जीवन के तीन स्तम्भ

October 1950

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(आचार्य श्री सुरेन्द्र मोहन जी, बी.ए.)

महर्षि चरक ने स्वास्थ्य प्राप्त के उपायों का वर्णन करते हुए एक स्थान पर लिखा है :-

त्रयः अपस्त भा इत्याहारः स्वप्नों ब्रह्मचर्यमिति,

एंभिस्त्रिमिर्युक्तै रुपस्तब्धनुपस्तंभः शरीरं।

बलवर्णोपचितमनुवर्त्तते यावदायुः संस्कारात्

संस्कार महितमनुपसेवमानस्य, य इहैवोपदेयश्ते॥

आहार, स्वप्न (निद्रा) और ब्रह्मचर्य- यह तीन जीवन के स्तम्भ हैं। जो मनुष्य इन तीन स्तम्भों से निज शरीर को इनको युक्तियुक्त प्रयोग करके धारण करता है, वह बल और वर्ण से उपचित (पुष्ट) हुआ 2 आयुपर्यन्त सुखी रहता है। अहित संस्कारों को सेवन नहीं करना चाहिए।

प्रथम स्तम्भ -

जीवन का प्रथम स्तम्भ आहार है। शरीर आहार से ही बनता है। जो कुछ भी हम खाते हैं, उससे हमारा रस, माँस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य बनता है। जैसा आहार हम करेंगे, उसके गुणानुसार ही हमारे यह धातु बनेंगे। यदि आहार में अहितकर पदार्थ होंगे तो हमारे रसादि धातु दूषित होकर नानाविधि रोगों की उत्पत्ति करेंगे। यदि आहार अच्छे और प्रकृति के अनुकूल द्रव्यों से युक्त होगा, तो रसादि धातु ठीक परिमाण में और अच्छे उत्पन्न होंगे और स्वास्थ्य स्थिर रहेगा, तथा शरीर में बल वर्ण की वृद्धि होगी। अच्छा आहार भी मात्रा से एवं ठीक परिणाम में और समय पर खाना चाहिए। चरक ने कहा है :-

हिताशी स्यान्मिताशीस्यात्कालेभोजी जितेन्द्रियं।

पश्यन्रोगान् बहूनकष्टन् बुद्धिमान् विषमाशनादिवि॥

अर्थात् मनुष्य को हित वस्तुओं का सेवन करना चाहिए। मित अशन (आवश्यकतानुसार परिमित मात्रा में खाना) समय पर भोजन करना और जितेन्द्रिय रहना-यह सब कुछ मनुष्य के लिए आवश्यक है, क्योंकि विषमाशन (नियम विरुद्ध भोजन करने) से घोर रोग उत्पन्न होते हैं।

द्वितीय स्तम्भ -

दूसरा स्तम्भ है निद्रा। यह भी मनुष्य के लिए बड़े कल्याण की वस्तु है। जिस प्रकार ईश्वर ने दिन रात उत्पन्न किए हैं, इसी प्रकार परमात्मा ने प्राणियों के लिए स्वप्न और जागरण दो दशाएं नियत की हैं। रात्रि विश्राम करने के लिए है और दिन कार्य करने के लिए है। जो लोग अति लोभ वा अन्य कारणों से रात्रि को जागते हैं, वह अपनी आयु का ह्रास करते हैं और अनेक रोग उन्हें लग जाते हैं। कुछ तो पागल भी हो जाते हैं। क्या हम यूनिवर्सिटी की परीक्षा के दिनों में नहीं देखते कि कुछ लड़के बहुत रात तक वा सारी रात बैठे रहते हैं और अगले दिन उन्मत्त से होकर वा शिरोवेदना के कारण परीक्षा में नहीं बैठ सकते वा बैठ कर कुछ नहीं लिख सकते। यदि वह रात्रि को विश्राम करें, तो अगले दिन मस्तिष्क स्वच्छ होने से लड़के परचे अच्छी प्रकार कर सकते हैं। रोगियों को यदि निद्रा न आवे, तो रोग बढ़ता है। यदि निद्रा आवे तो रोग घटता है। जिन्हें निद्रा पूर्ण मात्रा में नहीं आती, उन का स्वास्थ्य भी विकृत हो जाता है। जैसे अन्धे “बाबा” आँखें बड़ी नियामत हैं कहते रहते हैं, वस्तुतः निद्रा भी बड़ी नियामत है। इसे व्यर्थ में नष्ट करने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए।

पुनः अतिनिद्रा भी स्वास्थ्य के लिए अहितकर है। जो लोग निश्चित होकर बहुत सोते हैं, उन्हें स्थ्यौल्य (मोटापन), प्रतिश्याय (जुकाम), मधुमेह आदि अनेक रोग हो जाते हैं। बहुत सोना अच्छा नहीं। निद्रा का सामान्य नियम भी ध्यान में रखें, अर्थात् रात्रि को जल्दी सोएं और प्रातः काल सवेरे उठकर बाहर भ्रमणार्थ जावें। सूर्योदय होते समय सर्वप्रथम रश्मियों का प्रकाश ग्रहण करें। वह बहुत स्वास्थ्यवर्धक होती है। श्री वागभट्ट ने कहा है :-

‘ब्रह्म मुहुत्ते उत्तिष्ठेत् स्वस्थो रक्षार्थ मायुषः।’

स्वस्थ मनुष्य को ब्रह्म मुहूर्त (घड़ी रात रहते) में आयु की रक्षा के लिए उठना चाहिये। यह नियम रोगियों के लिए नहीं वह देर तक सो सकते हैं। रात को जल्दी सोना और प्रातः सवेरे उठना मनुष्य को आरोग्य और धन दोनों देता है।

तृतीय स्तम्भ -

तीसरा स्तम्भ ब्रह्मचर्य है। इसे वीर्य रक्षा भी कहा जाता है। वस्तुतः इस का अर्थ है “ब्रह्मणि चयर्तिकनेनेति ब्रह्मचर्यम्”-अर्थात् ब्रह्म में विचरना ही ब्रह्मचर्य है। जो व्यक्ति ब्रह्म को सर्वव्यापक और सर्वश ज्ञान कर विचारता है, वह वीर्य नाश जैसा अपराध कहाँ कर सकता है। वीर्य रक्षा केवल ब्रह्मचारियों के लिए ही नहीं, प्रत्युत विवाहितों के लिए भी आवश्यक है। जो विवाहित पुरुष वीर्य का व्यय ध्यान से करता है, वह भी महर्षि चरक के कथनानुसार ब्रह्मचारी कहलाता है। वीर्य रक्षा से, हृदय और मस्तिष्क दोनों सबल रहते हैं। ब्रह्मचारी मनुष्य कष्ट के समय में नहीं घबराता। बड़ी बड़ी समस्याओं को सुगमता से हल कर सकता है।


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