(श्री. कण्ठ जी विद्वान्, मैसूर)
प्राचीन काल में यज्ञ भगवान् की वेदानुमोदित उपासना करने वाले सभी अग्निहोत्री अपने यहाँ अखण्ड अग्नि की स्थापना रखते थे। जिस प्रकार मन्दिरों में भगवान् की मूर्ति स्थापित करके समय समय पर उसकी पूजा अर्चना की क्रियायें की जाती हैं और प्राण-प्रतिष्ठा के उपराँत उस मूर्ति को मन्दिर में ही स्थापित रखा जाता है उसी प्रकार यज्ञ उपासकों के लिए यज्ञशाला रूपी मन्दिर में अग्निरूपी देव प्रतिमा को निरन्तर स्थापित रखने और उसकी देव अर्चना की भाँति प्रातः, सायं अग्निहोत्रियों के यहाँ पीढ़ी दर पीढ़ी यह अखण्ड अग्नि सुरक्षित रखी जाती थी। उसे बुझने न देने के लिए अग्निहोत्री परिवार के सभी लोग पूरा-2 ध्यान रखते थे। यह अग्नियाँ जिसके यहाँ जितनी पुरानी होती थी वह अपने को उतना ही साधना धन का धनी समझता है और संसार में अपनी निष्ठा के अनुरूप प्रतिष्ठा प्राप्त करता था।
जिस प्रकार माता परिवार में अन्य कार्य करती हुई भी अपने नन्हें शिशु का सदा ध्यान रखती है और उसे सभी अनिष्टों से बचाती हुई पाल−पोस कर युवा बनाती है उसी प्रकार अग्निहोत्री भी अपनी यज्ञाग्नि की सुरक्षा पर निरन्तर ध्यान रखकर एक प्रकार से प्रभु चिन्तन करने वाले योगी या मन्दिर में पूजा करने वाले सच्चे पुजारी की भाँति अपने मनः क्षेत्र में यज्ञ भगवान की प्रतिष्ठा किए रहता है। निरन्तर नियमित रूप से उपासना की हुई अग्नि की सूक्ष्म आध्यात्मिक विशेषता दिन दिन उसी प्रकार बढ़ती रहती है जैसे पौष्टिक पदार्थों का सेवन करती हुई कलिका दिन-दिन विकसित होती हुई बलवान एवं परिपुष्ट युवती बनती जाती है उसी प्रकार यज्ञ कुँड में विराजमान अग्नि भी प्रतिदिन घी मेवा, मिष्टान्न हविष्यान्न तथा नाना प्रकार का गुणवान औषधियाँ खा-खा कर प्रचण्ड शक्ति सम्पन्न भवानी का साक्षात् आकार ही बन जाती है। उसके प्रभाव से अनेक अनिष्ट रोग, शोक, क्लेश, कलह, पाप, ताप, अनायास ही नष्ट होते हैं।
जिस प्रकार सोने, चाँदी, हीरा, मोती आदि की भस्म अनेक रोगों को दूर करने में समर्थ होती है, उस प्रकार यह ‘यज्ञ भस्म’ भी किसी बढ़िया से बढ़िया औषधि की अपेक्षा कम महत्वपूर्ण सिद्ध नहीं होती, इसके उपयोग से जहाँ अनेक शारीरिक रोग दूर होते हैं वहाँ उन्माद, मंद बुद्धि, उत्तेजना, आवेश, कुबुद्धि आदि मानसिक रोगों का भी निवारण होता है। अनेक रोगों में भी यह ‘यज्ञ भस्म’ बड़ी उपयोगी सिद्ध होती है। मस्तक पर यज्ञ भस्म का तिलक लगाने से आलोज्ञाचक्र, सहस्र-कमल, ब्रह्मरंध्र, सुषुम्ना संस्थान आदि अनेकों सूक्ष्म आध्यात्मिक केन्द्रों का विकास होता है। हृदय पर यज्ञ को लगाने से सूर्य चक्र जागृत होता है और अन्तः करण चतुष्टय में से तामस तत्व घटते एवं सात्विक तत्व बढ़ते स्पष्ट दृष्टि गोचर होते हैं।
लाठी चलाने वाले लोग अपनी लाठी को तेल में डुबो-डुबोकर उसको मजबूत बनाते हैं। कहते हैं जो लाठी जितना तेल पी जाती है वह उतनी ही मजबूत हो जाती है। घी, दूध में काम आने वाले मिट्टी के बर्तन जितनी चिकनाई पी जाते हैं उतने ही उपयोगी बन जाते हैं। यज्ञ की अग्नि भी जितना घी पी लेती है उतनी ही बलवान बन जाती है। इसलिए यह विधान मिलता है कि किसी को अग्निहोत्र करना हो उसे किसी के यहाँ से चिर उपस्थित अग्नि लाकर उससे अपना हवन करना चाहिए।
नहीं बालक और अधेड़ आयु के पुरुष में जो अन्तर होता है वही अन्तर तुरन्त उत्पन्न की गई और चिरसेवित अग्नि में भी रहता है। बालक को दिया हुआ दान उतना फलप्रद नहीं होता जितना वयोवृद्ध को, क्योंकि बच्चे की अपेक्षा वयोवृद्ध मनुष्य निश्चय ही दान के सदुपयोग की जिम्मेदारी को अधिक अच्छी तरह समझता है और वह उस दानदाता का अधिक उपकार करने में भी समर्थ होता है। यही कारण है कि नित्य का साधारण अग्निहोत्र ही नित्य प्रज्वलित की हुई अग्नि में कर लिया जाता है पर किन्हीं महान् आयोजनों के लिए चिरसेवत अखण्ड अग्नियों की आवश्यकता पड़ती है। ऐसी अग्नि की अपेक्षा सत्परिणाम उपस्थित करने में समर्थ होती है।
अब लोग आलस्य और अश्रद्धा के कारण अखण्ड अग्नि का महत्व भूल गये हैं और फास्फोरस, गन्धक आदि दुर्गन्धित अशुद्ध पदार्थों से बनी हुई दियासलाई से जलाई हुई अग्नि से हवन कर लेते हैं, प्राचीन काल में यज्ञ प्रेमी लोग अरणि मंथन, सूर्यकाँत मणि आदि के द्वारा अग्नि प्रज्वलित करते थे। अखंड अग्नि की उपासना सनातन धर्म के अनुसार तो आवश्यक है ही। आर्य-समाज के संस्थापक महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती भी उसकी उपयोगिता को मानते थे उन्हें प्रेरणा देकर शाहपुर नरेश से अखंड अग्नि स्थापित कराई थी जो अब तक विधिवत् संपूजित हो रही है। देश में अभी अखंड अग्नि रखने वाले अग्निहोत्रियों का सर्वथा अभाव नहीं हुआ है। कुछ नैष्ठिक उसे विधिवत् रखते हैं पर इनकी संख्या उँगलियों गिनने लायक है।
अखंड अग्नि की भाँति अखंड दीपक की भी महानता असाधारण है। शुद्ध घी से अखंड दीपक जलता रखने से एक प्रकार का घृत हवन निरन्तर अपने आप होता रहता है। ऐसा दीपक जिस स्थान पर प्रकाश करता है। वह स्थान एक नित्य अदृश्य प्रकाश ज्योति से प्रदीप्त रहता है, उसके निकट बैठकर की हुई उपासना विशेष फलवती होती हैं। यों तो सामान्य अनुष्ठानों के समय भी घृत का दीपक जलता रखा जाता है पर विशेष अनुष्ठानों में तो उसे रखने की ही प्रतिष्ठा है। यह भी एक प्रकार से अखंड अग्नि की स्थापना ही है। वरन् उससे भी कुछ अधिक है। क्यों कि अखंड अग्नि तो केवल हवन के समय ही प्रज्वलित की जाती है पर दीपक तो निरंतर प्रकाशवान रहकर उस वातावरण में दिव्य प्रकाश को भरता है। अग्नि में दो ही वार हवन होता है। पर दीपक में अहिर्निश हवन होता रहता है। अग्नि की अखंडता में झंझट, खर्च और देखभाल साज-सम्भाल कम है, दीपक को अखंड रखने में यह सभी बातें अधिक करनी पड़ती हैं- साथ ही उसी झंझट एवं खर्च के अनुपात से उसका महत्व भी अधिक है।
जन्म सूतक के समय आने वाली अनिष्ट कर आशंकाओं की निवृत्ति, एवं सुरक्षा प्रर्सूतिग्रह में 10 दिन अखंड अग्नि रखने से हो जाती है पर किसी की मृत्यु हो जाने पर उस मृत्यु स्थल पर अखंड दीपक ही जालना पड़ता है क्योंकि मृत्यु के समय उस मृत शरीर में से निकले हुये शारीरिक रोग कीटाणु तथा मन की वेदना, पीड़ा, छटपटाहट, करुणा, मोह, शोक आदि के प्रभाव को नष्ट करने में अखंड दीपक की विशेष शक्ति की ही आवश्यकता पड़ती है। उसके बिना वह मृत सूतक का स्थान शुद्ध नहीं हो पाता, ऐसी अशुद्धि वाले घरों में ही प्रायः भूत बाधा, भय, दुःस्वप्न, मृगी उन्माद, अपस्मार आदि रोगों से बने रहते हैं। और उस घर में रहने वालों का शारीरिक एवं मानसिक उद्वेग आक्रमण करते हैं। पितृ शाँति कर्मों में दीपक अनिवार्य होता है। यज्ञ, कीर्ति, अनुष्ठान, ब्रह्मभोज की पाकशाला आदि में घृत दीपक जलाये जाते हैं। आरती में दीपक आवश्यक है। गड्ढा आदि नदियों के तट पर लोग दीपक जलाते हैं। दिवाली तो दीपकों का त्यौहार है। व्यापक रूप से अखंड दीप का त्यौहार मना कर हम दरिद्रता की व्यापक शक्ति को घटाने एवं लक्ष्मी शक्ति का बल बढ़ाने का पुनीत आयोजन करते हैं। यह उद्देश्य मोमबत्ती या बिजली जलाकर प्राप्त नहीं कर सकते। पारसी लोगों की अखंड अग्नि की महत्ता को भली प्रकार समझा है उनके धर्म में “अखंड अग्नियों, को देवमूर्ति की तरह स्थापित किया जाता है और बड़ी श्रद्धा एवं योजना के साथ स्थिर रखा जाता है।
अखंड अग्नि और अखंड दीपक के लाभ अपरिमित हैं। उन्हें कोई भी व्यक्ति परीक्षा करके अनुभव कर सकता है। यज्ञ प्रेमियों के लिये यह तो आवश्यक प्रक्रिया है। जो लोग अपने यहाँ अखंड अग्नि या अखंड दीपक रखना चाहें वे उसकी सुरक्षा एवं पूजा की विधि मथुरा आकर क्रियात्मक रूप में सीख सकते हैं। क्योंकि गायत्री तपोभूमि जिस दिन से स्थापित हुई है उसी दिन से अखंड अग्नि वहाँ रहती है और “अखंड ज्योति” प्रेस में अखंड दीपक सदैव जलता रहता है।