संतों की अमृत वाणियाँ

October 1950

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रूखा सूखा खाय कर, ठण्डा पानी पी

देख पराई चोपडी, क्यों ललचावें जीय

आधी अरु रूखी भली, सारी सो संता

जो चाहेगा चोपडी, तो बहुत करेगा पाप

दोष पराया देख कर चले हसंत हसंत

अपना याद न आवही जाका आदि न अंत

साँई आग साँव हो, साँई साँव सुहाय

भावै लंबे केश रख, भावे घोट मुँडाय

संचे कोई न पतीजा, झूँठे जग पतियाय

गली गली गोरस फिरे मदिरा बैठ बिकाय

साँचे शाप न लागही, साँचे काल न खाय

साँचे को साँचा मिले, साँचे माँहि समाय

प्रेम प्रीति का चोलना, पहिर कबीरा नाच

तन मन वा पर वारहीं जो कोई बोलै साँच साँच बिना सुमरण नहीं, भाव बिन भक्ति न होय

पारस में परदा रहै, कंचन किस विधि होय

ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय

औरन को शीतल करें, आपा शीतल होय

बोली तो अनमोल है जो कोई जाने बोल

हिय तराजू तौल कर तब मुख बाहर खोल।

शब्द बराबर धन नहीं जो कोई जाने बोल

हीरा तो दामों मिले शब्द का मोल न तोल॥

जहाँ दया तहँ धर्म है जहाँ लाभ तहँ पाप

जहाँ क्रोध तहँ काल है जहाँ क्षमा तहँ आप॥

चलो चलो सब कोई कहै, पहुँचे बिरला कोय

एक कनक औ कामनी, दुर्गम घाटी दोय॥

कामी क्रोधी लालची इनसे भक्ति न होय

भक्ति करे कोई शूरमा, जात वरण कुल खोय॥

कंचन तजना सहज है, सहज जिया का नेह।

मान बड़ाई ईर्ष्या, दुर्लभ तजनी येह।

चाह मिटी चिन्ता गई मनुबाँ वे परवाह।

जिनको कछु न चाहिये सोई शाहनशाह।

माँगन गए सो मर रहे मरे सो माँगन जाहिं।

तिनसे पहले वे मरे जो होत कहत है नाहिं॥


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