गायत्री की महिमा अपार है। सभी धर्म शास्त्रों ने उसकी महत्ता का प्रतिपादन किया है, सभी ऋषि उसके अनन्य उपासक रहे हैं। मंत्रों की यह मुकुट-मणि है, जो कार्य संसार के किसी भी मंत्र से हो सकता है वह गायत्री से भी अवश्य हो सकता है। गायत्री भूलोक की कामधेनु है। इसे कल्पलता भी कहा गया है। यह अदृश्य पारस मणि तथा जन्म मृत्यु के चक्र से छुड़ाने वाली दिव्य सुधा धारा है। यह सब प्रकार के पाप तापों, शोक सन्तापों से मुक्त करने वाली, परम शान्ति दायिनी महा महिमामयी आध्यात्मिक ज्ञान गंगा है।
वेद पुराणों में वर्णन किया हुआ समस्त ज्ञान विज्ञान इसके चौबीस अक्षरों में सूत्र रूप से विद्यमान है, अगणित साधकों का अनुभव है कि परम कल्याण को इससे सरल, सीधा, स्वल्प श्रमसाध्य एवं शीघ्र फलदायी मार्ग दूसरा कोई नहीं है।
प्रमाण के आधार पर एवं आप्त-पुरुषों की साक्षी के अनुसार जीव को दुःख शोकों के भव- सागर में से पार करने वाली यह सुरक्षित नौका है। हमें अनेक गायत्री साधकों को प्राप्त हुए सत्परिमाणों का पता है। अनेक घटनाएं तो ऐसी घटित हुई हैं कि माता की कृपा से पर्वत के समान कठिनाई, राई बन कर समाप्त हुई और अनेक बार रत्ती भर प्रयत्न का परिणाम असंख्य गुने सुख-सौभाग्य में प्रकट हुआ, कई बार अटल प्रारब्धवश कोई अभीष्ट पूरा नहीं हुआ तो उसके अन्य प्रकार से अनेक आशाजनक परिणाम प्राप्त हुए। इतना निश्चित है कि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती। हमें व्यक्तिगत रूप से अपनी निष्ठामयी दीर्घकालीन गायत्री तपश्चर्या में जिन जिन दिव्य चमत्कारों का दिग्दर्शन हुआ है उन्हें गोपनीय रखना ही उचित समझ कर प्रकट नहीं किया जा रहा है। अपने निजी अनुभव के आधार पर हमारी सुनिश्चित धारणा एवं अटूट श्रद्धा है कि मानव प्राणी का परमहित गायत्री का आश्रय लेने में सुरक्षित है।
जो वस्तु हमें लाभदायक प्रतीत होती है उससे अपने स्वजनों को भी लाभान्वित करने की हमारी आन्तरिक इच्छा रहती है। इसलिए हम सदा यह प्रयत्न करते रहते हैं कि गायत्री महाविद्या का जितना अधिक विस्तार हो उतना अच्छा है। इस महाशक्ति से जितने अधिक व्यक्ति लाभान्वित हों उतना ही उत्तम है। हमारी अपने प्रत्येक पाठक को यह सलाह है कि वे किसी न किसी रूप में अपने को गायत्री शक्ति से संबद्ध करने का प्रयत्न करें। जिन्हें इस सम्बन्ध में अरुचि, उपेक्षा, अविश्वास या विरोध हो वे केवल परीक्षा एवं प्रयोग के रूप में कुछ समय वेद-माता की उपासना करें और देखें कि साधना में उनका जितना समय खर्च हुआ, उतने मूल्य का प्रतिफल आत्मिक एवं साँसारिक शक्ति के रूप में उन्हें मिला या नहीं ? हमारा विश्वास है कि यह बेजोखिम का परीक्षण हर किसी को संतोष एवं उत्साह प्रदान करने वाला ही सिद्ध होगा।
जैसे खेत बोने के लिए एक विशेष अवधि ऐसी आती है कि उस समय को बुद्धिमान किसान चूकता नहीं है। क्योंकि उन दिनों बोया हुआ बीज अच्छा उगता है। वैसे ही शरीर विद्या के ज्ञाता जानते हैं कि स्त्री के ऋतु स्नान के तुरन्त बाद के समागम में गर्भस्थापना की संभावना अधिक रहती है। यों तो कभी भी बीज बोया जा सकता है और कभी भी गर्भ स्थापित हो सकता है पर विशेष अवसरों पर किये गये प्रयत्नों से सत्परिणाम की संभावना अधिक रहती है। इसी प्रकार गायत्री साधना के लिए भी कुछ विशेष अवसर बड़े महत्वपूर्ण होते हैं, यह अवधि नवदुर्गाओं की है।
वर्ष में तीन ऋतु संध्याएं होती हैं। वर्षा के अन्त और शीत के आरम्भ में आश्विन सुदी 1 से 9 तक, शीत के अन्त और ग्रीष्म के आरम्भ में चैत्र सुदी 1 से 9 तक, ग्रीष्म के अन्त और वर्षा के आरम्भ में जेष्ठ सुदी 1 से 9 तक, ये तीन नवदुर्गाएं होती है। इनमें से आजकल दो ही का विशेष प्रचलन है। जेष्ठ की संध्या को तो लोग भूलते ही जा रहे हैं। इन नवदुर्गाओं में न्यूनाधिक मात्रा में गायत्री उपासना करने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए।
चौबीस हजार का छोटा अनुष्ठान इन 9 दिनों में बड़ी आसानी से हो सकता है। प्रतिदिन 25 मालाएं जपने से 9 दिन में 24 हजार जप हो जाते हैं। यह जप ढाई घंटे में बड़ी आसानी से हो जाता है। जिन्हें प्रातः काल ढाई घंटे न मिल सके वे डेढ़ घंटा प्रातः एक घंटा सायं काल जप करके इस साधना को बिना किसी कठिनाई के पूरा कर सकते हैं।
प्रातः काल स्नान करके कुश के आसन या लकड़ी की चौकी पर पूर्व को मुँह करके साधना के लिए बैठे। गायत्री के चित्र को शीशे में मढ़वा कर उसका धूप, दीप, चंदन, अक्षत, नैवेद्य, पुष्प आदि माँगलिक द्रव्यों से पूजन करके जप आरंभ कर देना चाहिए। जिनके पास चित्र न हो या पूजन सामग्री उपलब्ध न हो सके, वे नेत्र बन्द करके ध्यान द्वारा मानसिक पूजा कर सकते हैं। जल से भरा पात्र पास में रखा रहे। आचमन करके तब जप किया जाए। माला तुलसी या चंदन की लेनी चाहिए। जप के अन्त में जल को सूर्य के सम्मुख अर्घ्य के रूप में देना चाहिए। संध्या को पश्चिम में मुँह करके जप करना चाहिए। प्रातः काल 4 बजे से पूर्व और शाम को आठ बजे पीछे जप न करना चाहिए। जप के समय शून्य आकाश में या मस्तिष्क के मध्य भाग में गायत्री तेज पुँज का ध्यान करते रहना चाहिए।
नवदुर्गाओं में दुग्धाहार, फलाहार, एक आहार, अस्वाद आहार का जो भी नियम अपने से बन पड़े, उस आधार पर उपवास कर लेने चाहियें। इन दिनों दूसरे के हाथ से बाल बनवाना, चमड़े के जूते पहनना, तेल मालिश, चारपाई पर सोना, काम सेवन एवं मद्य-माँस आदि तामसिक आहार वर्जित है। समय का अधिकाँश उपयोग स्वाध्याय, सद्विचार एवं सत्कार्यों में ही करना चाहिए। दसवें दिन हवन तथा पूर्णाहुति के उपलक्ष में यथाशक्ति दान करना चाहिये। शास्त्र में कहा गया है कि बिना दक्षिणा का यज्ञ निष्फल होता है। केवल जप मात्र का अनुष्ठान, जिसमें दान का कोई प्रयोग न हो एक प्रकार से लंगड़ी, लूली, कानी, एकाँगी साधना है।
अस्त्र, शस्त्र, पात्र आदि के दान की अपेक्षा ब्रह्म-दान अधिक श्रेष्ठ है। गायत्री ज्ञान का आध्यात्मिक साहित्य सत्पात्रों को दान करना किसी भी ब्रह्म-भोज, अन्न-दान, गौदान से कम महत्वपूर्ण नहीं है। इस प्रयोजन के लिये एक अत्यन्त सस्ती लागत मूल्य की ‘सर्वशक्तिमान गायत्री’ नामक दो आना मूल्य की पुस्तिका छापी गई है। 24 हजार अनुष्ठान के उपलक्ष में कम से कम 24 प्रतियाँ वितरण करने में तीन रुपया मात्र खर्च होते हैं। सामर्थ्य और श्रद्धानुसार इस संबंध में अधिक खर्च भी किया जाना चाहिए।
नवदुर्गाओं की साधना के उपरान्त भी अपनी उपासना जारी रखी जा सके तो बड़ा ही उत्तम है। वर्ष में 3 नवदुर्गाओं के छोटे अनुष्ठान तथा प्रतिदिन 11 मालाएं जपते रहने से एक वर्ष में पाँच लाख का ‘अभियान’ नामक जप-यज्ञ पूरा हो जाता है। प्रतिदिन दो मालाएं नियम पूर्वक जपते रहने से वर्ष में सवालक्ष का एक पूर्ण अनुष्ठान हो जाता है। इतना भी न बन पड़े तो प्रातः सोकर उठते समय रात को सोते समय गायत्री का मानसिक जप और ध्यान करके नियमित साधना को चालू रखा जा सकता है। एक वर्ष तक नियमित रूप से माता से संबंध बनाये रखा जाय तो साधक की मनोभूमि इतनी परिमार्जित हो जाती है कि उसमें दैवी तत्वों की स्थापना समुचित रूप से हो सकती है।
आश्विन की नवदुर्गाएं समीप हैं। इस सुअवसर पर एक छोटा अनुष्ठान कर लेना और आगे के लिये किसी न किसी यानि रूप में नियमित साधना जारी रखना एक उत्तम शुभारंभ होगा। इसे करने का साहस एवं उत्साह अपने में उत्पन्न करना हमारे लिये एक परम कल्याणकारी दिव्य आयोजन सिद्ध हो सकता है। अखण्ड ज्योति अपने पाठकों को इस आयोजन के लिए विशेष रूप से प्रोत्साहित करना चाहती है।
गायत्री महाशक्ति की साधना एक महत्वपूर्ण विद्या है। अन्य विज्ञानों के भाँति इसके भी दो भाग हैं (1) सिद्धान्त (2) क्रिया। इनमें से केवल एक भाग को ही अपनाने से कोई व्यक्ति पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता। गायत्री की उपासना करने का जितना महत्व है, उतना ही उसकी समस्त जानकारी को प्राप्त करना भी आवश्यक है। अधूरी शिक्षा के आधार पर की हुई क्रिया में अनेकों शंकाएं, भ्रान्तियाँ , त्रुटियाँ, भूलें रह जाती हैं जो कई बार बड़ी अनिष्टकर साबित होती हैं। इस आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए हमने बीस वर्ष तक लगातार परिश्रम करके दो हजार आर्ष ग्रन्थों के निचोड़ स्वरूप गायत्री महाविद्या का ज्ञान भली प्रकार करा देने वाली 9 पुस्तकें प्रकाशित कर दी है। अनुभवी गुरु की भाँति सच्चा पथ-प्रदर्शन करने वाली इन पुस्तकों को पढ़ना हर गायत्री-प्रेमी के लिए आवश्यक है।