संवेदना शक्ति का विकास कीजिए।

October 1950

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(श्री स्वामी कृष्णानन्द जी महाराज, केकडी,)

एक विषय-लोलुप मनुष्य दिन में 1-3 या 4 समय स्वादिष्ट भोजन पेट भर भले ही कर ले, परंतु मन की तृप्ति न होने पर भी अधिक समय या अधिक परिमाण में भोजन बार-बार नहीं कर सकेगा। ऐसे ही अन्य विषयों के सेवन में भी मर्यादा रहती है। इन विषयों के प्रत्येक पदार्थ पर बार-बार मर्यादा रखने पर भी उपरामता आ जाती है और नये-नये पदार्थों की वासना तैयार हो जाती है, जिससे सर्वदा मन चिंतातुर और दुःखमय ही रहता है परन्तु दया आदि दैवीसंपत्तिजन्य सुखों में मर्यादा नहीं है। उन्हें जितने परिमाण में बढ़ाओ, उतने ही बढ़ सकते हैं। जन्मप्रभृति मरण पर्यंत दैवी वृत्ति का विकास कदापि दुःखप्रद नहीं होता अपितु सुखप्रद ही होता है। कदाचित प्रारम्भ में सुख अप्रतीत हो, तथापि परिणाम में सुख ही मिलता है।

जैसे पाठशाला में प्रवेश करने वाले विद्यार्थियों को पहले-पहले अ, क, ख आदि अक्षरों के शिक्षण का लाभ अनुभव में नहीं आता, किन्तु ज्ञान वृद्धि के पश्चात समाजसेवा और परमार्थिक कल्याण के कार्य करने लगता है, तब उसे ‘इस शिक्षण से ही लाभ मिला है” ऐसा निश्चय हो जाता है। वैसे ही धृति, दया, क्षमा, भक्ति, प्रीति, उदारता आदि वृत्तियों से होने वाला भावी लाभ प्रथम समझ में न आवे, तो भी ज्ञान वृद्धि होने पर दैवी-वृत्तियों के सुख का अनुभव होने लगता है।

दीन जनों को सहायता, पीड़ितों की सुश्रूषा स्वदेश और स्वधर्म की सेवा, विश्व वात्सल्यता, इत्यादि संवेदना शक्ति के विकास के लिए सहायक साधन माने गये हैं। इन सब कर्त्तव्यों से शारीरिक और मानसिक शक्ति का विकास होता है, बुद्धि की संकीर्णता और स्वार्थान्धता नष्ट होकर विश्व के प्राणी मात्र के साथ साम्यता, मैत्री का अनुभव होता है ऐसा होने पर ही हृदय की संवेदना शक्ति की उन्नति मानी जाती है।

दूसरों के दुःख का असर होना इसको दया कहते हैं। अथवा दुःखी जीवों के प्रति जो प्रीति-भाव रखा जाता है, उसको दया कहते हैं। इस दयावृत्ति से संवेदना-शक्ति की उन्नति होती है। दयावृत्ति का भक्ति और प्रीति के साथ अतिघनिष्ठ सम्बन्ध है। जो मनुष्य प्राणीमात्र के अंतःकरण में ईश्वर का निवास मानकर भक्ति करता है वही सबसे प्रेम भाव रख सकता है, और उसी से दूसरों का दुःख नहीं देखा जाता। दूसरों के दुःख को देखकर उसको अपने अंतर में दुःख का असर होता है, जिससे तत्काल हृदय द्रवीभूत होकर अपने अंतर के दुःख की निवृत्ति के लिये दुःखी प्राणी की सहायता करने के लिये तत्पर होता है। अतः भक्ति से प्रीति और दयावृत्ति की पुष्टि होती है। तद्वत् प्रीतिवृत्ति उत्पन्न होगी तभी मनुष्य भक्ति और दया करते हैं, जब दयावृत्ति होगी, तब ही भक्ति और प्रीतिवृत्ति स्पष्ट बनेगी इस रीति से इन तीनों वृत्तियों का परस्पर संबंध है। इसी हेतु से सज्जन विवेकी जन दूसरों के प्रति दया रखते हैं। इस विषय में नीतिकार कहते हैं, कि :-

प्राणी यथात्मनाँ·भीष्टा भूतानामपि ते तथा।

आत्मौपम्येन भूतेषु दयाँ कुर्वन्ति साधवः॥

जैसे अपने को अपना जीवन प्यारा है वैसा ही अन्य प्राणी मात्र को है। अतः दूसरों को अपने आत्मा के समान समझ कर सज्जन लोग सर्वदा दया करते ही रहते हैं।

दया, भक्ति और प्रीति इन वृत्तियों का विकास परोपकार करने से ही होता है। परोपकार करने पर अन्तर में जो सुख उत्पन्न होता है, वह सुख संसार की सर्वोत्तम सुन्दरी के सहवास से भी नहीं मिल सकेगा, ऐसा प्राचीन नीतिकारों का कथन है। परोपकार करने से दयावृत्ति का जितना अधिक विकास होता जायेगा, उतने अंश में सुख शान्ति भी संबंधित होती जायेगी।

प्रीति कर भोजन, गुलाबादि पुष्पों की सुवास, नाटक देखना, पति पत्नी सम्मिलन, मनोहर गीत श्रवण इत्यादि विषयों से जो आनन्द मिलता है यह चन्द मिनटों में ही विसर्जित हो जाता है तब सज्जनों का समागम, धार्मिक ग्रंथ का मनन, शरणागत रक्षण, दीन जनों पर दया, पीड़ितों की शुश्रूषा, स्वदेश या स्वधर्म की सेवा, विश्व प्रीति भक्ति, ईश्वरोपासना इत्यादि कर्तव्यों से मिलने वाला आनन्द सकाम भाव से किया जाय तो घन्टों पर्यन्त बना रहता है। और यदि इस विश्व सेवा आदि कर्मयोग का पालन निष्काम भाव से करते रहने का स्वभाव हो जाए, तो निरन्तर आनन्द का नशा बना ही रहता है। इस रीति से आनन्द की जाति और स्थिरता में अंतर रहता है। इनमें से विवेकी जन विचार शक्ति द्वारा विवेक करके तुच्छ विषयों के आनन्द का त्याग करते हैं और अपनी संवेदनावृत्ति के अनुकूल क्रमशः अधिकाधिक श्रेष्ठ कोटि के आनन्द की जिज्ञासा करते हैं।

महर्षि व्यास के जीवन चरित्र से अवगत होता है कि आपने विश्व कल्याण में ही अपने सुख को तिलाँजलि देकर सारा जीवन विश्वसेवा में ही समर्पित किया था। आपके निष्काम परिश्रम से ही वेदों का रक्षण हुआ, स्मृति, महाभारत और पुराणों की रचना हुई। एवं भारत की प्राचीन संस्कृति आज भी सजीव दिखाई दे रही है। इसी हेतु से व्यास भगवान को श्रद्धालु ग्रन्थकारों ने बार-बार नमस्कार किये हैं। श्री मद्भगवद्गीता के माहात्म्य में लिखा हैं कि :-

नमो·स्तु ते व्यास विशाल बुद्धे!

फुल्लार विंदायतपत्रनेत्र।

येन त्वया भारततैल पूर्णः

प्रज्वालितो ज्ञानमयः प्रदीपः॥

हे कमल नेत्र के समान सुन्दर नेत्र वाले। महा बुद्धिमान! व्यास-भगवन्, आपने भारत रूपी तैल को भर कर ज्ञान रूप दीपक जलाया है, अतः आपके प्रति नमस्कार है।

विवेकी जनों को निबिड़ अज्ञानान्धकार से आच्छादित ऐहिक, पारलौकिक, कर्त्तव्यपथ से गमन करने के समय यदि ज्ञान दीपक के प्रकाश का अभाव हो, तो भ्रम, प्रमादवश पथच्युत होकर गर्त में गिरने की और काम, क्रोध, मोहादि रात्रिचर असुरों की फैली हुई मायापाश के पाश में फंसकर, संचित धर्म धन लुट जाने की भीति रहती है।

इस नीति का सद्ज्ञान प्रदीप द्वारा निवारण करने वाले लोक सेवी व्यास जी तथा अन्य ऐसे ही परमार्थी दयालु सज्जन निस्संदेह वन्दनीय हैं।


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