पतिव्रता क्या नहीं कर सकती?

October 1950

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(श्री स्वामी श्रद्धानंद जी के आत्म-चरित्र से)

उन्हीं दिनों मेरे मामू महाशय ने मुझे कुछ-कुछ मद्य-पान का अभ्यास शुरू करा दिया था। अब तो मैंने मद्यपवीर का पूरा रूप धारण कर लिया, यदि उस रामायण पर से श्रद्धा न उठ गई होती जिस में सीता के आदर्श पतिव्रत पर मैंने बार बार पवित्र अश्रुधारा बहायी थी तो मुझे निश्चय है कि गड्ढे से बच जाता जिसमें गिरने के पीछे मुझे घोर प्रायश्चित करने पर ही शान्ति प्राप्ति हुई थी। यदि अपने प्राचीन इतिहास पर श्रद्धा होती तो पीड़ित स्त्री जाति का रक्षाबन्धन भाई बन कर उनकी रक्षा का व्रत लेता। परन्तु मैंने तो अपनी सभ्यता को जंगलीपन और अपने साहित्य को मूर्खता का भण्डार समझ रखा था, फिर उनसे मुझे सहायता कब मिल सकती थी ?”

“बरेली आने पर शिवदेवी (मेरी धर्मपत्नी) का यह नियम हुआ कि दिन का भोजन तो मेरे पीछे करती ही, परन्तु रात को जब कभी मुझे देर हो जाती और पिता जी भोजन कर चुकते तो मेरा और अपना भोजन ऊपर मंगा लेती और जब मैं लौटता उसी समय अंगीठी पर गर्म करके मुझे भोजन करा पीछे स्वयं खाती। एक रात मैं आठ बजे मकान लौट रहा था। गाड़ी दर्जी चौक के दरवाजे पर छोड़ी। दरवाजे पर ही बरेली के बुजुर्ग रईस मुंशी जीवन सहाय का मकान था। उनके बड़े पुत्र मुंशी त्रिवेनी सहाय ने मुझे रोक लिया। गजक सामने रखी और जाम भर कर दिया । मैंने इन्कार किया। बोले - “तुम्हारे ही लिए तो दो अतिशा खिंचवायी है। यह जौहर है। त्रिवेनी सहाय जी छोटेपन के मेरे मित्र थे। उनको मैं बड़े भाई के तुल्य समझता था न तो अतिशा का मतलब समझा न जौहर का। एक गिलास पी गया फिर गपबाजी शुरू हो गयी और उनके मना करते करते मैं चार गिलास चढ़ा गया। असल में वह बड़ी नशीली शराब थी। उठते ही असर मालूम हुआ। दो मित्र साथ हुये। एक ने कहा चलो मुजरा करायें। उस समय तक न तो मैं कभी वेश्या के मकान पर गया था न कभी किसी वेश्या को बुलाकर अपने यहाँ बातचीत की थी, केवल महफिलों में नाच देख कर चला आता था। शराब ने इतना जोर किया कि पाँव जमीन पर नहीं पड़ता था।”

एक वेश्या के घर में जा घुसे। कोतवाल साहब के पुत्र को देख कर सब सलाम करके खड़ी हो गयीं। घर की बड़ी नायिका का हुक्म हुआ कि मुजरा सजाया जाए। उसकी नौची के पास कोई रुपये देने वाला बैठा था उसके आने में देर हुई। न जाने मेरे मुँह से क्या निकला सारा घर काँपने लगा। नौची घबड़ायी हुई दौड़ी आई और सलाम किया तब मुझे किसी अन्य विचार ने आ घेरा। उसने क्षमा माँगने के लिये हाथ बढ़ाया और मैं “नापाक नापाक” कहते हुए नीचे उतर आया। यह सब पीछे साथियों ने बताया, नीचे उतरते ही घर की ओर लौटा, बैठक में तकिये पर जा गिरा और बूट आगे कर दिये जो नौकर ने उतारे। उठ कर ऊपर जाना चाहा परन्तु खड़ा नहीं हो सकता था। पुराने भृत्य बूढ़े पहाड़ी पाचक ने सहारा देकर ऊपर चढ़ाया। छत पर पहुँचते ही पुराने अभ्यास के अनुसार किवाड़ बन्द कर लिये और बरामदे के पास आया ही था कि उल्टी होने लगी। उसी समय एक नाजुक छोटी अँगुलियों वाला हाथ सिर पर पहुँच गया और मैंने उलटी खुलके की। अब शिवदेवी के हाथों में मैं बालकवत् था। कुल्ला करा, मेरा मुँह पोंछ ऊपर का अँगरखा जो खराब हो गया था बैठे ही बैठे फेंक दिया, और मुझे आश्रय देकर अन्दर ले गई। वहाँ पलंग पर लिटाकर मुझ पर चादर डाल दी और बैठ कर सिर दबाने लगी। मुझे उस समय का करुणा और शुद्ध प्रेम से भरा मुख कभी न भूलेगा। मैंने अनुभव किया मानो मातृशक्ति की छत्रछाया के नीचे निश्चिंत लेट गया हूँ। पथराई हुई आँखें बन्द हो गयी। और मैं गहरी नींद सो गया। रात को शायद एक बजा था जब मेरी आँख खुली। वह चौदह पन्द्रह वर्ष की बालिका पैर दबा रही थी। मैंने पानी माँगा। आश्रय देकर उठाने लगी, परन्तु मैं उठ खड़ा हुआ। गरम दूध अँगीठी पर से उतार और उसमें मिश्री डाल कर मेरे मुँह से लगा दिया दूध पीने पर होश आया। उस समय अंग्रेजी उपन्यास मगज में से निकल गये और गुसाँई जी के खींचे दृश्य सामने आ खड़े हुये। मैंने उठ कर और पास बैठ कर कहा- ‘देवी! तुम बराबर जागती रहीं और भोजन तक नहीं किया। अब भोजन करो।’ उत्तर ने मुझे व्याकुल कर दिया। परन्तु उस व्याकुलता में आशा की झलक थी। शिवदेवी ने कहा “आपके भोजन किये बिना मैं कैसे खाती ? अब भोजन करने में क्या रुचि है। उस समय की दशा का वर्णन लेखनी द्वारा नहीं हो सकता। मैंने अपनी गिरावट की दोनों कहानियाँ सुना कर देवी से क्षमा की प्रार्थना की परन्तु वहाँ उनकी माता का उपदेश काम कर रहा था-आप मेरे स्वामी हो यह सब कुछ सुनाकर मुझ पर पाप क्यों बढ़ाते हो ! मुझे तो यह शिक्षा मिली है कि मैं आप की नित्य सेवा करूंगी। उस रात बिना भोजन किये दोनों सो गये और दूसरे ही दिन से मेरे लिये जीवन बदल गया।

“वैदिक आदेश से गिर कर भी जो सतीत्व धर्म का पालन पौराणिक समय में आर्य महिलाओं ने किया है उसी के प्रताप से भारत भूमि रसातल को नहीं पहुँची और उसमें पुनरुत्थान की शक्ति अब तक विद्यमान है-यह मेरा निज का अनुभव है। भारत-माता का ही नहीं, उसके द्वारा तहजीब की ठेकेदार संसार की सब जातियों का सच्चा उद्धार भी उस समय होगा जब आर्यावर्त की पुरानी संस्कृति जागने पर देवियों को उनके उच्चासन पर फिर से बिठाया जायेगा।”


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