यज्ञ में मन्त्र शक्ति का महत्व

December 1955

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(श्री हु.च. राम शास्त्री हुलियार, मैसूर)

भारतीय संस्कृति का प्रतीक व आधार यज्ञ है। यज्ञ की सत्ता मन्त्र में है। मन्त्र यज्ञ का प्राण है, यों भी कहा जा सकता है यज्ञ, दान ओर तप कर्मयोग के प्रधान अंग माने गये है। इन तीनों में भी मन्त्र अपनी सत्ता रखती है। बिना मन्त्र के कोई यज्ञ, दान या तप सत्वशाली नहीं होता। मन्त्र ही भारतवर्ष का, भारतीय संस्कृति का प्राण है। दण्डनीति को भी मन्त्र की आवश्यकता है। यह भी कहा जा सकता है, मन्त्र के बिना जीवन ही नहीं-चाहे वह व्यष्टि का या समष्टि का-चल सकता।

मन्त्र आध्यात्मिक होता है। दर्शनों में कहा जाता है, मन्त्र शब्दात्मक है। कोई कहते हैं शब्द गुण है, और कोई द्रव्य। भारतीय पंचीकरण सिद्धाँत में तो शब्द मूल गुण है। यह पंचभूतों में अनुवर्तमान है। शब्द गुण है, उसका गुणी द्रव्य आकाश है। शब्द को वेद में वाक् भी कहा गया है-

चत्वारि वाक् परिमिता पदानि, तानि विदुर ब्रह्मणा ये मनीषिणः। गुहा त्रीणि विहिता नेंगयन्ति, तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति।।

वाक् चार प्रकार की होती है-परा, पश्यंती, मध्यमा, तथा वैखरी। मनीषियों को इन चारों ज्ञात होती हैं। अन्तःकरण में पहली तीन वाचाएँ रहती हैं, चौथी मनुष्यों की जीभ पर नाचती रहती है। महावैयाकरणि भर्तृहरि ने इनकी बड़ी तथा सूक्ष्म व्याख्या अपनी कृति, वाक्यपदीप में की है। कुछ उपनिषद् भी इसकी व्याख्या करती हैं।

कम्पन से ध्वनि उत्पन्न होती है। वायु के बिना ध्वनि नहीं कह सकता। निर्वायु पात्र में बजती घंटी को हम नहीं सुन सकते। वह तो घन, द्रव तथा अनिलों में चक्रमण करता है जैसे तरंग करते हैं। शब्द का वेग प्रायः सेकेण्ड में 1100 फुट का हैं शब्द कम्पनों को मृदु वस्तुओं पर अंकित करते हैं। इस तरह के शब्दाँक हमें फिल्म तथा रिकार्डो पर दिखाई देता है। शब्द तो प्रकाश में भी परिवर्तित किया जा सकता है। उस प्रकाश से या शक्ति से शब्द सुनाया जा सकता है यह सब आधुनिक विज्ञान की देन मानी जाती है। इसका यह मतलब है कि शब्द या मन्त्र दूसरे रूपों में परिवर्तित किये जा सकते हैं तथा मध्यवर्ती की सहायता से सफर भी करते हैं।

वह स्थूल भी है सूक्ष्म भी स्थूल कार्य है और सूक्ष्म कारण है। अतः शब्द से कार्यप्रपंच निकलता है। ऋचा कहती है-

देवीं वाचमजनयन्त देवास्ताँ, विश्वरूपाः पशवो बदस्ति। सा नो मंद्रेष्षमूर्ग दुहाना, धेनुर्वागत्यानुपसुष्टुवैतु।।

वाक् देवी है विश्वरूपा भी है। कार्यरूपिणी तो देवों की सन्तान है। पर वाक् ही देवों की जननी है। अतएव देवता मन्त्रात्मक ही है। मीमाँसकों का सिद्धान्त, इसी विज्ञान से प्रतिष्ठित है। इसी धेनु रूपिणी वाक् से हम जीते हैं, उसी को हम बोलते हैं और समझते हैं।

जो शब्द श्रव्य है तथा वाच्य है वह कार्य शब्द है, बैखरी शब्द हैं वह शब्द तो सूक्ष्म है दृश्य भी है, वह पश्यन्ती है, जो ज्ञेय है वही परावाक् कहलाती है। अतः वाक्-शक्ति ही ज्ञान-इच्छा का रूप भी है। इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति तथा क्रियाशक्ति में वाक् ही ओतप्रोत है। अंतर्दर्शन या तप से हमें सूक्ष्म शब्द की गति मिलती है। जिस उद्देश्य से, जिस श्रद्धा से हम अंतर्दर्शन करते हैं तब उसी के अनुरूपिणी बुद्धि हमें मानसकुहर में मिलती है। यही प्रक्रिया हमें यह मन्त्र कहता है-

पाक्का नः सरस्वती वाजभिर, बाजिनीवती, धीनामविऋयवतु।

वाक् तप से पावन करती है, पुष्टि करती है; बुद्धि की प्रचोदना करती है। तब वह भी-धी का अवन भी-वागात्मक ही होकर मन्त्र दर्शन कहलाता है। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के अंतर्दर्शन से इस गायत्री का लाभ हुआ, जिसका स्थूल रूप हमें मालूम है, जिसे हम जपते हैं। स्थूल सूक्ष्म में तथा सूक्ष्म स्थूल में परिवर्तित किया जा सकता है। तप से मन्त्र दर्शन सूक्ष्म से स्थूल शब्द को पाना है। एवं जप से मंत्र सिद्धि पाना ही स्थूल को सूक्ष्म में परिवर्तन करना है। इस तरह यह जपतपः प्रक्रिया होती है। यही हमारे ऋषि−मुनियों का अनूठा आविष्कार है। उन्होंने यन्त्र साध्य को भी मन्त्रसाध्य बनाया है। और मन्त्र के असाध्य को भी मंत्रसाध्य बनाया है।

वाक् हृदयस्पर्शी होती है वाक् स्पर्शानुभव भी देती है। वह रूपानुभव देती है। मन्त्र का रूपानुभव ही देवता साक्षात्कार है। वह रूपदर्शन के द्वारा रसानुभव, इसके बाद गन्धानुभव भी कराती है। इस तरह एक ही वाक् बहुरूपिणी है विश्वरूपिणी है। अतएव इसके वश में सारे देवता रहते हैं।

देवता मंत्र तथा एक विशिष्ट शक्ति के अभिमानी चेतन ही है। देव मूलतः एक है, वह प्रजापति है। देवमय तो अग्नि, वायु तथा सूर्य है। इन गणों में बाकी देवता आ जाते हैं अग्नि गण भू के देव हैं। वायु गण के भुवः अथवा अन्तरिक्ष देव होते हैं और सूर्य गण के तो स्वः अर्थात् द्यु लोक के देव होते हैं। अतः तीनों गणों के देवों के मंत्राभिमानी होने के कारण ये मंत्र इन तीन लोकों का माध्यम होते हैं इस माध्यम से मंत्रयोगी देवता का दर्शन करते हैं, उससे वार्तालाप करते हैं तथा उसकी सुखानुभूति में स्वयं संमग्न हो जाते हैं। इस मंत्र विज्ञान तथा देवता विज्ञान से वे तीनों लोकों की सहायता कर सकते हैं। ऐसे लोग कर्मयोगी है तीनों लोकों का संग्रह भी कर सकते हैं।

पहले यह कहा गया है कि मंत्र यज्ञ की आत्मा है। अब यज्ञ की महत्ता स्वयं जानी जा सकती है। जो यज्ञ ऐसी विशाल तथा विषद आत्मा रखता है वह क्या फल न दे सकता है? ऐहिक फल ही नहीं आमुष्मिक भी देते हैं यज्ञ इतना ही नहीं आत्मसाक्षात्कार में भी काम करता है। यह कूर्म पुराण में इस तरह कहा गया है-

ब्रह्मण्याध्याय कर्माणि निम्संग कामवर्जितः। प्रसन्नेनैव मनसा कुर्वाणो याति तत्पदम्।। इति यत्कुरुते बुध्द्या ब्रह्मार्पणमिदं परम।। श्रद्धा फलानाँ संन्यासं प्रकुर्यात्परमेश्वरे। कर्मणामेतदप्याहुः ब्रह्मार्पणमिदं परम्।। तस्मात्सर्वप्रयत्नेन त्यक्त्वा कर्माणि तत्फलम्। अविद्वानपि कुर्वीत कर्मणाप्नोति तत्फजम्।।

इस तरह यज्ञ प्रवृत्ति पर भी होता है। निवृत्ति पर भी। साधक जो चाहता है वह पाता है। जो अनन्त का इच्छु है वह अनन्त प्राप्त करता है, और जो निष्काम ही यज्ञ, दान, तथा तप करता है वह अकाम हो जाता है वाक्धेनु का वत्स क्या नहीं पाता?

क्या ऐसा या वायुशुद्धि नहीं करता क्या इस यज्ञ से पर्जन्य की कृपा नहीं बरसता? श्री भगवान का ‘यज्ञाद्भवति पर्जन्यः’ वाक्य क्या अवैज्ञानिक तथा अश्रद्धेय है? अवश्य यज्ञ से पर्जन्य प्राप्त करना वैज्ञानिक ही है। यह सिर्फ मिथ्या प्रतिज्ञा नहीं हो सकती। आधुनिक विज्ञानी लोग कृत्रिम वृष्टि के लिए जो वैज्ञानिक प्रयोग कर रहे है, सो सब जानते ही है। विमानों द्वारा लवणजल सेंकर या अनुकूल बात का प्रयत्न कर मेघों को आकर्षित करना ही वह साधन है न? अर्थात् विशिष्ट धूम का प्रसार अनुकूल वातावरण का निर्माण करेगा। क्या यह मंत्रपूत इच्छाशक्ति विशिष्ट चर्वाज्य सामिद्ध तथा सुवासित होम धूम वृष्टिकारक नहीं सकता! भला क्यों अतिवृष्टि न रोक सकता? जहाँ आधुनिक प्रयोग विफल हे वहाँ प्राचीन प्रयोग को वैज्ञानिक को अपनाना चाहिये। भारतीय वैज्ञानिकों का कर्त्तव्य है कि‍ वे या तथा मंत्र की विद्या अभ्यास करे और प्राचीन प्रयोगों पर अनुसन्धान और अनुशोधन करें।

विश्वामित्र जी ने जप होम परायणरूप मंत्र योग ही से अवरुद्ध से शस्त्रास्त्रों को पाया ओर सविता से गायत्री पायी। इसी यज्ञ शक्ति से प्रतिसृष्टि करने की ठानी उन्होंने किसी खभौतविज्ञानी के एकत्र लिखा है कि जरूर गायत्री मंत्रदृष्टा महर्षि विश्वामित्र एक बड़े भौतिक विज्ञानी थे। प्रागैतिहासिक यज्ञकर्ता तो अशक्य हो गये हैं। ऐतिहासिक सम्राटों में कइयों नाना यज्ञ किये हैं।

लिपि शब्द नहीं है, वह शब्द का चिन्ह मात्र है। अक्षर तो कर्मगम्य है अक्षर की लिपि तो चक्षुर्गभ्य है कुछ शब्द कुछ वस्तुओं पर अधिकार रखते हैं, प्रणव ब्रह्म पर अधिकार रखता है ‘लेखनी’ शब्द लेखनी पर, ‘राम’ शब्द दशरथ के पुत्र पर एवं “पाठक’ शब्द इन पंक्तियों के कृपया पढ़ने वाले आप पर उसी तरह ‘लेखक’ शब्द इन पंक्तियों के क्षुद्र रचयिता पर गहरा प्रभाव डालता है। अभिधान व अभिधेय तो भिन्न ही होते हैं, सो श्री शंकराचार्यजी ने श्री माण्डूक्यभाष्य के आरंभ में कहा है। अतः कुछ अक्षरों के उच्चारण शरीर के कुछ खास नाडियों पर परिणाम करते हैं। इन उच्चारणों की सक्रमता से नाडी सम्पन्न होती है, और उनकी अक्रमता से विपन्न हो जाती है। इसी के कारण ‘ग्लाण्ड’ या ग्रन्थि पैदा होकर शरीर को दुर्बल बनना पड़ता है। ओज की श्रीवृद्धि भी शब्दोच्चारण से प्राप्त होती है। ओज ही जीव धातु है, जीवाणु है। गुणाणु भी शब्दों से प्रभावित होते हैं अतएव यह सिद्ध होता है कि शब्द या मंत्र से स्वास्थ्य पाया जाता है तथा रोग भी। गायत्री का अनुलोम पाठ पोषक है पर विलोम पाठ नाशक है। उसी के विशिष्ट सम्पुटीकरण से वशीकरण तथा और किसी सम्पुट लगाने से विवशीकरण किया जाता है। यह सब ‘गायत्री महाविज्ञान’ के पाठक भली भाँति जानते ही है।

मंत्र जैसे व्यष्टि में अर्थात् पिण्डाण्ड में प्रभाव करता है उसी तरह ब्रह्माँड या समष्टि में भी समष्टि के सब कुछ व्यष्टि में निहित है सूक्ष्मतया। व्यष्टि का विराट रूप ब्रह्माँड हैं यह तथ्य तो प्रत्येक पुराण से ज्ञात होता है और चिंतन से भी। इससे यह सिद्ध होता है कि विश्व की शाँति या अशान्ति मंत्र से पैदा की जा सकती हैं जहाँ वैदिक मंत्र कैसे विफल या दुर्बल हो जाता है? तस्मात् मंत्र तथा मंत्रात्मा यज्ञ पर विश्वशाँति निर्भर हो सकती है न? यज्ञ शाँतिकारक तथा पुष्टिकारक होता है, सो सब कर्मकाण्डी जानते हैं।

इस तरह मंत्र शक्ति तो अघटित घटनापटीयसी है। ज्ञानी का मंत्र जाप दूसरों पर संवेग तथा अज्ञानी का मंत्ररटन उन पर उद्वेग ही पैदा कर देता है। यह शक्ति अणु शक्ति से कई गुना बढ़ कर है, यह अत्युक्ति या अन्धोक्ति नहीं है। माता श्रुति कहती है-

विष्णुमुखा वे देवाइछन्दोभि रिमान्लोकानन पजप्यमभ्यजपन्।

इन्हीं मंत्रों से दवों ने न हटाये जाने वाले लोकों को जीत लिया। वे देव विष्णुमुख हैं। अतः मन्त्रशक्ति पर शंकित होना तो केवल मानसिक दुर्बलता है अथवा उसकी विजिज्ञासा में रहती हुई अश्रद्धा है। वे अपनी विचार शक्ति की वंचना कर रहे है।

पूर्णाहुति का एक मंत्र कहता है- आज्य तो देवों की जिव्हा है, वह अमृतवाणी है। जो समुद्र से जो लहरें उठती है उन्हें वह अमृत बनाता है। वही घृत भूतल तथा हृदयतल पर अमृत बरसाता है।

मंत्र अक्षरात्मक, पदात्मक तथा वाक्यात्मक होते हैं। वह गद्य भी है पद्य भी है। कुछ तो केवल साँकेतिक रहते हैं। मंत्रों के अक्षरों के बारे में कुछ कहा गया है। पद ओर वाक्यों को तो सब जानते ही है। अक्षर तथा पदों का जो क्रम होता है वह बढ़ी ही महत्ता रखता है। वाक्यरचना भी मंत्र में अपना खास, प्रभाव मिलाती है। पदरूप मंत्र तो छन्दोवद्ध होते हैं। इसी कारण से सारे वेद-खासकर ऋग्वेद-छन्द कहलाते हैं। छन्द में नाद की विशेषता होती है। जहाँ पद, वाक्य प्रभाव न डाल सकते वहाँ केवल नाद ही असर डाल सकता है। यह विचार हर एक संगीताभिमानी भी जानता है। कोई गान या राग किसी काल में विशेष शक्तिशाली होता है, और कोई राग रोगशमन करता है। दूसरा कोई दीप जलाता है तो और एक पानी भी बरसाता है मंत्र या ऋचा से देवता का आवाहन करते हैं। गान या साम से देवता-शक्ति का उपग्रहण किया जाता है। तब यजु से हवि अर्पित किया जाता है। गान संस्कार भी करता है जैसे कि सीमन्तोन्नयन में जो कि गर्भिणी का संस्कार है, वीणा वादन कराया जाता है। वीणा पर मंत्र का गान ही तो बताया जाता है।

छन्द मंत्र का मुख्य अवयव होता है। गायत्री छन्द से ब्राह्मण का जन्म होता है। त्रिष्टुप तो क्षत्र को जन्म देता है, और जगती वैश्व जननी है- यह श्रुति का कहना है। तंत्रों में जो मंत्र है वे प्रायः संकेतात्मक तथा गद्यरूप होते हैं। उनमें भी छन्द है। परमहंसों का मंत्र प्रणव है। प्रणव भी छन्दोवद्ध है। यह मंत्रवेत्ता भली भाँति जानते हैं।

वैदिक धर्म में ही नहीं, दूसरे भारतीय धर्मों में भी छन्द की महत्ता होती है। जैन लोग मन्त्रों से अभिषेक करते हैं, बौद्ध लोग मन्त्रों से अभिषेक करते हैं, बौद्ध लोग भी कुछ मन्त्रों से तारा की उपासना करते हैं। इसी तरह नवाज में भी मंत्र है। मुसलमान कहते हैं कि कुरान की भाषा में जो स्वर हैं वे बड़े महत्वपूर्ण होते हैं गिरजाघरों में भी छन्दोगान सुनाई देता है। इस तरह छंदोवद्ध मंत्र का विज्ञान व उपयोग बड़ा व्यापक है।

सकाम मन्त्र साधना तो विधि विधान के साथ ही की जाती है। इस विधि में यह तो जानना चाहिए कि वह काम सत्य है या असत्य। निष्काम-साधना भी सक्रम ही होनी चाहिये। अक्रम या व्युत्क्रम सकामना से या तो निष्कामना से करे हानि पहुँचाता ही है। कुतूहल के लिए अथवा मन्त्रशक्ति की परीक्षा के लिए साधना नहीं करनी चाहिए कुमारी कुन्ती का कुतूहल तो महाभारत का कारण हुआ। अतः मंत्र साधना में गुरु की प्रधानता होना परमावश्यक है और श्रेयस्कर है गुरु की कृपा से मन्त्र वीर्यवान हो जाता है!

तद्बिष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरय

दिवीव चक्षुराततम्।। ॐ

यज्ञ में प्रयुक्त होने वाले सभी तत्वों में मन्त्र की शक्ति सर्वोपरि है। इसलिए यज्ञ में मन्त्रों का प्रयोग पूर्ण सावधानी से ही किया जाना उचित है।


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