सन्तों की अमृत वाणियाँ

October 1950

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मर जाऊँ माँगू नहीं, अपने तन के काज।

परमारथ के कारणे, मोहि न आवे लाज॥

कबीर यह मन मसखरा, कहूँ तो माने रोस।

जा मारग साहिब मिले, ताहि न चाले कोस॥

कबीर सो मुख धन्य है, जेहि मुख निकसे राम।

देही किसकी बापुरी, पवित्र होय सब ग्राम॥

बात बनाई जग ठग्यो, मन परबोध्यों नाँहि।

कबीर यह मन रे गया, लख चौरासी माहि॥

कबीर मन मैला भया मन में बहुत विकार।

यह मन कैसे धोइयो, साधो करो विचार॥

गुरु धोबी शिष कापड़ा, साबुन सिरजनहार।

सुरत सिला पर धोइये, निकसे रंग अपार॥

यह तो गति है अटपटी, झटपट लखे न कोय।

जो मन की खटपट मिटै, चटपट दशन होय॥

साधू भया तो क्या हुआ, माला पहरी चार।

बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भँगार॥

दाड़ी मूछ मूडाय कर, हो गया घोटम घोट।

मन को क्यों नहि मूडिये, जो में भरी है खोट॥

रात गँवाई सोय कर, दिवस गँवायो खाय।

हीरा जन्म अमल था, कौडी बदले जाय॥

इस दुनिया में आय कर, छोड़ देय तू एंठ।

लेना होय सो जल्द ले उठी जात है पैंठ॥

अजगर करै न चाकरी पक्षी करै न काम।

दास मलूका यो कहै सबके दाता राम॥

कबीर सब जग निरधना, धनवंता नहिं कोय।

धनवन्ता सोई जानिये, जाके राम नाम धन होय॥ कबीर ते नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और।

हरि रुठे गुरु मेलसी, गुरु रुठे नहिं ठौर॥

मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर।

तेरा तुझ को सौंपते, क्या लागत है मोर॥

हरिजन तो हारा भला, जीतन दे संसार।

हारा तो हरि से मिले, जीता यम के द्वार॥

गोधन, गजधन, बाजिधन और रत्न धन खान।

जब आवै संतोष धन, सब धन धूल समान॥

एक घड़ी आधा घड़ी, आधी में पुनि आध।

भोखा संगति साधु का, कटें कोटि अपराध॥

करत करत अभ्यास के, दुर्मति होत सुजान।

रसरी आवत जात ही शिल पर करत निशान॥

भोजन छादन का नहीं सोच करें हरिदास।

विश्व भ्रमण प्रभु करते है ऐसा क्या रहें निरास॥

जननी जन तो भक्त जने, के दाता के शूर।

नाही तो तू बोझ रह, काहि गँवावैं नूर॥

गिरह गाठ नहि बाधते, जब दवे तब खाहि।

गोबिन्द तिन पाछे फिरें, मत भूख रह जाहि॥


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