क्या बहिन-बेटियों से पर्दा कराना आवश्यक है?

October 1950

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(श्री मालचन्द्र जी शर्मा)

आर्य धर्म के प्राचीन इतिहास को गवेषणा पूर्वक देखा जाय तो आधुनिक परदे के आकार-प्रकार का विवेचन कहीं नहीं मिलता। परदे का समर्थन या विरोध किसी भी शास्त्रीय ग्रन्थ में दिखाई नहीं पड़ता। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि पुरातन काल में परदे का अस्तित्व था ही नहीं जिसका विरोध या समर्थन करने की आवश्यकता पड़ती। रामायण तथा महाभारत काल में तो स्त्रियों ने पुरुषों की तरह युद्ध क्षेत्र में जाकर शत्रुओं से युद्ध किया था, उच्च शिक्षा में महिलाएं पुरुषों से भी बाजी मार ले गयी हैं। पुरुषों की अनुपस्थिति में राजकीय कार्यों का संचालन भी वे किया करतीं थीं। अगर उस समय वर्तमान काल की तरह परदा-प्रथा का भी प्रचार होता तो, महारानी कैकयी महाराज दशरथ के साथ युद्ध क्षेत्र में जाकर अपना कौशल न दिखला सकतीं, सावित्री जैसी पतिव्रता अपने मृत पति की आत्मा को यमराज से वापिस नहीं ला सकतीं, सीता, अनुसूया, दुर्गा, गार्गी, मैत्रेयी, द्रौपदी आदि के एक से एक बढ़ कर कार्यों से लिखित इतिहास के सुनहले पृष्ठ आज भी अन्य देशों के इतिहास को नतमस्तक करते दिखलाई नहीं पड़ते। उस समय भी दुर्भाग्यवश यदि परदे की बीमारी होती तो भारताकाश में स्त्री रत्न-रूपी अनेक नक्षत्र चमकते हुए नहीं दिखाई पड़ते, वरन् उनके स्थान पर होते काले रक्त बिन्दु, जिनकी दूसरे देशों के इतिहासाकाश में कमी नहीं हैं। विदेशी लोग भी पुरातन भारतीय स्त्रियों की शक्ति, साहस, बुद्धिमत्ता, विलक्षणता की प्रशंसा मुक्त कंठ से करते हैं। इसका कारण यही है कि उस समय के पुरुष वर्तमान की तरह स्त्रियों को परदे में आच्छादित कर घर की चहारदीवारी में अपने पशु बल से बन्द नहीं कर देते थे, वरन् उनको विद्या-बुद्धि प्राप्त करने की पूर्ण सुविधा दे रखी थी। अस्त्र शस्त्र चलाने, कला कौशल के सीखने के लिये पूरा प्रबन्ध था। यही कारण था कि उनका विकास हुआ, और इतना हुआ कि आज भी उनकी चरितावली घर घर में गायी जा रही है।

हिन्दू जाति ने अपने देश में बड़े-बड़े साम्राज्यों का उत्थान-पतन देखा है। जिस समय आचार-विचार, रहन-सहन में जैसे परिवर्तन की आवश्यकता हुई, उसे अंगीकार करने में हिन्दू जाति जरा भी पश्चात्पद नहीं हुई। पंजाब के हिन्दुओं का आचार-विचार, रहन-सहन मद्रास के हिन्दुओं से आपको भिन्न मिलेगा, इसका कारण यही है कि पश्चिमी जाति के आक्रमणों में पंजाब ही सर्व-प्रथम मोरचे का स्थान रहा है, अतः पंजाब को अपनी सामाजिक परिस्थिति, वेशभूषा, रहन-सहन, उस ढाँचे में परिवर्तित करते जरा भी हिचकिचाहट न हुई, जिसकी वास्तविक आवश्यकता था। आपको धर्म के विषय में पंजाब के हिन्दुओं के विचार उतने ही उदार तथा सुसंस्कृत मिलेंगे, जितने मद्रासी, और उड़िया ब्राह्मणों के संकीर्ण कट्टरपन्थी। परदा-प्रथा यवन साम्राज्य का एक तोहफा है, जो उनके अतीत साम्राज्य की स्मृति इस प्रथा द्वारा हिन्दुओं को दिलाता है। मुसलमानी सल्तनत में हिन्दू स्त्रियों की धर्मरक्षा के लिये यह आवश्यक था कि वे नख-शिख तक पर्दे में रह कर घर में बन्द रहें ताकि उनके सौंदर्य की चर्चा तत्कालीन शासक सैनिकों के कान में न पड़ जाए और हाथ में कानून रखने वाली शासक जाति हिन्दू स्त्रियों के पवित्र धर्म को भ्रष्ट न कर सके। और तो क्या उस समय भगवान के मन्दिर भी पर्दे में रखे जाते थे। अर्थात् मकान के भीतरी हिस्से में या सुरंग में जिससे धर्म प्राण हिन्दू स्त्रियों को देव-दर्शन करने के लिए भी बाहर न जाना पड़े और परदे करने के लिये भी बाहर न जाना पड़े और पर्दे में भगवान के दर्शन कर सके। कुछ जातियों में पर्दे का इतना भयंकर साम्राज्य था कि आठ वर्ष का लड़का भी गृहस्थियों के अन्तःपुर में प्रवेश नहीं कर सकता था। लड़कियाँ भीतर ही भीतर बड़ी होती रहती थीं किन्तु बाहरी आदमियों को इतना भी पता नहीं लग सकता था कि अमुक व्यक्ति के घर में इतनी स्त्रियाँ हैं। तत्कालीन समाज में आत्म रक्षा के लिये परदे को करना भी कुलीनता का चिन्ह तथा प्रतिष्ठा का स्तम्भ समझा जाने लगा। लोगों के मस्तिष्क तथा भोली स्त्रियों के हृदय में इस बात को भली प्रकार पैठा दिया गया कि “परदा कुल की शान है, परम्परा की रीति है।” मुसलमानी सल्तनत आयी और अपने करिश्मे दिखाकर रसातल को बिदा हो गयी, किन्तु अपनी विदाई में शासित हिन्दुओं को परदा की प्रथा उपहार में दे गयी, जिसे लेकर आज के हिन्दु भी गर्वित हैं। अंग्रेजी सल्तनत कायम हो जाने पर हिन्दुओं ने अपनी वेश भूषा, रहन-सहन में परिवर्तन कर लिया, कई कुप्रथाओं को तिलाँजलि दे दी, शिक्षा को अपनाया, किन्तु परदे के पाप को हिन्दुओं ने अपने प्राणों से चिपटा कर रख लिया। बड़े-बड़े वकील बैरिस्टर, पंडित, डॉक्टर, जज, मजिस्ट्रेटों के घर में से पुरानी सभ्यता की सब निशानी एक-एक कर विदा हो गई किन्तु यह प्रथा अभी भी उनकी सहेली बन कर उनके घरों में खेल कूद रही है।

क्या ही अच्छा हो कि भारत का वर्तमान समाज भी अपने घरों के अन्दर से इस बनावटी पर्दे को हटा कर उस भीषण भूल का प्रतिशोध करे जिसके कारण हमारे घर की देवियाँ एक न एक रोग से पीड़ित रहती हैं। घर के बाहर की दुनिया से अनभिज्ञ रह कर आत्म-भीरु बनी हुई हैं। परमात्मा के नाम पर उनको भी प्रातः काल की उस स्वच्छ वायु का सेवन करने दो, जो संसार के समस्त प्राणियों के लिये प्रकृति ने समान रूप से उपयोग के लिये दे रखी है। उनको भी देश और समाज में होने वाले परिवर्तनों से अवश्य परिचित कराओ जिसके बिना उनमें तथा पशु में कोई भेद नहीं रह जाता। समय पर बल और साहस का उनमें संचार करो जो उनकी आकस्मिक आत्मरक्षा का कवच बन सकें। कितने ही लोगों का भ्रम अब भी नहीं मिटा कि “परदा छोड़ देने से स्त्रियाँ स्वतन्त्र हो जाती हैं।” किन्तु यह उनका भ्रम ही नहीं, अन्धा विश्वास है। गुजरात महाराष्ट्र, मद्रास की स्त्रियों ने परदा हटा कर कौन से शील धर्म को नष्ट किया है ? वरन् यों कहिये कि भारत के नारी धर्म का वास्तविक मान इन्हीं प्रान्तों ने रख लिया। आज स्त्री अपहरण, बलात्कार की जितनी घटनाएं बंगाल, मालवा, राजपूताना में होती हैं, क्या उनसे शताँश घटनाएं परदा हटाने वाले प्रदेशों में घटित हुई हैं? यह तो माना हुआ सिद्धान्त है कि जो वस्तु जितनी छिपा कर रखी जायेगी, बाहरी परिस्थिति उसे प्रकाश में लाने के लिए उतनी ही विशेष उत्कण्ठा दिखाएगी और भीतरी परिस्थिति उसे छिपाने के लिये उतनी ही संकीर्ण और निर्बल होती रहेगी। रेलवे के प्लेटफार्म या सार्वजनिक स्थानों में परदे वाली कुरूप स्त्री को देखने तथा आवाजकशी करने के लिये उतनी भीड़ सहज ही में एकत्र हो जाती है जितने कि मदारी द्वारा किये जानेवाले बन्दर-बन्दरी के नाच में। इसके प्रतिकूल परदा-रहित सुन्दर स्त्री के सम्मुख आँख उठाकर देख लेने का साहस भी कोई व्यक्ति सहसा नहीं कर सकेगा।


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