अद्वैत की ओर :-

October 1950

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(श्री स्वामी सत्यभक्त जी वर्धा)

उपनिषद् में एक वाक्य है जिसका अर्थ है कि जो जगत को भिन्न समझता है उसे मौत मिलती है, यह वाक्य दर्शन शास्त्र के एक सिद्धान्त की घोषणा ही नहीं है, और न अतिशयोक्ति अलंकार का नमूना है, किन्तु यह धर्म-शास्त्र का ध्रुव सत्य है।

माना कि जगत में भिन्नता है हर एक चीज अपनी विशेषता रखती है, पर हमें यह भूलना न चाहिये कि भिन्नता और विशेषता की सार्थकता समन्वय में है एकता में है अन्यथा वह जीवन न होगी मौत होगी।

हमारे शरीर के जितने अंग हैं वे कुछ विशेषता रखते हैं, भिन्नता रखते हैं, परन्तु अगर उनमें समन्वय न हो, एकता न हो तो वे माँस के लोथड़े के सिवाय और क्या रहे? समन्वय होने से जिन्दे मनुष्य का रूप दिखाई दे रहा है। जो बात मनुष्य के अंगों के बारे में सत्य है वही बात मनुष्य जाति के अंगों के बारे में भी सत्य है।

आज मनुष्य जाति का दायरा बढ़ गया है पहिले आसपास के दो चार जिलों में ही आना जाना होता था इसलिये मनुष्य जातीयता की दृष्टि से उतने ही क्षेत्र में समन्वय की साधना करता था। अब यातायात का समन्वय सारी दुनिया से हो गया है, सारी दुनिया का एक बाजार बन गया है इसलिये मानवता का समन्वय हमें सारी दुनिया के साथ करना है। अगर समन्वय रूप इस अद्वैत को हम न पा सकें तो हमें मौत ले जायगी।

आज हम मौत की राह से विरक्त नहीं हो रहे हैं। हम समन्वय की चेष्टा नहीं करते, किन्तु विशेषताओं या भिन्नताओं की पूजा करते है उन्हीं की साधना करते हैं, विशेषता शिव है या अशिव, सुन्दर है या असुन्दर, इसकी हमें परवाह नहीं है।

इसमें सन्देह नहीं कि मनुष्य अहंकार का पुतला है और अहंकार किसी विशेषता पर टिकता है पर हर एक विशेषता अहंकार की पूजा सामग्री नहीं बन सकती विशेषताएं तीन तरह की होती हैं। प्रशंसनीय विशेषता ही को अपनाना चाहिये।

पर मनुष्य में प्रशंसनीय विशेषताएं इतनी और ऐसी नहीं है कि उससे मनुष्य जाति के टुकड़े टुकड़े हो सकें । ईमानदारी, सत्यवादिता, शील त्याग, दान, स्वच्छता आदि प्रशंसनीय विशेषतायें हैं, पर इनकी ठेकेदारी किसी के पास नहीं, और न इनके कारण मनुष्य जाति के टुकड़े हुए हैं। जातियाँ इन विशेषताओं में स्पर्द्धा भी नहीं करतीं।

जातियों का भेदभाव टिका हुआ है अपेक्षणीय विशेषताओं पर, जिनमें नाम की विशेषता भी शामिल है। तुम्हारी भाषा कैसी है, तुम कैसे कपड़े पहनते हो, कैसा खाते हो, कैसा शिष्टाचार पालन करते हो आदि बातों की निःसार विशेषताओं पर ये जातियाँ टिकी हुई हैं। मजहब में इन विशेषताओं का रूप बन गया है। इन्हीं के अहंकार के कारण मनुष्य अद्वैत की, विश्व-प्रेम के उपासना छोड़कर द्वैत का, भेदभाव का शिकार बना हुआ है।

सच पूछा जाय तो ये उपेक्षणीय विशेषताएं नष्ट हो जानी चाहिये अगर किसी कारण ये अनिवार्य हों तो इनका घमण्ड तो कदापि न रहना चाहिए। अगर आज संसार भर की एक भाषा बन जाए तो इससे यह सहूलियत ही होगी कि मनुष्यमात्र एक दूसरे से मिल जुल सकेंगे। मानव की भलाई एक दूसरे के समझने में है न कि एक दूसरे के न समझने में। तब जुदी-2 भाषा लिपि की टेक क्यों? जन्म से प्रत्येक मनुष्य अपनी-2 भाषा या लिपि सीखकर तो आता नहीं आसपास के लोगों से बह सीखता है, और जो भी भाषा लिपि सीखता है उसे अपनी कहने लगता है, तब संसार भर के सब मनुष्य किसी एक भाषा लिपि को अपना लें तो इसमें किसका क्या जाता है? हाँ! भाषा सरल और अधिक से अधिक व्यवस्थित होनी चाहिये। अगर हम भाषा की दृष्टि से अद्वैत की ओर बढ़ें तो मनुष्यमात्र की एक जाति और राष्ट्र बनने में सुभीता हो जाए।

खाने पीने पहनने आदि की विशेषताएं भी उपेक्षणीय हैं, ये जलवायु तथा खाद्य पदार्थों की उत्पत्ति पर निर्भर हैं। जहाँ जो चीज पैदा हो और प्रकृति के अनुकूल हो वही खाना चाहिये इसमें घमण्ड की क्या बात है। अगर कहीं कोई अच्छी चीज पैदा होती है और हम वहाँ रहते नहीं हैं इसी से निन्दा करने की क्या जरूरत है? अगर सब चीजें सब जगह उपलब्ध होने लगें तो स्वास्थ्य के अनुसार उनका उपभोग करने में हमें हिचक क्यों पैदा होनी चाहिये। इसी प्रकार हमें अमुक तरह की टोपी या पगड़ी का पक्षपात क्यों होना चाहिये। हमारे प्रान्त में अगर किसी खास तरह की पोशाक का चलन है या बापदादे किसी चलन की पोशाक के अनुयायी रहे हैं तो रहे होंगे हमें उसका पक्षपात क्यों होना चाहिये। जलवायु तथा आर्थिक स्थिति के अनुसार पोशाक चुनने में बाधा क्या है?

कैसा झूठा मोह और कैसा झूठा अहंकार है यह-कि हम इन उपेक्षणीय विशेषताओं के लिये दिल से दिल मिलाने में हिचकते हैं। रूढ़ि मोह और अहंकार के शिकार बनकर किसी भलाई को भी नहीं अपना सकते।

आज बंगाली, बिहारी, हिन्दी भाषी, मराठी भाषी, राजस्थानी, गैर राजस्थानी आदि का द्वंद्व जोर पर हैं। सम्प्रदायों से तथा जातिभेदों से यह देश वैसे ही तबाह है अब यह तीसरा रोग और पनप रहा है। सच पूछा जाए तो हमें ये सब भेद जड़ से उखाड़ फेंकना है, क्योंकि ये मनुष्य की जन्मजात विशेषताएं नहीं है और न ऐसी विशेषताएं हैं जो परस्पर पूरक होती हैं। स्त्री पुरुष की विशेषताएं जन्मजात हैं और परस्पर पूरक हैं। स्त्री में जो कमी है उसे पुरुष पूरी करता है और पुरुष में जो कमी है उसे स्त्री पूरी करती हैं। दोनों की विशेषता मानव जाति के अस्तित्व के लिये, सुख के लिये जरूरी है पर जातिभेद देशभेद प्राँत भेद, भाषाभेद आदि के नाम पर चलने वाली विशेषताएं न तो परस्पर पूरक हैं न अनिवार्य-कि उनके बिना मनुष्य की दुर्दशा हो जाए। तब इन्हें क्यों चालू रखना चाहिये ?

जब मैं पढ़ता हूँ कि अरब यहूदी बुरी तरह आपस में लड़ते हैं, हिलमिल कर एक कौम नहीं बन पाते तब मुझे मनुष्य की बुद्धि पर तरस आता है। यहूदी दुनिया भर में फैलकर पीढ़ियों से बसे हुये हैं पर वे वहाँ के लोगों से मिलकर एक नहीं हो पाते। सब राष्ट्रों में फैलकर भी अपनी अंतर्राष्ट्रीय जाति बनाये हुये हैं, इसे मनुष्य की कम मूर्खता नहीं कह सकते। इससे दोनों मौत के मुँह में जा रहे हैं। यह अद्वैत को न मानने का फल है।

हमें इन उपेक्षणीय विशेषताओं से पिंड छुड़ाना है और जो रह जाये उन पर किसी तरह का जोर नहीं देना है बल्कि उन की पूरी तरह उपेक्षा करना है। इतना ही नहीं दूसरों की नवीनता का प्रेम पूर्वक आनन्द लेना है उन से द्वेष नहीं करना है, परायापन नहीं दिखाना है। यही सच्चा अद्वैत है, इसी अद्वैत की ओर बढ़ने की दुनिया को सख्त जरूरत है।

हमारी संस्कृति डूब जायगी, हमारी सभ्यता डूब जायगी, हमारी जाति डूब जायगी, हमारी भाषा डूब जायगी, इस प्रकार की भद्दी विभीषिकाएं प्रकट करते समय लोग यह नहीं सोचते कि यह सब तो डूब जायगा पर इसके स्थान पर जो आ जायगा वह अपने और जगत के कल्याण के लिए कितना जरूरी है। हमारा बंगालीपन, बिहारीपन मराठापन डूब जाय और उसके स्थान पर हिन्दुस्तानीपन या मानवपन आ जाय तो शान्ति सहयोग शक्ति आदि सब दृष्टियों से हमारा विकास ही होगा। पर लोगों के हृदय में इतनी क्षुद्रता स्वार्थपरता भर गई हैं कि वे विशाल हित और विकास की तरफ दृष्टि भी नहीं डाल पाते। वे कल्पित और क्षुद्र स्वकीयता के आत्म गुणों का, सत्य का मूल्य ही नहीं कर सकते। इस क्षुद्रता के कारण वे जगत में असत्य को, पाप को बढ़ने देते है। पग पग पर धक्के देते हैं पग पग पर धक्के खाते हैं।

एक बार एक विद्वान कहलाने वाले भाई ने ऐसा हास्यास्पद तर्क उपस्थित किया कि आप जातिपाँति तोड़ कर सबको एक बना देंगे, ठीक है। पर इससे पोरबार तो मर ही जायेंगे, अग्रवाल तो मर ही जायेंगे इनका इससे क्या फायदा हुआ, वे तो एक तरह से अपने जीवन से ही गये।

वे एक अध्यापक थे इसलिए मैंने उनसे कहा आप एक अपढ़ विद्यार्थी को पढ़ा लिखा कर विद्वान बना देंगे तो इससे अपढ़ का क्या फायदा हुआ। माना कि एक विद्वान पैदा हो गया पर अपढ़ तो मर ही गया, अपढ़ तो न रहा, वह तो एक प्रकार से अपने जीवन से ही गया।

अध्यापक जी झेंप तो गये पर झेंप दबाने के लिये उसने झेंप पर हँसी पोत ली। इस प्रकार के हास्यास्पद तथा मूर्खतापूर्ण तर्कों से मानव का मानस भरा पड़ा है और इसी से यह दुनिया खण्ड खण्ड होकर टकरा रही है, धूल में मिल रही हैं।

मानवता की जो शक्तियाँ जगत को स्वर्ग बना सकती हैं वे नरक बना रही हैं। जगह जगह टुकड़े करने की वृत्ति काम कर रही है। एक देश के दो देश, एक प्रान्त के दो प्रान्त, एक राज्य के अनेक राज्य, आदि द्वैत की उपासना में मानव लगा हुआ है। उपनिषद् के शब्दों में यह द्वैत की उपासना मौत को निमन्त्रण देना है। अमरत्व के लिये, दिव्यता के लिये, सुख शान्ति के लिये हमें अद्वैत की ओर बढ़ना चाहिये।


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