धर्म और साम्प्रदायिकता

October 1950

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(विश्वकवि श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर)

साँप्रदायिकता एक भयानक अमरबेल के समान उसी धर्म में से अपना आहार लेती रहती है जिसके अनुसार वह अपना रंग ग्रहण करती है और उसे इस ढंग से बिल्कुल समाप्त कर देती है कि उसे (उस धर्म को) यह बात विदित नहीं होने पाती कि रस के चूस लिये जाने के कारण कब उस की प्राणशक्ति सूख गई है। यह अपने निकटवर्ती लोगों के द्वारा विश्वसनीय मानी जाने वाली बातों से बहुत अधिक घृणा करती हुई उस धर्म की मरी हुई खाल का उपयोग अपने निवास स्थान के रूप में करती है तथा उसी के द्वारा लड़ने झगड़ने की अपनी अपवित्र भावना की, और अपनी पवित्रता की झूठी प्रशंसा की रक्षा करती है।

जब किसी विशेष धर्म के मानने वाले साम्प्रदायिक भक्तों को अपने भाइयों के प्रति किये जाने वाले उस विषम व्यवहार के लिए जो मानवजाति को बहुत अधिक आघात पहुँचाता है तथा उसे अपमानित करता है, जवाब देने को मजबूर किया जाता है तब वे तुरंत ही अपने धर्मग्रन्थों में से न्याय, शील और मनुष्य में विद्यमान देवत्व का उपदेश देने वाले उत्तम उद्धरणों को पेश करके औरों के मन को दूसरी ओर फेर देने का प्रयत्न करने लगते हैं। किन्तु यह देखकर हँसी आती है कि उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं होता कि ये ही सब बातें उन की बुद्धि के प्रायः बन रहने वाले ढंग में बहुत अधिक हानि पहुँचाने वाली गड़बड़ी उत्पन्न करती हैं।

अपने धर्म के अभिभावक बनते समय एक ओर तो वे ऊपरी रीति रिवाजों को जो प्रायः पुराने समय के होते हैं, झूठमूठ स्थायी महत्व देकर भौतिक संपत्तिवाद को तथा दूसरी ओर नैतिक औचित्य से रहित जन्म और सादृश्य के आधार पर बनाये हुए विशेष सुविधाओं के मजबूत घेरे के भीतर अपने पूजा के ढंगों को पवित्रता का रूप देकर नैतिक संपत्तिवाद को उस धर्म पर आक्रमण करने देते हैं। इस प्रकार का पतन किसी एक ही विशेष धर्म में नहीं, वरन् किसी न किसी न मात्रा में सभी धर्मों में पाया जाता है और इसके अपवित्र कारनामों का इतिहास भाइयों के खून से लिखा गया है तथा उसमें उन पर किये गये तमाम अत्याचारों की मुहर लगा दी गई है।

मनुष्य के समस्त इतिहास में यह बात दुःखद रूप में स्पष्ट है कि धर्म, जिनका उद्देश्य जीवात्मा को मुक्त कर देना है, किसी न किसी रूप में सदा मन की स्वतंत्रता को और यहाँ तक कि नैतिक अधिकारों को भी शिथिल करने के साधन रहे हैं। अयोग्य हाथों में पड़कर सत्य का अधिकार, वह सत्य जो मानव-जाति को पशुता के अन्धकारमय प्रदेश से बाहर निकाल कर उसकी आर्थिक और नैतिक उन्नति करने के लिए बनाया गया था-समुचित दण्ड देने लग गया है, और इस प्रकार हम देखते हैं कि धार्मिक कुटिलता के कारण जितनी अधिक तर्क-शून्यता और नैतिक विवेकहीनता फैल रही है उतनी हमारी शिक्षा में पाई जाने वाली किसी अन्य कमी के कारण नहीं।

इसी प्रकार जब विज्ञान के द्वारा बतलाये हुए सत्य का प्रयोग बुरे व्यापारों में किया जाने लगा है तब वह हमें विनाश करने की धमकी दे रहा है। मनुष्य के लिए ये बड़े दुःखदाई अनुभव हैं कि सभ्यता से उत्पन्न होने वाली सभी वस्तुओं को ऐसे दुरुपयोग से देखा जाय तथा धर्म के अभिभावक एक तरफ से हत्याकाण्ड तथा दासत्व की स्थापना करने के लिए उद्यत और शस्त्रास्रिसज्जित लौकिक शक्ति को आशीर्वाद देते हुए पाये जायं, तथा विज्ञान भी उन्हीं विचारहीन शक्तियों के उपद्रवों से युक्त घातक जीवन में भाग लें।

जब हम इस बात में विश्वास करने लगते हैं कि हमने किसी विशेष संप्रदाय को मानने के कारण ही परमात्मा को प्राप्त कर लिया है, तब तो हमें इसी बात से पूर्ण शान्ति मिल जाती है कि अब आगे और भी ज्यादा जोर के साथ उन लोगों के, जिनका ईश्वर संबन्धी मत सिद्धान्तों में भिन्न है, खोपड़ों को फोड़ना ही ईश्वर की एक मात्र सेवा है।

इस प्रकार प्रत्येक धर्म जो कि बन्धन से छुड़ाने वाले के रूप में आरम्भ होता है, अन्त में एक विशाल कारागार बन जाता है। उस के संस्थापक के त्याग की नींव के आधार पर उसकी इमारत खड़ी होती है, किन्तु उसके पुरोहितों के हाथ में पड़ कर वह एक संग्रह करने वाली संस्था बन जाती है और विश्वजननी होने का दावा करते हुए वह मतभेद और झगड़ों का एक सक्रिय केन्द्र बन जाती है। धीरे-धीरे बहने वाली एक धारा के समान मनुष्य की आत्मशक्ति सड़ती हुई कीचड़ से भर जाती है, और उन छोटी छोटी छिछली तलैयों में विभक्त हो जाती है जो केवल मूर्खता के घातक कुहरे को ही उत्पन्न करने का काम करती है। यह विचारान्धता के अनुसार पवित्र है, किन्तु आध्यात्मिक नहीं है। यह तर्कशून्यता की उन कल्पित भावनाओं से घिरी रहती है जो धर्म के भद्दे अनुकरण के द्वारा दुर्बल मनों में अपना अड्डा जमा लेती है।

यही साम्प्रदायिक भावना है जो धर्म जैसी दिखाई पड़ती हैं पर वस्तुतः धर्म तत्व से कोसों दूर है। साम्प्रदायिकता तो धर्म की सड़ी हुई विकृत भक्ति ही कही जा सकती है।


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