(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम. ए.)
बहुत से बड़ी उम्र के व्यक्तियों में एक प्रकार का रोग होता हैं जिसे हम अपरिपक्वता कह सकते हैं। ये लोग अपनी आयु के साथ अपने मस्तिष्क और विचार का तदनुकूल विकास नहीं कर पाते वे वृद्ध हो जाते हैं, किन्तु उनके विचार बच्चों जैसे बने रहते हैं। उनका स्वभाव, दिलचस्पी, आसक्ति, भावनाएं, मनोविकार, भय इत्यादि बच्चों जैसे बने रहते हैं।
इस प्रकार देखा गया है कि कुछ बड़ी आयु के व्यक्ति तनिक-तनिक सी बात पर रो देते हैं, दवाई पीते हुए आनाकानी करते हैं, ऑपरेशन कराते हुए भयभीत हो जाते हैं, या तनिक सी भी कठिनाई देखकर हाथ पाँव फुला लेते हैं। उद्विग्नता उन्हें कुछ भी काम नहीं करने देती। कुछ व्यक्ति छोटी छोटी वस्तुएं पाकर बच्चों की भाँति खिल उठते हैं। छोटा सा उपहार, कोई चटपटा भोजन, कोई रंग बिरंगा पदार्थ, या वासनाजन्य चित्र उन्हें उद्दीप्त कर देता है। अक्सर देखा गया है कि बड़ी उम्र वालों में भी कामवासना का ताँडव और मादकता वैसी ही चलती रहती है जैसी नवयुवकों में होती है। जहाँ कहीं किसी आकर्षक युवती को देखा कि उनका चित्त विकारों से परिपूर्ण हो उठता है। इसी प्रकार स्त्रियाँ वृद्धा हो कर भी चटकीले वस्त्र, रंग बिरंगे गहने, चित्र, चटपटे पदार्थ, खेल तमाशे, उत्सव, इत्यादि में बच्चों जैसी रुचि रखती हैं। यदि कोई उन्हें कोई अप्रिय बात कह दे तो वे तुरन्त उद्विग्न हो जायेंगी। घर भर में तूफान मच जायेगा। कुछ इतनी फरमाइश करती हैं कि बेचारा पति उनकी इच्छाएं पूर्ण करता-2 थक जाता है।
बच्चे और वृद्ध में क्या अन्तर है? बच्चे तनिक 2 सी बात पर मचलते हैं, रोते जिद करते, अहं का विस्तार करते, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, जिद के शिकार रहते हैं। इसके विपरीत ज्ञानवृद्ध व्यक्ति में संयम, आत्मनियंत्रण, इच्छा और विकारों पर शासन करने और उच्च विषयक विचार धारा होती है। प्रत्येक व्यक्ति को यह देखना चाहिये कि उसकी उम्र क्या है? उस उम्र के अनुसार उसकी इच्छाएं, स्वभाव, मानसिक बनावट, दैनिक कार्य व्यवहार है या नहीं ?
मान लीजिये आपकी आयु 25-30 वर्ष की है। इस आयु में परिपक्वता आनी चाहिये। आपको अपने स्वाद और छोटी मोटी इच्छाओं पर नियंत्रण करना चाहिये। वस्त्रों में से रंग रंगीलापन दूर होना चाहिये। 30-40 वर्ष के व्यक्ति को और भी आत्म विकास करना श्रेयष्कर है। उसे कामवासना से मुक्ति प्राप्त करने के लिए कटिबद्ध होना चाहिये, स्वाद में से अधिक तप्त, कड़ुवे, तीखे, खट्टे-मीठे पदार्थों से रुचि ऊँची उठा कर ऊपर ले जाना चाहिये। वस्त्र सरल सादे सफेद रंग के होने चाहिये, ज्ञान की उन्नति निरन्तर होनी चाहिये। उसके व्यवहार में बड़प्पन, दूसरों को सान्त्वना देना, उत्साहित करना, सहानुभूति प्रदर्शन आना चाहिए। व्यर्थ के निरुपयोगी बकवास से मुक्त होना चाहिए। आज बड़ी उम्र वालों को असंतोष, दुःख, कष्ट, भ्रान्ति, शंका, संदेह और चिंता घेरे हुए हैं। उदासीनता के अनिष्ट विचार निरन्तर उथल पुथल मचाते रहते हैं एक क्षण भी शान्ति नहीं रहने देते। इसका क्या कारण है ?
इसका कारण यह है कि उन्होंने शारीरिक विकास के साथ-2 मानसिक और बौद्धिक विकास उसी अनुपात में नहीं किया है। शरीर से तो वे बूढ़े हो चले, किन्तु मन बच्चा ही बना हुआ है। शरीर पर सफेद बाल आ गये पर मन बच्चों की तरह मचलता है, प्रलोभनों में जाता है, परेशान करता है, कभी मन यौवन के सुनहरे स्वप्न देख कर आपको बरबस सिनेमा में खेंच ले जाता है। वह सुन्दर चित्र देखकर आपकी वासना की पूर्ति करता है। आप पान खाते हैं, सुगंधित तेल लगाते हैं, पुनः पुनः शीशे में अपनी शक्ल देखते हैं। यह सब इसलिए है कि बूढ़ा शरीर बच्चों जैसा अपरिपक्व, भ्रान्त, प्रलोभनों का शिकार, ढिलमिल स्वभाव का मन लिए बैठा है।
यदि आप परिपक्व उम्र पाकर शारीरिक दृष्टि से आगे बढ़ कर अपनी आयु से कम स्टैन्डर्ड वाले पदार्थों में रस लेते हैं मिथ्या अहंकार, द्वेष, प्रेम विकार में फँसते हैं कुवासनाओं के शिकार बनते हैं तो आप बड़ा बुरा करते हैं। आपकी मानसिक आयु नहीं बढ़ रही हैं। एक पदार्थों से आसक्ति हटी नहीं कि दूसरी ने धर दबाया। कभी आपका मन अमुक पदार्थ का शृंगार चाहता है, कभी अमुक प्रकार का वस्त्र अलंकार माँगता है, रुचिकर भोजन चाहता है, सब कुछ प्राप्त हो जाने पर भी संतुष्ट नहीं होता, आपके चित्त की अवस्था स्थिर नहीं रहती, संसार की मान सम्मान प्रतिष्ठा धन−जन कीर्ति के पीछे पागल हैं तो आप अपने मन को बच्चों का भोग दे रहे हैं।
यदि हम बुड्ढ़े लोग अपने बचपन (अपरिपक्वता मूढ़ता इन्द्रियों की गुलामी) को निकाल डालें तो हमें कोई विषमता परेशान नहीं कर सकती। मानसिक आयु में पिछड़े रहना एक भयानक नैतिक अपराध है। आध्यात्मिक जीवन में तो इससे बड़ा अपराध दूसरा नहीं हो सकता। आध्यात्मिक जीवन ही पूर्ण जीवन है जीवन एक विकास है। एक यात्रा है। इसमें एक एक स्टेज को पार करना पड़ता है। हमारा प्रत्येक दिन हमें निरन्तर आगे बढ़ा रहा है, अब यदि हम उम्र में बड़े हो कर भौतिक वस्तुओं में लिप्त रहें या घर घर में मनुष्य मनुष्य में बैर, द्वेष और झगड़ा चलता रहे तो हमारे समान मूर्ख और कौन हो सकता है। हम बच्चे ही कहे जायेंगे।
असंख्य बूढ़े मनुष्य तो पशु की स्थिति में पड़े हुए हैं। आध्यात्म पथ पर एक पग भी आगे बढ़ना नहीं चाहते। उनमें वास्तविक सामर्थ्य विद्यमान है उसका एक करोड़वाँ हिस्सा भी अपने जीवन में प्रकट नहीं करते यह बड़ी बुरी स्थिति है।
हे ज्ञानी आत्माओं ! तुम्हारी उम्र का तकाजा है कि अपनी रुचि-परिष्कार करो। बौद्धिक और मानसिक उन्नति शरीर के साथ ही बढ़नी चाहिये। प्रेम, शील, संतोष, हर्ष, सरलता, विनम्रता, सौम्यता, सत्यता, पवित्रता, निस्वार्थता का निरन्तर और सहज अभ्यास करो। हृदय को अपने काबू में रखो। पहिले यदि आप देह पूजा में लगे रहते थे, भोजन खान-पान विषय विकार में जीवन व्यतीत करते थे, तो अब आध्यात्मिक जीवन आरम्भ करो। आत्मा के दिव्य गुणों का विकास करो। सच्चा ज्ञान तुम्हें आत्मा में प्रवेश करने से ही प्राप्त हो सकेगा। आत्म-दृष्टि हुई तो रोग, शोक, भौतिक दुःख पास नहीं फटकते। आत्मा के जानने पर अन्य कुछ अवशेष नहीं रहता। सर्वत्र विश्व में सच्चा प्रकाश आत्म-विकास से ही हो सकता है।
आइये, हम उसी प्रशस्त पथ का ओर अग्रसर हों।