(श्री दौलतराम जी कटरहा, बी. ए.)
परस्पर एक दूसरे के संपर्क में रहने वाले व्यक्तियों को हम बहुधा दो प्रकार की भावनाओं से प्रेरित पाते हैं। कभी हम देखते हैं कि सारा कुटुम्ब एक बालक को बचाने या पढ़ाने में अपने आपको मिटा देता हैं तो कभी कुटुम्ब का एक व्यक्ति सारे कुटुम्ब के लिये अपने आपको मिटा देता है। यहाँ एक पक्ष तब बचता है जब दूसरा अपना बलिदान कर देता है किन्तु इतना होते हुए भी हम यह नहीं कह सकते कि उस कुटुम्ब में वर्ग संघर्ष चल रहा है क्योंकि दोनों पक्षों का एक ही सा समान उद्देश्य है और वे एक ही भावना से प्रेरित हैं। किन्तु यदि दो पक्ष ऐसे हों कि उनके समान उद्देश्य न हो दोनों अपने अपने हित का अलग अलग ख्याल रखते हों तो एक साथ रहते हुए भी हम उन्हें एक ही वर्ग का नहीं कह सकते यदि मैं अपने घर में गाय को पालता हूँ और उस पालन में यदि यह भावना ही प्रधान हो कि इससे अधिक से अधिक लाभ हो तो गाय को खूब भरपेट भोजन देने के बावजूद मुझ में और गाय में वर्ग भेद मौजूद है। मुझे उस गाय से ममता होने के स्थान में “शुभ-लाभ” से अधिक ममता है किन्तु यदि मेरे हृदय में यह ख्याल हो कि गाय भले ही बूढ़ी होकर मर जाए, भले ही वह दूध और बछड़े देकर मेरी आर्थिक सहायता न कर सके पर मैं उसे अपने घर से अलग न करूंगा तो वह पशु होते हुए भी मेरी कुटुम्बिनी है और मुझमें और उसमें कोई भेद नहीं है। जहाँ दो पक्ष में प्रत्येक पक्ष दूसरे के हित में अपना हित मानते हैं तथा उसके लिए कुछ हानि भी उठाने के लिए तैयार रहता है वहाँ दोनों में उस समान उद्देश्य की दृष्टि से कोई वर्ग भेद नहीं रहता। किन्तु जहाँ उद्देश्यों की विभिन्नता होती है वहाँ उन उद्देश्यों की दृष्टि से उनमें वर्ग भेद होता है। यदि ये उद्देश्य ऐसे हों कि एक पक्ष का उद्देश्य सिद्ध होने पर दूसरे का उद्देश्य विफल होता हो जहाँ दो पक्ष के हितों में भेड़ और भेड़िये के हितों जैसा संबंध हो, जहाँ एक शोषक और दूसरा शोषित हो, जहाँ एक पीड़ित और दूसरा पीड़ित हो, वहाँ वर्ग संघर्ष तीव्र हो जाता है। अतएव भिन्न-2 वर्ग भिन्न-भिन्न उद्देश्यों के होने से ही बन जाते हैं।
इस दृष्टिकोण से देखने पर हम कहेंगे कि यदि किसी पूँजीपति का अधिक से अधिक व्यक्तिगत सम्पत्ति जुटना ही प्रधान लक्ष्य है तो वह मजदूर वर्ग का विरोधी है किन्तु यदि वह “सब ईश्वर का है (ईशावास्यमिदं सर्वं)” ऐसा मान कर अपना व्यवसाय चलाता है, यदि उसका व्यवसाय के द्वारा यह उद्देश्य है कि मजदूर तथा वह स्वयं सुख सहित जीवन व्यतीत करें तो वह पूँजीपति मजदूर वर्ग का कदापि विरोधी न कहलावेगा। मार्क्स इस बात को अच्छी तरह नहीं समझे। उन्होंने अपने जमाने के पूँजीपतियों को देखकर एक दम कह दिया कि मजदूरों और उनके हितों में पारस्परिक विरोध है अतएव उनके बीच में वर्ग-संघर्ष अनिवार्यतः मौजूद है और मजदूरों की स्थिति को सुधारने के लिए उसे बढ़ाने की आवश्यकता है। जैसे बादशाहों में नासिरुद्दीन और औरंगजेब थे जो कि राज्य-कोष का अपने व्यक्तिगत सुख के लिए कोई उपयोग न करते थे, वैसे ही पूँजीपतियों में भी कुछ पूँजीपति उन्हें देखने को मिल जाते जो कि अपने पास की सम्पत्ति को अपनी न समझते और जिनका कि मजदूरों के साथ ही एक समान उद्देश्य होता तो वे वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त को वैसा अटल महत्व प्रदान न करते जैसा कि आज मार्क्सवादी दर्शन में हमें देखने को मिल रहा है। उसमें उनका संशोधन होता कि मजदूरों को संघर्ष केवल उन्हीं पूँजीपतियों से करना चाहिए जो मजदूरों को बहुत कम वेतन देते हों, जिनके उद्देश्य भिन्न हों, पर दूसरों से नहीं, किन्तु मार्क्स ने यह मान लेने की भूल की कि प्रत्येक पूँजीपति का अनिवार्यतः मजदूर वर्ग से भिन्न उद्देश्य होगा। इस कारण वे स्वयं भूल भुलैयों में पड़ गये और उन्होंने गलत निष्कर्ष निकाले।
आज वर्ग संघर्ष की चर्चा जोरों पर है। अपने वर्ग का संगठन, अपने वर्ग का लाभ, अपने वर्ग का स्वार्थ, अपने वर्ग का गौरव, अपने वर्ग की सत्ता, पर आज बहुत जोर दिया जा रहा है। अनेक वाद और संघ इस दशा में प्रयत्नशील हैं। पर लोग यह भूल जाते हैं कि सार्वजनिक सामूहिक लाभ, पारस्परिक सहयोग और विभिन्न वर्गों में कौटुम्बिक एकता का आयोजन करके भी वर्ग भेद को मिटाया जा सकता है। लाठी बल पर स्थापित किये गये साम्य की अपेक्षा भावनाओं से उत्पन्न हुआ साम्य अधिक श्रेयष्कर है।
महात्मा गान्धी जी भी साम्यवादी थे। वे भी वर्गविहीन समाज चाहते थे पर वे इसके लिए वर्ग संघर्ष को अनिवार्य नहीं समझते थे। उनका विश्वास था कि मानवीय सद्भावनाओं को विकसित करके वर्ग साम्य की स्थापना की जा सकती है। भारत गान्धी-वादी पद्धति से ऐसा साम्य स्थापित कर सका तो “अहिंसा द्वारा स्वराज्य प्राप्ति” के समान यह उसकी दूसरी आध्यात्मिक विजय कही जाएगी।