स्वस्थ शरीर से आत्म कल्याण की प्राप्ति।

October 1950

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(डॉ. लक्ष्मी नारायण टंडन ‘प्रेमी’ एम. ए. साहित्य-रत्न, एन. डी.)

शरीर रोग का मन्दिर है-यह बात गलत है। शरीर स्वास्थ्य का घर है। रोग तो हमारी गलतियों और अज्ञानता का परिणाम है। ऊपर कहे हुए वाक्य का केवल यही मतलब है कि यदि हमने प्रकृति का विरोध किया, हमारे खानपान तथा रहन सहन में अस्वाभाविकता आई तो शरीर में रोग घुलते देर नहीं लगेगी। शरीर को रोगी बनाना तथा स्वस्थ रखना बहुत कुछ हमारे हाथ में है।

शरीर की साधारण अवस्था स्वास्थ्य है। यदि हम तनिक सा ध्यान रखें तो स्वस्थ रह सकते हैं। हम प्रायः मोटे और गठीले बदन के लोगों को स्वस्थ समझते हैं पर अक्सर ढोल में पोल होती है। प्रायः ऐसे लोगों के शरीरों में भी विदेशीय पदार्थों तथा मलों का भार होता है। यह दूसरी बात है कि प्राण तत्व की अधिकता के कारण उनके कुप्रभाव को हम जान न सके।

आये दिन जुकाम, खाँसी, कब्ज से पीड़ित मौसम बदलने पर ढीले मनुष्य स्वस्थ नहीं कहला सकते। स्वस्थ मनुष्य की एक साधारण पहचान है उसका पैखाना। यदि न बहुत कड़ा न पतला, बँधा हुआ एक मोटी बत्ती के रूप में हल्का भूरा और हरा एक मिनट के अन्दर ही एक साथ टट्टी घर में जाते ही पैखाना हो जाय और गुदा-भाग वैसा ही साफ रहे जैसा कि स्वस्थ पशुओं का पैखाना होने के बाद रहता है। उसे जल से शौच लेने या कागज से पोंछने की आवश्यकता न पड़े (मेरा तात्पर्य यह नहीं है कि शौच जल से न लिया जाय) तो हम उस मनुष्य को स्वस्थ समझ सकते हैं।

अस्वास्थ्य क्या है ?

शरीर में किसी प्रकार का विकार होना चाहे वह प्रकट हो या अप्रकट हम उसे जानें या न जानें वह ही अस्वास्थ्य है। रोग का प्रकट अप्रकट, तीव्र, मंद तथा नाशात्मक किसी रूप में होना रोग तथा अस्वास्थ्य का लक्षण है। शरीर संबंधी विकार ही अस्वास्थ्य के द्योतक नहीं है। हमें क्रोध अधिक आता है, हम निराशावादी हैं, हम चिड़चिड़े हैं, हमारी बुद्धि मंद है, हमारी मानसिक तथा मस्तिष्क संबंधी दशाएं भी सूचित करती हैं कि हम अस्वस्थ हैं। वास्तविक स्वस्थ मनुष्य दुष्कर्म तथा अवांछनीय कर्म कर ही नहीं सकता। झूठ, फरेब, बेईमानी, ढोंग आदि सबके भीतर यही अस्वस्थता का कारण है।

यह रोग तथा अस्वास्थ्य क्यों ?

बिना किसी कारण के कोई कार्य नहीं होता। भले ही प्रयत्न करने पर भी हम अपने रोग और स्वास्थ्य का कारण समझ न पावें किन्तु प्रकृति परम न्यायी है। ईश्वर हमें रोग के रूप में व्यर्थ दण्ड नहीं देता। पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध ने हमारा मस्तिष्क और हृदय ही नहीं बदल दिया है, हमारा खान-पान, रहन-सहन यहाँ तक कि सोचने, विचारने का ढंग भी बदल दिया है। हम अपने आहार-विहार तथा कार्य व्यवहार में सुधार करना ही नहीं चाहते। हम कूप मंडूक ही रहना चाहते हैं। (बंधे बंधाये जैसा ही हो रहा है वैसा ही) नियमों में परिवर्तन ही नहीं करना चाहते, हम सोचने समझने से ही इंकार कर देते हैं। यही सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। समय की गति के साथ आवश्यक परिवर्तन उचित ही है किन्तु जब तक हम अपने को बहुत अंशों में अपने आदर्शों पर वापिस नहीं लायेंगे हमारी दयनीय दशा में सुधार असम्भव है।

हमारे अस्वास्थ्य का प्रमुख कारण भोजन है। बिना इस विचार के भोजन करना कि वह हमारे शरीर के उपयुक्त है या नहीं, यही वास्तव में रोग और अस्वास्थ का प्रमुख कारण होता है। हम नित्य भोजन करते हैं। अलग अलग जो चाहते हैं भर लेते हैं। कुछ दिनों तक तो पाचन यंत्र मर खप कर हमारा साथ देते हैं किन्तु अंत में बाध्य होकर अपना काम उचित रीति से करने में असमर्थ हो जाते हैं। फल अस्वास्थ्य तथा रोग होता इस प्रकार से हमने देखा कि रोग बुलाने प्रमुख कारण हमारी जीभ ही है।

बासी, अधिक मसालेदार, बेवक्त, अनियमित रूप से भोजन करना आदि हमें छोड़ना पड़ेगा। यदि हम स्वास्थ्य चाहते हैं। अस्वास्थ्य को दूर रखने के लिए हम किन किन भोजन सम्बन्धी नियमों का पालन करना चाहिए तथा कौन कौन उचित और कौन अनुचित भोजन हैं, यह जाना हमारे लिये परम आवश्यक है।

हमारे शरीर का संगठन प्रकृति ने ऐसा किया है कि अनेक अनिष्टकारी वस्तुयें और स्वतः शरीर अपने अन्दर उत्पन्न होने वाले भाँति भाँति के विष अपने आप निकलते रहते हैं। यह विष आदि पैदा तो होते ही हैं। यह हम जानते हैं कि मनुष्य का शरीर प्रतिक्षण बदला करता है। यहाँ तक कि सात वर्ष में शरीर में प्राचीन वस्तु का नाम भी नहीं रह जाता। हड्डी, माँस, मज्जा, रुधिर सभी नित्य कुछ बिगड़ते तथा कुछ बनते रहते हैं। यह विनाश और निर्माण का कार्य साथ ही साथ चलता है। प्राचीन कोषाणुओं का नाश होते रहता है उनका मृतक भाग शरीर में से निकलता ही रहता है और निकलना चाहिये भी। जब-2 विदेशी पदार्थों के पूर्ण रूप से बाहर निकालने में किसी प्रकार की बाधा आती है तो यह ही हमारे रोग और अस्वास्थ्य का कारण बनती है। अभाग्यवश कुपथ्य तथा अप्राकृतिक रहन-सहन आदि के द्वारा हम इन विषों की संख्या और भी बढ़ा लेते हैं याद रहे कि यदि यह विष तथा अनिष्टकारी वस्तुओं का शरीर से निकलना कुछ देर के लिये भी बन्द हो जाए तो हमारी मृत्यु हो जाये।

अम्ल ही हमारी मृत्यु का कारण बनता है अर्थात् जब उसकी पराकाष्ठा हो जाती है तभी हमारी मृत्यु होती है। शरीर में अम्लता जिस अनुपात से होगी प्रायः उसी अनुपात से हम रोगी तथा अस्वस्थ होंगे। अम्ल ही रोग, बुढ़ापे तथा मृत्यु का कारण है।

अत्याधिक परिश्रम करने, विश्राम न करने, निद्रा सम्बन्धी नियमों को भंग करने, क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या आदि बुरे भावों को अपनाने आदि से हमारे शरीर का ह्रास होता है तथा अनेक प्रकार का विष पैदा होकर हमारे रुधिर में मिलकर उसे दूषित करता रहता और इस प्रकार आयु को कम करता है। चिन्ता, शोक, निराशा, आदि भी रोगों का कारण बनते हैं। वैसे ही मान लीजिए आप परिश्रम करते हैं जिससे आपके शरीर का ह्रास होता है। आप रात को गहरी नींद सोते हैं और उस नींद और विश्राम में ही नष्ट कोषाणुओं के स्थान पर नये कोषाणु बन कर कार्य को पूर्ति हो जाती है। मान लीजिये आप ऐसा नहीं करते या नहीं कर पाते तो घाटे में रहेंगे ही रात को बारह बजे सोना, दिन को आठ बजे उठना, रात को थियेटर, सिनेमा, नाच रंग में समय बिताना, दिन को सोना, कचालू मटर, चाट चने उड़ाना, सिगरेट, पान की भरमार, किसी प्रकार का नशा तथा दुर्व्यसन, चाय काफी का अधिक प्रयोग, बाजारू तथा टीन के डिब्बों के स्वाद के लिए भोजन बिस्कुटों मिठाइयों आदि का प्रयोग आदि अनेक कारण हमारे रोग और अस्वास्थ्य के हैं।

अच्छा हो हम इन्हें समझें जितना खो चुके खो चुके, अब भी सँभल जाएं और भविष्य के लिये समझदारी, संयम और उचित आदर्शों को अपनावें तो हमारी दीर्घायु तथा स्वास्थ्य निश्चित है।

हम सहायक बनें -

मल, मूत्र, थूक, खकार, पसीना, साँस, छींक आदि के द्वारा शरीर के विभिन्न भागों से सदा अनेक प्रकार के विकार निकलते रहते हैं। हमें चाहिए कि किसी प्रकार से प्रकृति के इस निकालने के काम में बाधा या प्रतिबन्ध न करें। अन्यथा हमारी शरीर जवाब दे जाएगा।

जब हमारा शरीर ठीक होगा तो मन ठीक होगा, और जब मन ठीक रहेगा तो आत्मा ठीक रहेगी। अतः आध्यात्मिक उन्नति के लिए मानसिक, और मानसिक उन्नति के लिये शारीरिक उन्नति की आवश्यकता है। शरीर आत्मा का मन्दिर है। अतः शरीर को स्वस्थ और ठीक रखना इस लोक के सुख और परमात्मा की प्राप्ति के लिए आवश्यक है।

फोड़े-फुन्सी से लेकर प्रत्येक प्रकार के रोग प्रकृति द्वारा हमारे शरीर से विकारों को हटाने का प्रयत्न हैं। हमें तो रोगों का स्वागत करना चाहिये। क्योंकि पहले जो खान पान आदि सम्बन्धी गलतियाँ की हैं, उससे प्रकृति हमें मुक्त करना चाहती है। साधारण जुकाम, प्रारंभिक कब्ज आदि खतरे की घंटी हैं। हमें इन्हें सुनकर अवहेलना न करनी चाहिए, वरन् तुरन्त सोचना चाहियें कि हमने खान-पान, रहन-सहन आदि में क्या गलती की है, और तब तदनुसार हमें इनमें आवश्यक परिवर्तन करना चाहिये। इस प्रकार से हमें प्रकृति के इस सफाई के काम में सहायता देनी चाहिये। प्रकृति के ऊपर ही हम सफाई का काम छोड़ दें और खान-पान तथा अन्य स्वाभाविक नियमों में प्रकृति के ही आदेशों के अनुसार चलें तो हमें दवा खाने की आवश्यकता ही न रहेगी। भोजन सम्बन्धी सुधार तथा उपवास से हम अनेक रोगों को मार भगा सकते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: