यज्ञ द्वारा रोग निवारण

December 1955

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(ले0 डाक्टर कुन्दनलाल अग्निहोत्री भू0पू0 मेडिकल आफीसर-बरेली)

प्रभु की अमृत वाणी वेद की अवहेलना करने तथा आसुरी सभ्यता को अपनाने के कारण आज रोगों का राजा राजयक्ष्मा (टी0बी0) हमारे देश में बराबर बढ़ता चला जा रहा है और आधुनिक वान उसको दूर करने में अब तक असफल रहा है जिसे उच्च कोटि के वैज्ञानिक, डाक्टर, स्वयं स्वीकार करते हैं जैसा कि निम्नलिखित, प्रमाणों से सिद्ध होता है।

1- “राजयक्ष्मा तथा उससे बचने के उपाय” नामी लघु पुस्तक जो लखनऊ मेडिकल कॉलेज को क्षय निवारण समिति द्वारा प्रकाशित हुई है। हमें बताती है कि:-

क- “राजयक्ष्मा यदि एकबार हो जावे तो जान लेकर पीछा छोड़ता है।”

ख- “बढ़े रोग में धन्वंतरि वैद्य भी रोगी को काल के मुख से बचाने का सामर्थ्य नहीं रखते।”

2- डा0 मोलर साय भू0पू0 कमिश्नर “ऑल इंडिया ऐन्टी टयुबरक्लोसिस ऐसोसिएशन देहली, का कहना है- “अभी तक किसी ऐसी औषधि का आविष्कार नहीं हुआ है जो शरीर के भीतर यक्ष्मा-कीटाणुओं शरीर को बिना हानि पहुंचाये मार सके।

3- डा0 यज्ञेश्वर गोपाल भी खंडे बी.एस.सी.बी.बी.एस.एस.डी. (वेल्स) मेडिकल सुपरिंटेंडेंट भुवाली सेनीटोरियम लिखते है-

क- “क्षय रोग की अचूक चिकित्सा करने वाला तो अभी पैदा होना है”। ‘यह ध्यान में रखना चाहिए कि क्षय-रोग को अच्छा करने का कोई भी उपाय अभी तक नहीं निकाला गया है।”

ख- “आधुनिक विज्ञान से रोगी का पूर्ण रूप से आरोग्य होना असम्भव है।”

4- इस रोग में आधुनिक विज्ञान की असमर्थता सबसे बड़ा और प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि उसके द्वारा सरकारी अनेकों उपाय होते हुए भी देश में जहां पहले रोगियों की संख्या हजारों पर थी वहाँ अब लाखों पर पहुँच गई है और ग्रामों तक में रोग पहुँच गया है। जिस क्षय चिकित्सा में आधुनिक विज्ञान इतनी विवशता प्रकट करता है उसी की चिकित्सा का वेद भगवान कितने आशा पूर्ण शब्दों में आदेश देता है यह आगे पढ़ें-

1-मुच्चामि त्वा हविषा जीवनाय कमज्ञात यक्ष्मादुत राजयक्ष्मात्।

ग्राहि र्जग्राह यद्येतदेनं तस्या इन्द्राग्नी प्रभुमुक्त मेनम्।। अथर्व का, सू, 11 मं, 1।।

अर्थ- हे व्याधि ग्रस्त! तुमको सुख के साथ चिरकाल तक जीने के लिए गुप्त यक्ष्मा रोग ओर सम्पूर्ण प्रकट राजयक्ष्मा रोग से आहुति द्वारा छुड़ाता हूँ। जो इस समय में इसी प्राणी को पीड़ा ने या पुराने रोग ने ग्रहण किया है उससे वायु तथा अग्नि देवता इसको अवश्य छुड़ावें।

इससे अगला मंत्र इस प्रकार है:-

यदि क्षितायुर्यंदि वा परे तो यदि मृत्योरन्तिकं नीत एवं। तमा हरामि निऋतेरुपस्थादस्पार्शमेनंशतशारदाय ।।

अथर्व का0 3 सूक्त 11 मन्त्र 2।।

अर्थ-यदि रोग के कारण न्यून आयु वाला हो, अथवा इस संसार के सुखों से दूर हो, चाहे मृत्यु के निकट आ चुका हो ऐसे रोगी को भी महारोग के पाश से छुड़ाता हूं। इस रोगी को सौ शरद ऋतुओं तक जीने के लिये प्रबल किया है।

और देखिये:-

विसवैते जायान्य जानं यतो जायान्त जायसे। कथंह तंत्र त्वं हनो यस्य कृणामो हवि र्गृह।।

अथर्व का 7 वर्ग 76 मं0 5 ।।

अर्थ-हे छय-रोग तेरे उत्पन्न होने को विषय में हम निश्चय ऐ जानते हैं कि तू जहाँ से उत्पन्न होता है तू वहाँ किस प्रकार हानि कर सकता है। जिसके घर घर में हम विद्वान नाना औषधियों से या रोग नाशक हवि, या चरु को बना कर उससे अग्नि-होत्र कहते हैं अर्थात् रोग नाशक हवि, चरु या अत्र द्वारा क्षयरोग को निकाल डालने पर सब प्रकार से छय रोग दूर हो जाता है।

तर्क और वैज्ञानिक परीक्षणों से यह वेद वाक्य कैसे पूर्णतया सत्य सिद्ध होता है यह आगे बताया जाता है:-

1—सब विद्वान जानते हैं कि स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म अधिक शक्तिशाली होता है तथा सूक्ष्म स्थूल में प्रवेश कर सकता है। आटे में मिली हुई बूरा के सूक्ष्म परिमाणु पृथक करने को मनुष्य की स्थूल उँगलियाँ असमर्थ हैं पर चींटी का सूक्ष्म मुँह उसे सुगमता से पृथक कर सकता है। सोने का एक छोटा टुकड़ा मनुष्य खा ले तो उस पर कोई प्रभाव न होगा पर उसी टुकड़े को सूक्ष्म करके वर्क बना कर खावें तो कुछ शक्ति आवेगी ओर यदि सूक्ष्म करके अर्थात् भस्म बनाकर खावे तो प्रथम दिन से ही उसकी गर्मी अनुभव होगी ओर कुछ समय में चेहरे पर लाली और शरीर में शक्ति आ जावेगी।

होम्योपैथिक चिकित्सा विधि में इसी नियम के आधार पर औषधियों की पोटेन्सी तैयार की जाती है और औषधि का भाग जितना सूक्ष्म होता जाता है उतनी ही उसकी शक्ति बढ़ती जाती है यहाँ तक कि जो औषधि स्थूल रूप में दिन में बार 2 खाने से साधारण रोग दूर कर सकती है। वही औषधि बहुत सूक्ष्म रूप में केवल एक मात्रा खाने से बड़े बड़े जीर्ण रोगों को दूर कर देती है।

इस नियम पर दृष्टि रखते हुए विचार कीजिये कि क्षय कीटाणु की लम्बाई 1/15000 इंच और चौड़ाई 1/150000 इंच होती है। इतनी सूक्ष्म चीज पर बड़े कारण वाली औषधियों की पहुँच जब न हुई तब वैज्ञानिकों ने उनका सूक्ष्म रूप करने को इन्जेक्शन की प्रथा चलाई पर यह सब जानते हैं कि अग्नि से अधिक पदार्थों को सूक्ष्म और कोई ढंग नहीं कर सकता। हम नित्य ही देखते हैं कि एक लाल मिर्च की जिसे स्थूल रूप में एक आदमी सुगमता से खा सकता है यदि खरल में घोटने लगे तो पास बैठे अनेकों मनुष्यों को खाँसी आने लगेगी अब यदि उसी मिर्च को आग में डाल दे तो उसकी घास का प्रभाव दूर-2 तक बैठे मनुष्यों पर हो जावेगा। इसी प्रकार हवन यज्ञ में डाली औषधियों के परमाणु बहुत बारीक होकर श्वाँस द्वारा सीधे फेफड़ों में जाकर रोग-कृमियों को मारते और छतों में भरते हैं और रोग छिद्रों द्वारा सीधे रक्त में प्रवेश करके रक्त को शुद्ध कर देंगे। इसके वैज्ञानिक परीक्षण किये गये तो ज्ञात हुआ कि लोग, जायफल इत्यादि जलाने पर गैस के तेलों के परमाणु 1/10000 से 1/100000000 तक सेन्टीमीटर व्यास वाले पाये गये। अतः रोग-कृमि से अधिक सूक्ष्म होने के कारण सुगमता से उनके भीतर प्रवेश कर सकते हैं और अपने वैज्ञानिक गुण के कारण उनको मार सकते हैं।

2—यह भी पदार्थ विद्या से सिद्ध हो चुका है कि किसी पदार्थ का नाश नहीं होता केवल रूप बदल जाता है। अतः अग्नि में हवि जलाने से उसके परमाणु भी सूक्ष्म हो जाते हैं उनका नाश नहीं होता। गूगल, घी, कपूर इत्यादि क्षत भरने वाले हैं पर स्थूल रूप में हम उनसे फेफड़ों के क्षत भरने का कार्य नहीं ले सकते पर अग्नि में जलाकर उनके सूक्ष्म परमाणु सुगमता ओर सरलता से फेफड़ों में पहुँचा सकते हैं।

3—यजुर्वेद के 40 वे अध्याय के प्रथम मन्त्र में संसार को ‘जगत्यामि जगन्’ बताकर इस सिद्धाँत का ज्ञान प्रभु ने कराया है कि जगत् का प्रत्येक परमाणु गतिशील है। आज के वैज्ञानिक भी परीक्षण के पश्चात् इस सिद्धान्त को सत्य स्वीकार करते हैं। और साथ ही यह भी बताते हैं कि यह गति ऊटपटांग नहीं किंतु किसी नियम में बँधी हुयी है। प्रत्येक परमाणु की गति एक सही नहीं होती किन्तु किन्हीं की एक दूसरे के विपरीत तथा समान वस्तुएं एक दूसरे को अपनी और खींचती है और दो विरुद्ध वस्तुयें ऐ दूसरे को भगाती है अतः जिन दो वस्तुओं के परमाणु एक सही गति करते हैं उनमें परस्पर आकर्षण होता है और विरुद्ध गति वाले परस्पर एक दूसरे को दूर भगाते हैं।

इस नियम के आधार पर जो लोग शरीर में सड़न उत्पन्न करने वाले पदार्थ, माँस, तम्बाकू इत्यादि प्रयोग करते हैं उनके निकट जब क्षय कीटाणु पहुँचते हैं तो समानता के कारण उनका शरीर अपनी और उन्हें खींच लेता है पर जो लोग गूगल, लौंग, घी इत्यादि क्षयनाशक पदार्थों से हवन यज्ञ करके उनके सूक्ष्म परमाणु अपने शरीर में रखते हैं तो क्षय कीटाणु उनके निकट आते हैं तब विरुद्ध गति होने के कारण वह दूर भाग जाते हैं। इसी कारण नित्यप्रति नियमपूर्वक यज्ञ करने वाले को कभी क्षय रोग नहीं हो सकता।

4—क्षय के सब विशेषज्ञ डाक्टर इस बात को स्वीकार करते हैं की क्षयरोगी को अधिक मात्रा में ओषजन युक्त वायु की आवश्यकता होती है। इसी कारण असाध्य रोगी को भी पहाड़ पर जाने की सम्मति दी जाती है और बहुत से असाध्य दीखने वाले रोगी इस प्राकृतिक ढंग से अच्छे भी हो जाते हैं क्योंकि ओषजन फेफड़ों के ओर आँतों के क्षतों को शीघ्र सुखाने की शक्ति रखता है, साथ ही ओषजन की रगड़ से शरीर में अग्नि उत्पन्न होकर पाचन शक्ति को बढ़ाती है जो क्षय रोगी में न्यून हो जाती है। इस ओषजन का एक और सूक्ष्म भाग ओजोन (OZone) होता है जो बहुत धीमी सुगन्ध से शरीर में प्राणशक्ति का संचार करता है। जिस पहाड़ पर चीड़ के वृक्ष अधिक होते हैं उस पर ओजोन (Ozone) का यह भाग अधिक पाया जाता है। वैज्ञानिक ढंग पर परीक्षण करके देख लिया गया है कि हवन गैस में ओजोन (Ozone) का यह भाग बड़ी मात्रा में पाया जाता है जिनको इस परीक्षण का विस्तृत हाल जानना हो वह हमारी लिखी पुस्तक ‘यज्ञ-चिकित्सा’ अथवा श्री डा0 सत्य प्रकाश जी डी.एस.सी. प्रोफेसर इलाहाबाद विश्वविद्यालय की अंग्रेजी पुस्तक ‘अग्नि-होत्र’ पढ़े जिसमें उन्होंने हवन यज्ञ की वस्तुओं के आधुनिक विज्ञान के द्वारा परीक्षण करके गुण लिखे है।

5—क्षयी का अर्थ है- क्षीण करने वाला रोग बहुत से चिकित्सक रोगी के शरीर का भार घटने बढ़ने से ही अवनति और उन्नति की जाँच करते हैं। हम लोग फुफ्फुस देखने का यन्त्र जब कभी स्वस्थ मनुष्य की छाती पर लगाते हैं तो भीतर जाने वाली श्वांस की लंबाई बाहर निकलने वाली श्वास की अपेक्षा तीन गुना अधिक सुनाई देती है। जिसका मतलब यह है कि आय अधिक और व्यय न्यून होने से शरीर अधिक दिनों तक कायम रहेगा किन्तु क्षय रोगी की श्वास की लंबाई इसके विपरीत होती है अर्थात् भीतर जाने वली श्वास की लम्बाई कम और बाहर निकलने वाली आधिक। इसका मतलब साफ है कि आय कम और व्यय अधिक होने के कारण शीघ्र प्राणों का दिवाला निकलने वाला है। इस प्राण शक्ति को बढ़ाने के लिए डा0 लोग रोगी को खूब खाने और आराम से पड़े रहने की सम्मति देते हैं पर जैसा कि ऊपर बताया गया है मन्दाग्नि के कारण रोगी अधिक और पौष्टिक भोजन पचा नहीं सकता। इसी कारण बहुत से रोगियों को दस्त आकर उनकी मृत्यु हो जाती है। संसार के अनन्त वैज्ञानिकों के पास कोई ऐसी औषधि नहीं है कि जो क्षय रोगी को पौष्टिक पदार्थ अधिक मात्रा में पचा दे पर हवन यज्ञ में हम हलुवा, लड्डू, खीर, मेवा, घी इत्यादि सभी पदार्थ बड़ी से बड़ी मात्रा में जला कर उनके सूक्ष्म परमाणु रोगी के रक्त में पहुंचा सकते हैं जो नाश न होने वाले वैज्ञानिक सिद्धांत से शरीर में पहुंच कर उसकी प्राणशक्ति को बढ़ावेंगे और अग्नि को मन्द करने के स्थान में अपने ओषजन के गुण से और तीव्र करेंगे। अनुभव से देखा गया है जो रात दिन सुस्त पड़े रहकर मौत की प्रतीक्षा करते थे वही यज्ञ चिकित्सा करने पर कुछ दिनों में उत्साह और शक्ति का प्रदर्शन करने लगे।

इसके पक्ष में अनेकों युक्तियां दी जा सकती हैं पर विस्तार में न जाकर अब हम वैज्ञानिकों के कुछ परीक्षण लिखते हैं:-

1- मद्रास के अंग्रेजी काल के सेनीटरी कमिश्नर (Sanitary Commissioner) डा0 कर्नल किंग आर0एम0एस0 ने वहाँ प्लेग फैलने पर कालेज के विद्यार्थियों को उपदेश दिया कि घी, चावल और केसर मिलाकर जलाने से तुम रोग से सुरक्षित रहोगे।

2- फ्राँस के विज्ञानवेत्ता प्रोफेसर टिलवर्ट साहब कहते हैं कि जलती हुई खाँड़ के (शक्कर) धुँये में वायु शुद्ध करने की बड़ी शक्ति है। इससे हैजा, तपेदिक, चेचक इत्यादि का विष शीघ्र नष्ट हो जाता है।

3- डा0 टाटलिट साहब ने मुनक्का, किशमिश इत्यादि सूखे फलों को जलाकर देखा है और मालूम किया है कि इनके धुयें से टाइफ़ाइड ज्वर के कीटाणु केवल आध घंटे में और दूसरे रोगों के कीटाणु घंटे दो घंटे में समाप्त हो जाते हैं।

4- फ्राँस के हेफकिन साहब जिन्होंने चेचक के टीके का आविष्कार किया है, कहते हैं कि घी जलाने से रोगकृमि का नाश हो जाता है।

5- कविराज पं0 सीतारामजी शास्त्री अपनी पुस्तक में लिखते हैं “मैंने कई वर्षों की चिकित्सा के अनुभव से निश्चय किया है कि जो महारोग औषध भक्षण करने से दूर नहीं होते वह वेदोक्त यज्ञों द्वारा (अर्थात् यज्ञ-चिकित्सा से ) दूर हो जाते हैं।

6- लेखक स्वयं प्रथम 25 वर्ष तक खोज और परीक्षण के पश्चात् आय 26 वर्ष से क्षय रोग की चिकित्सा यज्ञ द्वारा सैकड़ों रोगियों की कर चुका है उनमें ऐसे रोगी भी थे जिनके क्षत (Cavity) कई 2 इंच लम्बे थे और वर्षों सेनीटोरियम और पहाड़ा पर रहने पर भी अन्त को डाक्टरों ने असाध्य बता दिया पर वह यज्ञ चिकित्सा से पूर्ण अरोग्य होकर अब वह अपना कारबार कर रहे हैं।

7- 6 अप्रैल, 1955 ई॰ के अंग्रेजी पर लीडर में “New Core for T.B.of Lunsh” शीर्षक समाचार छपा है। जिसका सारांश यह है:-

बम्बई में एक अमेरिकन डा0 ने यह बताया है कि वैज्ञानिक लोग कई शताब्दी से इस बात की खोज में लगे थे कि सूँघने की गैस से फेफड़े की टी0बी0 को अच्छा किया जावे अब हम लोग उस खोज में सफल हो गये हैं और अमरीका में इसका परिणाम सब ही चिकित्साओं की अपेक्षा असाधारण तोर पर अच्छा रहा हैं। गैस सूँघने से धीरे-2 रोगी बिल्कुल अच्छा हो जाता है:- इसका अर्थ यह है कि आज अमरीका भी इस यज्ञ की साइन्स को सब चिकित्सकों से बेहतर मानने लगा है पर अभी उसे यह पता नहीं कि सूँघने में कौन औषधियों और कौन ढंग सबसे उत्तम है। यदि आज भारत सरकार ऋषियों के इस प्राचीन ढंग को विज्ञान की दृष्टि से अपनाये अथवा कोई यज्ञ प्रेमी इस विज्ञान का कोई इस कोटि का चिकित्सालय बनवा दे। जिस पर विदेशियों की दृष्टि जा सके तो वह दिन दूर नहीं कि अमरीका इंग्लैंड इत्यादि में भी वैदिक ढंग से यज्ञ होने लगे।

इस विषय में आयुर्वेद का मत:-

प्रयुक्तया यथा चेष्टया राजयक्ष्मा पुराजिता।

ताँ वेद विहिता मिष्टमारोग्यार्थी प्रयोजयेत् ।।

चरक चि0 स्थान अ॰ श्लोक 12

जिस यज्ञ के प्रयोग से प्राचीन काल में राजयक्ष्मा रोग नष्ट किया जाता था आरोग्यता चाहने वाले मनुष्य को उसी वेद विहित यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिए।

चरक ने क्षय चिकित्सा में खाने की औषधि तथा अवगाहन अर्थात् जल-चिकित्सा इत्यादि के उपाय वर्णन करने के पश्चात् उपरोक्त श्लोक द्वारा यज्ञ का विधान बताकर क्षय-चिकित्सा का विपथ समाप्त किया है। इसका अर्थ यह है कि क्षय रोग के लिए ‘यज्ञ-चिकित्सा’ को ऐसा महत्वपूर्ण उपाय समझा है कि इसके पश्चात् किसी अन्य उपाय की आवश्यकता नहीं रहती। यज्ञ को जहाँ धार्मिक दृष्टिकोण से अन्य ऋषियों ने नित्य कर्म के पंच यज्ञों में माना है वहाँ आयुर्वेद के लगभग सभी प्रामाणिक ग्रंथों ने हवन का नित्य की दिनचर्या में सम्मिलित किया है। इसका वैज्ञानिक प्रभाव क्या और कैसे पड़ता है, यह बताकर इस समय इस लेख को समाप्त करेंगे।

प्राचीन आयुर्वेद प्रभु की अमृत वाणी वेद के आधार पर वेद का ही उपवेद है अतः पूर्णतया प्राकृतिक नियमों पर आधारित हैं। उसका सिद्धान्त यह है कि जिस प्रकार समस्त, विश्व भगवान ने पंचतत्व (अग्नि, जल, वायु, प्रकाश, पृथ्वी) से बनाया। इसी प्रकार मनुष्य का शरीर भी इन पंचतत्वों का सम्मिश्रण है। जिससे वात, पित्त, कफ तीन दोष बनते हैं और जिनकी सम अवस्था में रहने से कोई रोग नहीं होता। त्रिदोष की विकृतावस्था ही रोग का कारण है। यह विकृतावस्था जहाँ खान, पान, व्यायाम, विषय भोग इत्यादि की अनियमितताओं से होती है वहाँ बाहर के वायुमंडल अत्यन्त सर्दी, गर्मी, वर्षा की अनियमितता भी इस पर बड़ा प्रभाव डालती है। गर्मी से पित्त, सर्दी से कफ, सुगन्धि और दुर्गन्धि से वायु विशेष प्रभावित होती है। सूर्य के आदान कर्म अर्थात् पृथ्वी से जल खींचने की शक्ति ओर चन्द्रमा के विसर्ग अर्थात् रसों को पृथ्वी पर छोड़ने के कर्म तथा वायु के विक्षेप कर्म अर्थात् इधर उधर भ्रमण कर्म से संसार स्थित है और इन कर्मों में गड़बड़ होने से वायुमंडल में ऋतु और मनुष्य शरीर में बात, पित्त और कफ बिगड़कर रोग उत्पन्न करते हैं। एक बात और है कि सूर्य प्राणशक्ति का पुंज है। प्राण शक्ति सूर्य से ही वायु ग्रहण करती है। जिस प्रकार हमारे फेफड़े अशुद्ध रक्त को साफ करके शरीर में शुद्ध रक्त का संचार करते हैं उसी प्रकार संसार भर की अशुद्ध और दुर्गन्धि वायु में से नमी को खींच कर सूर्य भगवान शुद्ध करके हमें प्राणशक्ति प्रदान करते हैं और चन्द्रमा को भी सूर्य भगवान ही अमृत प्रदान करते हैं। फेफड़ों को यदि बड़ी मात्रा में ओषजन युक्त वायु मिले तो कम काम करना पड़ता है इससे वह पुष्ट होते हैं पर यदि दुर्गन्धित वायु अधिक पहुँचे तो कार्य भार अधिक होने से वह निर्बल हो जाते हैं, इन सब नियमों को ध्यान में रखते हुये जरा गम्भीरता से विचार करें कि सृष्टि कम के अनुकूल सब पशु पक्षी कुछ दुर्गन्धित वायु में उत्पन्न करते हैं। अतः उसी के प्रतिकार करने को भगवान ने उसी अनुताप से सुगन्धित फूल इत्यादि उत्पन्न कर दिये ताकि सूर्य भगवान को कार्य अधिक न करना पड़े क्योंकि पशु पक्षी अपनी केवल भोग योनी होने के कारण स्वयं कोई सुगन्धि उत्पन्न नहीं कर सकते पर मनुष्य की कर्म ओर भोग दोनों प्रकार की योनि होने के कारण इसे कर्म करने में स्वतंत्र किया है तथा बुद्धि और वेद ज्ञान देकर आज्ञा दी है कि तुम जो दुर्गन्धि उत्पन्न करते हो उसके निवारण तथा अपने जीवनोद्देश्य मुक्ति की प्राप्ति के निमित्त जगत के उपकार के दृष्टि से नित्य प्रति हवन यज्ञ किया करो ताकि तुम देवताओं के ऋणी न रहो। ऐसा करने से सूर्य भगवान को जहाँ मनुष्यों से उत्पन्न हुई दुर्गन्धित की शुद्धि करना पड़ती है वहाँ यज्ञ से उत्पन्न हुई सुगन्धि से वह तृप्त होकर प्राण शक्ति का अधिक संचार करते हैं जिससे हमारा स्वास्थ्य, बल तथा जीवन बढ़ता है जब हम भगवान की इस आज्ञा का पालन नहीं करते तो आजकल की भाँति रोगों की वृद्धि होती है और वर्षा भी नियमानुकूल न होने से अकाल पड़ते हैं और वनस्पतियाँ शक्तिहीन हो जाती है जिससे और भी रोग बढ़ते हैं। इसी बात को गीता में भगवान कृष्ण ने इस प्रकार कहा है:-

प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजा को रचकर कहा, कि इस यज्ञ द्वारा तुम लोग वृद्धि को प्राप्त होओ और यज्ञ तुम लोगों को इच्छित कामनाओं का देने वाला होवे तथा-

देवान्भावयतानेन से देवा भावयन्तुवः।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।

गी0अ0 3 श्लोक 11

अर्थ- तथा तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो ओर वे देवता लोग तुम लोगों की उन्नति करें इस प्रकार आपस में कर्त्तव्य समझकर उन्नति करते हुये परम कल्याण को प्राप्त होओगे। इत्यादि।

अतः वेद, शास्त्र, युक्ति, प्रणाम, प्राचीन व नवीन सब ही प्रकार के विज्ञान तथा परीक्षण से सिद्ध है कि यज्ञ द्वारा रोग निवारण होता है जिनकी इच्छा हो स्वयं परीक्षण करके देख ले।

प्राकृतिक नियमों के साथ नित्य प्रति नियमपूर्वक हवन करने वाला कदापि रोगी नहीं हो सकता यह हमार दृढ़ मत है। और क्षय रोग तो उसके घर के निकट आने से घबरायेगा क्योंकि श्रुति का आदेश है:-

न तं यक्ष्मा अरुन्धते नैन शपथको अश्नुते।

यं मेषजस्यं गुग्गुलोः सुरभिर्गन्धो अश्नुते।।

विष्वश्चस्तस्माद् यक्ष्मा मृगाद्रश्या द्रवेरते ।। आदि

अथर्व0 का 19 सू0 38 मं0 1.2

अर्थ-जिसके शरीर को रोग नाशक गूगल का उत्तम गन्ध व्यापता है उसको राज-यक्ष्मा की रोग पीड़ा नहीं होती। दूसरे का शपथ भी नहीं लगता। उससे सब प्रकार के यक्ष्मा-रोग शीघ्रगामी हरिणों के सम्मान काँपते हैं, डर कर भागते हैं।


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