विवेक का अनुशीलन

October 1950

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धियो वोन्मथ्याच्छागम निगम मंत्रान सुमतिवान् विजानीयात्तत्वं विमल नवनीतं प्ररिमिव॥ यतोस्मिन् लोके वै संशयगत विचार स्थलशते मतिः शुद्धैवाँछा प्रकट यति सत्यं सुमन से॥

अर्थ- वेद-शास्त्रों को बुद्धि से मथकर मक्खन के सामान उत्कृष्ट तत्व को जाने। क्योंकि शुद्ध बुद्धि से ही सत्य को जाना जाता है।

कई बार ऐसे अवसर सामने आते हैं कि परस्पर विरोधी विचारधाराओं के सामने आ जाने पर बुद्धि भ्रमित हो जाती है और यह निर्णय नहीं हो पाता कि इनमें किसे स्वीकार तथा किसे अस्वीकार करें।

वेद-शास्त्रों में अनेकों ऐसे स्थल हैं जिनमें आपसी मतभेद बहुत भारी है। एक ग्रन्थ में एक बात का समर्थन किया गया है तो दूसरे में उसका विरोध है। इसी प्रकार ऋषियों, सन्तों, महापुरुषों, नेताओं के विचारों और आदर्शों में कभी-कभी असाधारण विरोध होता है। इन उलझनों में साधारण व्यक्ति का मस्तिष्क भ्रमित हो जाता है। किस शास्त्र को, ऋषि को, महापुरुष को, नेता को वह गलत ठहरावे किसे सही ठहराये। सभी का अनुकरण हो नहीं सकता, क्योंकि विरोधी मतों को एक साथ मानना और उनका अनुसरण करना असंभव है।

गायत्री का ‘धियो’ शब्द ऐसे अवसरों पर विवेक की कसौटी हमारे हाथ में देता है और आदेश करता है कि किसी भी पुस्तक या व्यक्ति की अपेक्षा विवेक का महत्व अधिक है। इसलिए जो बात बुद्धि संगत हो, विवेक सम्मत हो, व्यवहार में आने योग्य हो, उचित हो, केवल उसी को ग्रहण करना चाहिए।

देश काल और परिस्थिति का ध्यान रख कर समय समय पर आचार्यों ने उपदेश किये हैं। इसलिये जो बात एक समय के लिए बहुत ही उचित एवं आवश्यक थी वह दूसरे समय में अनुचित और अनावश्यक हो गई। जाड़े के दिनों में पहने जाने वाले गरम ऊनी कपड़े गर्मी में हानिकारक हैं, इसी प्रकार गर्मी की हलकी पोशाक को ही जाड़े के दिनों में पहने रहना निमोनिया को निमंत्रण देना है। अपने समय में जो पोशाक आवश्यक होती है वही काल और परिस्थिति बदल जाने पर त्याज्य हो जाती है।

अग्नि का आविष्कार होने पर आदिम काल में मनुष्य इस दैवीतत्व को पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ उसने अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए अग्नि को घृत, मेवा, मिष्ठान, पकवान, सुगंधित वनस्पतियों का भोजन कराने का विधान, यज्ञ, आरंभ किया। समय के साथ उस पवित्र यज्ञ व्यवस्था में विकार आया और गौ, अश्व, नर आदि का वध करके हवन किया जाने लगा। इस विकृति को रोकने के लिए गौतमबुद्ध ने यज्ञों का खंडन किया। कालान्तर में बौद्ध-धर्म में भी विकार आये और उनका शंकराचार्य को खंडन करना पड़ा। शंकर मतानुयायी भी धीरे धीरे शुष्क वेदान्ती मात्र रह गये तब प्रेम और भावना को जागृत करने के लिए भक्ति मार्गी संतों ने वेदान्त का विरोध करके भक्ति की ध्वजा फहराई। भक्ति में अन्धविश्वास आ गया तो स्वामी दयानन्द ने उसका भी खंडन किया। इस प्रकार हम देखते हैं कि एक आचार्य दूसरे का खंडन करता चला आया है। जैसे एक समय का स्वादिष्ट भोजन कालान्तर में विष्ठा बन जाता है वैसे ही एक समय की व्यवस्था कालान्तर में जीर्ण-शीर्ण हो जाती है और उसका पुनरुद्धार करना पड़ता है। अपने अपने समय का प्रत्येक शास्त्रकार सच्चा है, पर कालान्तर में उसने सुधार होना अवश्यंभावी है। देश-काल का ध्यान न रखते हुए जब हम सब शास्त्रों को समकालीन मान कर चलते हैं तब उनमें विरोध दिखाई पड़ता है। किन्तु काल भेद और परिस्थिति भेद को ध्यान में रखते हैं तो सभी व्यवस्थाएँ सही मालूम पड़ती हैं।

केवल विवेक ही हमें यह बता सकता है कि आज की स्थिति में क्या ग्राह्य है क्या अग्राह्य? यह हो सकता है कि अपरिष्कृत विवेक कुछ भूल कर जाए और उसका निर्णय पूर्णतया निर्दोष न हो फिर भी यदि निष्पक्ष विवेक को जागृत रखा जायगा तो बहुत शीघ्र ही वह भूल प्रतीत हो जायगी और सच्चा मार्ग मिल जाएगा। यह डर, कि हमारा विवेक गलत होगा तो गलत निर्णय पर पहुँच जायेंगे, उचित नहीं। क्योंकि विवेक के अतिरिक्त और कोई मार्ग सत्यासत्य के निर्णय का है ही नहीं। यदि किसी शास्त्र, सम्प्रदाय, महापुरुष के मत का अनुकरण किया जाय तो भी अनेक शास्त्रों, सम्प्रदायों, महापुरुषों में से एक को अपना पथ प्रदर्शक चुनने का काम विवेक पर ही आ पड़ेगा। विवेक का अनुगमन कभी भी हानिकारक नहीं होता क्योंकि बुद्धि का पवित्र, निस्वार्थ, सात्विक भाग होने के कारण विवेक द्वारा वही निर्णय किया जाता रहेगा जो आज की हमारी मनोभूमि की अपेक्षा श्रेष्ठ हो। उसका अनुगमन करने से मनोभूमि दिन दिन अधिक पवित्र एवं विकसित होती जाएगी तदनुसार हमारा विवेक भी अधिक सूक्ष्म होता जाएगा। यह उभय पक्षीय उन्नती धीरे धीरे आत्मबल को बढ़ाती चलेगी और क्रमशः हम सत्य के अधिक निकट पहुँचने जाएंगे। इसी मार्ग पर चलते चलते एक दिन पूर्ण सत्य की प्राप्ति हो जाएगी।

अनेकों परम्पराएँ, प्रथाएँ, रीति-रिवाजें ऐसी प्रचलित हैं जो किसी समय भले ही उपयुक्त रही हों पर आज तो वे सर्वथा अनुपयोगी एवं हानिकारक ही हैं। ऐसी प्रथाओं एवं मान्यताओं के बारे में ऐसा न सोचना चाहिए कि “हमारे पूर्वज इन्हें अपनाते रहे हैं तो अवश्य इनका भी कोई महत्व होगा इसलिए हम भी इन्हें अपनाये रहें।” हमें हर बात पर वर्तमान काल की आवश्यकताओं और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ही कोई निर्णय करना चाहिए।

भारतीय दर्शन शास्त्र का सदा से यह आदेश रहा है कि-व्यक्तियों और विचारों को आपस में संबद्ध मत करो। संभव है कि कोई उत्तम चरित्र का व्यक्ति भ्रान्त हो और उसके विचार अनुपयुक्त हों, इसी प्रकार यह भी संभव है कि कोई हीन चरित्र का व्यक्ति सारगर्भित बात कहता हो। उत्तम चरित्र के मनुष्य का व्यक्तिगत सम्मान करने में कभी संकोच न करना चाहिए, किन्तु उस सम्मान का अर्थ यह नहीं है कि उसके विचारों को स्वीकार करने के लिए हम बाध्य हों। यहाँ विवेक ही प्रधान है। भगवान बुद्ध के उत्तम चरित्र और महान तपश्चर्या से श्रद्धान्वित होकर हिन्दू जाति ने उन्हें सर्वोपरि सम्मान की “अवतार” उपाधि से विभूषित किया है। इससे बड़ा सम्मान और कृतज्ञता यापन हिन्दू जाति के पास और कोई है ही नहीं। इतना होते हुए भी बौद्ध सिद्धान्तों को स्वीकार नहीं किया गया। ईश्वर पर अनास्था, शून्यवाद, गृह-त्याग में मोक्ष, यज्ञ निषेध, आदि बुद्ध की शिक्षाओं को हिन्दू जाति अस्वीकार ही नहीं करती वरन् उनका कटु विरोध भी करती है। चार्वाक ऋषि हुए हैं। उनका नास्तिक दर्शन भी अन्य शास्त्रों की तरह ही आदरणीय है परन्तु यह आवश्यक नहीं कि उनके प्रति आदर बुद्धि रखने वालों को वे विचार भी स्वीकार हों। गाँधी और सुभाष दोनों के प्रति आन्तरिक आदर रखते हुए भी वह हमारे विवेक के ऊपर निर्भर रहेगा कि हिंसा का सिद्धान्त माना जाय या अहिंसा का।

संसार में अनेक धर्म, सम्प्रदाय, नेता और विचारक हैं। उनकी अपने अपने ढंग की अनेक मान्यताएँ हैं। इनमें से अपने लिए आज किसका, किस अंश में, किस प्रकार, अनुसरण करना चाहिए, यह निर्णय करना हमारे विवेक के ऊपर है। हमारा निर्णय जिसके पक्ष में हो उसके अतिरिक्त भी अन्य धर्मों या महा-पुरुषों के लिए घृणा या द्वेष करने की आवश्यकता नहीं है। उनका उपदेश आज भले ही हमारे लिए अनुकूल न हो पर अपनी समझ से अपनी परिस्थितियों में उन्होंने भी शुभ उद्देश्य से ही अपना मत निर्धारित किया था। उनका उद्देश्य पवित्र था इसलिए वे स्वभावतः हमारे आदर के अधिकारी हो जाते हैं। विवेक की कसौटी पर कस कर हम बुराई भलाई को हर जगह परख कर सकते हैं। किसी देश, जाति या मनुष्य के कुछ बुरे काम देख कर उसे पूर्णतया बुरा मान लेना ठीक नहीं।

जिस समुदाय में कुछ लोग दुष्ट या प्रतिपक्षी हैं उसके सभी लोगों को वैसा मान लेना ठीक नहीं। अमुक जाति बहुत बुरी है ऐसी मान्यता अनुचित है। क्योंकि न्यूनाधिक मात्रा में सभी समुदायों में अच्छे और बुरे होते हैं। विवेक ही हमें यह बता सकता है कि शत्रुओं के बीच भी मित्र हो सकते हैं और मित्रों में भी आस्तीन के साँप होना संभव है।

भले और बुरे की, हानि और लाभ की, मित्र और शत्रु की, सच्चे और झूठे की पहचान केवल विवेक ही करा सकता हैं। आकर्षणों, प्रलोभनों, तृष्णाओं, विकारों, भ्रान्तियों, खतरों से सावधान करके हमें पतन के गहरे गड्ढ़े में गिरने से बचाने की शक्ति केवल विवेक में ही है। विवेक हमारा सच्चा-मित्र है। वह भूलें सुधारता है, मार्ग दिखाता है, उलझनें सुलझाता है, खतरों से बचाता है, और सफलता की ओर अग्रसर करता है। ऐसे मित्र की आवश्यकता समझना उससे प्रेम करना और उसे अधिक से अधिक आदर के साथ समीप रखना यह हमारे लिए सब प्रकार से कल्याण कारक हो सकता है।

गायत्री के ‘धियो’ शब्द का आदेश है कि हम विवेकवान बनें। विवेक को अपनायें, विवेक की कसौटी पर कस कर अपने विचार और कर्मों का निर्धारण करें इस शिक्षा को स्वीकार करना मानो अपनी जीवन दिशाओं को शीतल, शान्तिदायक, मलय मरुत के लिए उन्मुक्त कर देना है।


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