्य उद्देश्य मन्त्रों को इसी शक्ति के द्वारा प्राप्त होते हैं।

मंत्र की तीसरी शक्ति “बहुलीकरण शक्ति” है। देव पूजन में जरा सा चंदन, अक्षत,पुष्प नैवेद्य आदि चढ़ाये जाते हैं और हवन में दो पोरुवों पर रखकर जरा सी हवि देवता के लिए होमी जाती है। देवताओं का आकार विस्तार इतना बड़ा और यह पूजा पदार्थ इतने स्वल्प? इससे उनकी तृप्ति कैसे होगी ? इस प्रश्न का समाधान वही कर सकते हैं जिन्हें मन्त्र की ‘बहुलीकरण शक्ति’ का ज्ञान है। जिस प्रकार छोटे से परमाणु का विस्फोट अमुक प्रक्रिया के साथ करने पर वहाँ प्रचंड विद्युत शक्ति का परिस्तरण होता है उसी प्रकार अमुक मंत्रों को, अमुक विधान के साथ दी हुई थोड़ी सी वस्तु भी सूक्ष्म जगत में इतनी मधुर, सुस्वाद, तथा विपुल हो जाती है कि उसे देवता अमृत के समान उपभोग करते हुए तृप्तिलाभ करते हैं।

मंत्र की चौथी ‘अयातयामता’ शक्ति वह है जो किसी विशेष व्यक्ति द्वारा, विशेष स्थान पर, विशेष उपकरणों से पैदा होती हैं। विश्वामित्र ऋषि ने गायत्री तत्व की असाधारण तन्मयता के साथ असाधारण उपासना की फलस्वरूप ये गायत्री के मंत्र दृष्टा बने। कोई विशेष साधन जिस भूमि पर रहकर किया जाता है वह भूमि उस यंत्र की शक्ति से असाधारण रूप से प्रभावित हो जाती है, ऐसे स्थान तीर्थ-सिद्ध पीठ, शक्तिपीठ आदि के नाम से पुकारे जाते हैं जिस माला से, जिन पूजा पात्रों से जो मंत्र साधन किया जाता है वह पदार्थ उस तत्व से परिपूर्ण हो जाने के कारण निहित प्रयोजन की सिद्धि में विशेष रूप से सहायक होते हैं।

प्राचीन काल में इस ‘अयातयामता’ शक्ति का बहुत महत्व मानते थे और उसका पूरा-पूरा ध्यान रखते थे। कल्प सूत्र कार्यों की मर्यादा यह है कि निर्धारित कर्मकाण्ड समाप्त हो जाने पर उसका बचा हुआ परिद्रव्य, यातयाम, निर्वीय हो जाता है। कारण यही है कि उन पदार्थों को जिस उद्देश्य से अभिमंत्रित किया गया था वे उस उद्देश्य से भिन्न प्रयोजन के लिये उपयुक्त नहीं रहते। प्रेत कर्म कराने वाले, श्राद्ध विशेषज्ञ कर्मकाण्डी अन्यान्य कर्मकाण्डों को अपने हाथ से नहीं लेते, इसी प्रकार अमुक यज्ञों का विशेषज्ञता जिन आचार्यों से प्राप्त करानी होती है उनके द्वारा ही वह कार्य ठीक प्रकार से सम्पन्न हो पाते हैं। दशरथ के गुरु वशिष्ठ जी उच्च कोटि के वेदज्ञ थे, कोई भी क्रिया कलाप उनसे छिपा न था, पर पुत्रेष्टि यज्ञ के उपर्युक्त शृंगी ऋषि ही थे। दुर्गा, शिव, आदि देवताओं के जहाँ विशेष सिद्धपीठ है वहाँ उन मंत्रों की अयातयामता शक्ति को विकसित होने में बड़ी सहायता मिलती हैं।

मन्त्र विद्या के ज्ञाता सम्पूर्ण मन्त्र संहिता को पढ़ते है-पर विशेष श्रम किसी विशेष यज्ञ भाग पर ही करते हैं। प्राचीनकाल में वंश परम्परा से अमुक मंत्र भाग की साधना चलती थी। पीढ़ी पर पीढ़ी इस विशेषता को कायम रखा जाता था। अब तो एक ही पंडित सम्पूर्ण प्रकार के कृत्य करा देने का साहस करता है, जिन यज्ञ पात्रों से विवाह का हवन करते हैं उन्हीं से अंत्येष्टि भी होती है। परस्पर विरोधी प्रक्रियाओं के कारण विरोधी तत्वों का आविर्भाव होता है और उनके प्रयोग से लाभ होना तो दूर उल्टे निष्फलता एवं प्रत्यवाय की ही आशंका रहती है। मन्त्र की ‘अयातयातमा’ शक्ति से परिचित व्यक्ति सीमित मर्यादा से विशेष शक्ति उत्पादन करते हैं तदनुसार उन्हें ही समुचित सफलता मिलती है।

सूत्रकारों ने मन्त्र में सन्निहित शक्तियों का ध्यान रखते हुए अमुक प्रयोजन में अमुक मन्त्रों का उपयोग करने का विधान किया था। अब कुछ विद्वान ऐसा करने लगे है कि जिस कार्य से जिस मंत्र का अर्थ कुछ संगति खाता हो उसी का उस कार्य में उपयोग कर डाला जाय। यह मनमानी उचित नहीं। शास्त्र मर्यादाओं का उल्लंघन करके मंत्रों की मनमानी घर जानी रीति खिलवाड़ नहीं की जानी चाहिए। जो विद्वान जिस मंत्र भाग के अधिकारी बनें-उन्हें उचित है कि प्रतिदिन निष्ठापूर्वक उन मंत्रों को अपने से जाग्रत रखने के लिये पाठकों-उपासना का क्रम जारी रखें। इसमें तनिक भी प्रमादन होने है।

मान्त्रिकों को इन्द्रिय निग्रही तथा तपस्वी होना चाहिये। इसके लिए ब्रह्मचर्य आवश्यक है। महाभारत में कथा है कि जब अश्वत्थामा पाण्डवों को नष्ट करने के लिये मंत्र चालित ‘संधान अस्त्र’ का प्रयोग करने लगा तब अर्जुन ने उसकी शाँति के लिये अन्य दिव्य अस्त्र छोड़ा। उन दोनों अस्त्रों के प्रज्वलित होने पर सम्पूर्ण विश्व में नष्ट होने की स्थिति उत्पन्न हो गई। तब व्यास जी दोनों अस्त्रों के प्रादुर्भूत हुये और उन्होंने उन अस्त्रों का शमन करने के लिये अर्जुन और अश्वत्थामा को कहा कि अपने-2 अस्त्रों को शाँत करो। अर्जुन ब्रह्मचारी था इसलिये उसने अपने शस्त्र को शाँत कर दिया पर अश्वत्थामा असफल रहा क्योंकि वह दुर्योधन की पत्नी के प्रति अचिन्त्य चिन्तन कर चुका था। समस्त जीवन नहीं तो कम से कम मंत्राराधन के समय तो तपस्वी और इन्द्रिय निग्रही रहना आवश्यक ही है। इसके बिना वह शक्ति उत्पन्न नहीं होती तो अभीष्ट प्रयोजन की सफलता के लिये आवश्यक है।

मन्त्र की शक्ति को समझना उसको रहस्य का साक्षात्कार करना, और विशेष साधना द्वारा उसे सिद्ध करना यही मंत्र साधकों का परमलक्ष होता है। जो इस मार्ग का अवलम्बन करते हैं वे सफल मनोरथ होते हैं। यजुर्वेद में उपाख्यान है कि- “नृमेध और “यरुच्छेप” नामक दो याज्ञिकों में विवाद हुआ कि देखें हममें से कौन सच्चा दृष्टा है। दोनों ने निश्चय किया कि जो गीले काठ में मन्त्र शक्ति से अग्नि उत्पन्न कर दे वही निष्णात माना जाय। नृमेध ने मन्त्र प्रयोग किया तो गीले काठ में से धुँआ मात्र निकला पर यरुच्छेप ने मन्त्रों से गीली लकड़ी प्रज्वलित हो गई अस्तु वही निष्णात माना गया। अपनी सफलता का कारण बनाते हुए यरुच्छेप ने कहा-हे नमेध तू केवल मंत्र के उच्चारण अर्थ और विधान को ही जानता है पर मैंने तो उसके सारे रहस्य को जाना है। यही मेरी सफलता का कारण है।

एक कथा इस प्रकार की भी है कि देवताओं ने यज्ञ का प्राशित्र भाग पूषा को खाने के लिये दिया। उसे खाते ही पूषा के दाँत गिर पड़े आप वह पोपला हो गया। फिर वही प्राशित्र यज्ञ भाग देवताओं ने बृहस्पति को खाने के लिये दिया बृहस्पति पहले तो पुषा के समान अपनी दुर्गति होने के भय से डरे पीछे उन्होंने उस मंत्र का आह्वान किया जो उस समय के लिए आवश्यक था। तदुपराँत वे उस यज्ञ भाग को खा गये और उनको कुछ भी हानि नहीं हुई। पूषा को उस मंत्र रहस्य के अनभिज्ञ होने के कारण ही अपने दाँत खोने पड़े।” कथा का तात्पर्य यह है कि मांत्रिकों को अपने विषय को सर्वांग पूर्ण जानकारी होनी चाहिये अन्यथा वे पूषा के समान हानि भी उठा सकते हैं।

यज्ञ में मंत्र प्रधान है। मंत्र का सदुपयोग यदि हो सके तो यज्ञों की सफलता में तनिक भी सन्देह नहीं रह जाता।


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