विवेक वाटिका के सुवासित पुष्प

October 1950

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(श्री मनोहर दास अग्रावत, उम्मेदपुरा)

1-जो नदी मर्यादा छोड़ कर चलती है यह अपना ही तट खिसका कर गंदली होती है और तट के वृक्षों को गिराकर अपनी ही शोभा बिगाड़ती है।

-भगवान श्री रामचन्द्र,

2-जिस प्रकार दवा के बिना बीमारी को सहन करना कठिन है, उसी प्रकार ज्ञान के बिना साँसारिक प्रभुता संभालना भी दुस्साध्य है। मनुष्य चारों ओर अज्ञान से घिरा हुआ है, इसलिये वह भोग-लिप्सा में पड़ जाता है।

-महात्मा बुद्ध,

3-सत्य बात का विश्वास करो और पापों का तिरस्कार करो, जो शब्द सच्चे हृदय से नहीं निकलते हैं उनका न निकलना ही अच्छा है।

-महात्मा बुद्ध,

4-चित्त से निरन्तर परमात्म तत्व का चिन्तन करते रहो, अनित्य धन की चिन्ता छोड़ दो। क्षण भर के साधु संग को भी भवसागर से तारने के लिये नौका स्वरूप समझे।

- श्री शंकराचार्य,

5-जिस वस्तु के नाश से बड़ा दुःख होता है उसके प्राप्त होने से पूर्व सुख या दुःख कुछ भी नहीं होता। अतएव उसकी प्राप्ति के पूर्व की अवस्था को ध्यान में रखकर मन को दुःखी नहीं करना चाहिये।

- देवर्षि नारद,

6-जीवित अवस्था में शरीर को लोग देव (नरदेव भूदेव) शब्दों से पुकारते हैं। परन्तु मर जाने पर उस शरीर के या तो (सड़ जाने पर) कीड़े हो जाते हैं या (जला देने पर) राख हो जाती है, अथवा (पशु आदि के खाने पर उनकी) विष्ठी बन जाती है, ऐसे शरीर के लिये जो मनुष्य दूसरे प्राणियों से द्रोह करता है जिससे नरक की प्राप्ति होती है वह क्या अपने स्वार्थ को जानता है?

देवर्षि नारद,

7-संसार में न तो कोई किसी का मित्र है, न शत्रु है। जो मनुष्य किसी को अपना शत्रु मान कर उस पर क्रोध करते हैं वे वास्तव में अपनी ही हानि करते हैं, संसार विष्णुमय है। शरीर का एक अंग दूसरे अंग का शत्रु कैसे हो सकता है।

प्रह्लाद,

8-गंगा सागर में मिलने के लिये जाती है परन्तु जाती हुई जगत का पाप ताप निवारण करती और किनारे के पेड़ों को पोसती जाती है। अथवा सूर्य भगवान नित्य परिक्रमा करते हुये संसार का अंधकार दूर करते और कमलों को विकसित करते जाते हैं। इसी प्रकार आत्म-ज्ञानी सन्त अपने सहज कर्मों से संसार में बँधे बन्दियों को छुड़ाते, डूबे हुओं को निकालते और आर्तों का दुःख दूर करते रहते हैं।

श्री ज्ञानेश्वर,

9-परद्रव्य और परनारी की अभिलाषा जहाँ हुई वहीं से भाग्य का ह्रास आरम्भ हुआ। बड़े बड़े इनके चक्कर में मटियामेट हो गये इसलिए इन दोनों को छोड़ दे, इसी से अन्त में सुख पावेगा।

-श्री तुकाराम,

10-काम, क्रोध, मद और लोभ जब तक मन में बसे हैं तब तक पंडित और मूर्ख दोनों ही एक समान हैं।

गोस्वामी तुलसीदास,

11-स्वयं ठगाओ, दूसरों को न ठगो, ठगाने से सुख उत्पन्न होता है और ठगने से दुख।

(देश देशान्तरों से प्रचारित, उच्च कोटि की आध्यात्मिक मासिक पत्रिका)

वार्षिक मूल्य 2॥) सम्पादक - श्रीराम शर्मा आचार्य एक अंक का।)


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